हम अक्सर राजनीति से नाराज़ रहते हैं कि राजनीति असली मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए फालतू के विवादों में क्यों उलझाती है; हमें स्वयं से भी यह प्रश्न पूछना चाहिए कि हम भी वास्तविक विषयों से भटककर फालतू विवादों में क्यों उलझते हैं।
राहुल गांधी गुरुद्वारे गए, मोदी जी मंदिर गए, फलाने जी ने दलित के घर खाना खाया, फलाने जी ने फलाने जी को जूता मारा, फलाने जी चीते ले आए, फलाने जी ने मोटरसाइकिल चलाई... क्या मतलब है हमारा इन सबसे? हमने भी तो इन्हीं सब पर पोस्ट लिख लिखकर सोशल मीडिया के ट्रेंड सेट किए हैं!
जितने लोगों ने भाजपा को साम्प्रदायिक सिद्ध करने के लिए ट्वीट किए हैं, उतने लोग यदि देश की सड़कों की बदहाली का सवाल उठाते तो राजनीति को हिन्दू-मुस्लिम छोड़कर सड़कों की मरम्मत के लिए विवश होना पड़ता। जितने लोगों ने राहुल गांधी को 'पप्पू' घोषित करने के लिए पोस्ट की हैं, उतने लोग यदि चिकित्सा व्यवस्था की हालत अपनी पोस्ट में बयां करते तो हर राजनैतिक दल के घोषणा पत्र में चिकित्सा तंत्र का उपचार प्रथम वरीयता पर होता। जितने ट्वीट केजरीवाल का मज़ाक बनाने पर पोस्ट हुए हैं, उसका कुछ अंश भी बदबूदार रेल्वे कम्पार्टमेंट, बास मारते प्लेटफॉर्म और ढीठ हो चुके कर्मचारियों पर होने लगते तो हम व्यवस्था को स्वस्थ रेल्वे उपलब्ध कराने के लिए विवश कर सकते थे।
लेकिन वास्तविकता यह है कि हमें स्वयं अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की कोई चिंता नहीं है। हमें भी राजनीति के खेल-तमाशे में बड़ा मज़ा आता है। इसीलिए राजनेताओं को भी अपना मज़ाक़ बनानेवालों से कोई फर्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि वे जानते हैं कि जितनी देर हम राजनीति का मखौल बना रहे होते हैं, उतनी देर हम दरअस्ल अपनी ही परिस्थितियों की खिल्ली उड़ा रहे होते हैं।
-चिराग़ जैन
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