Sunday, October 22, 2023

चिराग़ों के घर नहीं होते

सदा तो सँग तलक दर-ब-दर नहीं होते 
कहा ये किसने चिराग़ों के घर नहीं होते 

अभी असर न दिखा हो तो इंतज़ार करो 
हैं ऐसे दांव भी जो बेअसर नहीं होते 

ग़मों की धूप में नाज़ुक बदन मुफ़ीद नहीं 
गुलों के जिस्म नरम, सूखकर नहीं होते 

खुद अपना बोझ उठाने में कोई हर्ज़ नहीं 
पराये पाँव बहुत मोतबर नहीं होते

~चिराग़ जैन 

Sunday, October 15, 2023

नए घर में

नए फ्लैट की दीवारों पर
धीरे-धीरे उभर रहा है
हमारा घर
 
माॅड्यूलर किचन के खोपचों से
आँख बचाकर
एक कोने में पालथी मारकर बैठ गया है
सरसों के तेल का पीपा

सभी नए कंटेनरों के बीच
चुपके से जा छुपी है
युगों पुरानी हींग की डिब्बी!

बरसों से इकट्ठे हुए शो-पीस
चहक कर जा बैठे हैं
इस-उस टीवी पैनल पर
 
पापा के लिए बनी
स्पेशल अलमारी ने
सबको संजो लिया है थोड़ा-थोड़ा;
थोड़े-थोड़े हम सब
पसरने लगे हैं
माँ के कमरे तक

'कोई फ़ालतू सामान नए घर में नहीं जाएगा'
के संकल्प ने
'ये तो रख लो, ज़रूरत पड़ती रहती है'
के अनुरोध से 
हार मान ली है
 
नपे-तुले घर में
सहेज लिए गए हैं कुछ एक्स्ट्रा बिस्तर
ताकि तीनों बहनों के
एक साथ आने पर भी
छोटा न लगे
हमारा नया घर
 
मेरे व्यवस्थित ऑफिस की एक दराज़ में
दर्ज हो गई हैं मेरी अव्यवस्थित पर्चियाँ;
मेरे बैडरूम की ड्रेसिंग का शीशा
सज गया है
एक छोटी लाल बिंदी से;
एकदम नए दरवाज़ों के पीछे
उभर आई हैं खूँटियाँ

चमचमाते हुए मंदिर में
विराज चुकी है
साठ-सत्तर साल पुरानी तस्वीरें

नए स्टाइल की डिजाइनर लाइब्रेरी में
कतार बांधकर खड़ी हो चुकी हैं
मेरी 'सारी' किताबें
जो बहुत देर तक छाँटने के बावजूद
एक भी कम नहीं हुई
 
हाइड्रोलिक डबल बैड के
स्टोरेज बॉक्स में बैठकर
लगाया जा रहा है सामान

ख़ूबसूरत बालकनी की जाली में
लटक गई है
काली पुती हुई हांडी

माँ की शादी में मिली
सिलाई मशीन
माँ के बिस्तर से दो हाथ दूर बैठी
सी रही है
नए घर में
पुरानी यादें

पैकिंग के सारे कार्टन
विदा कर दिए गए हैं
और उनके भीतर से निकलकर
हम सब
पूरी शिद्दत से
बसे जा रहे हैं
घर के रोम-रोम में!

-चिराग़ जैन

Monday, October 9, 2023

परिस्थितियों की खिल्ली

हम अक्सर राजनीति से नाराज़ रहते हैं कि राजनीति असली मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए फालतू के विवादों में क्यों उलझाती है; हमें स्वयं से भी यह प्रश्न पूछना चाहिए कि हम भी वास्तविक विषयों से भटककर फालतू विवादों में क्यों उलझते हैं।
राहुल गांधी गुरुद्वारे गए, मोदी जी मंदिर गए, फलाने जी ने दलित के घर खाना खाया, फलाने जी ने फलाने जी को जूता मारा, फलाने जी चीते ले आए, फलाने जी ने मोटरसाइकिल चलाई... क्या मतलब है हमारा इन सबसे? हमने भी तो इन्हीं सब पर पोस्ट लिख लिखकर सोशल मीडिया के ट्रेंड सेट किए हैं!
जितने लोगों ने भाजपा को साम्प्रदायिक सिद्ध करने के लिए ट्वीट किए हैं, उतने लोग यदि देश की सड़कों की बदहाली का सवाल उठाते तो राजनीति को हिन्दू-मुस्लिम छोड़कर सड़कों की मरम्मत के लिए विवश होना पड़ता। जितने लोगों ने राहुल गांधी को 'पप्पू' घोषित करने के लिए पोस्ट की हैं, उतने लोग यदि चिकित्सा व्यवस्था की हालत अपनी पोस्ट में बयां करते तो हर राजनैतिक दल के घोषणा पत्र में चिकित्सा तंत्र का उपचार प्रथम वरीयता पर होता। जितने ट्वीट केजरीवाल का मज़ाक बनाने पर पोस्ट हुए हैं, उसका कुछ अंश भी बदबूदार रेल्वे कम्पार्टमेंट, बास मारते प्लेटफॉर्म और ढीठ हो चुके कर्मचारियों पर होने लगते तो हम व्यवस्था को स्वस्थ रेल्वे उपलब्ध कराने के लिए विवश कर सकते थे।
लेकिन वास्तविकता यह है कि हमें स्वयं अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की कोई चिंता नहीं है। हमें भी राजनीति के खेल-तमाशे में बड़ा मज़ा आता है। इसीलिए राजनेताओं को भी अपना मज़ाक़ बनानेवालों से कोई फर्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि वे जानते हैं कि जितनी देर हम राजनीति का मखौल बना रहे होते हैं, उतनी देर हम दरअस्ल अपनी ही परिस्थितियों की खिल्ली उड़ा रहे होते हैं।

-चिराग़ जैन