कवि होने की न्यूनतम अर्हताओं में एक अदद मन की आवश्यकता होती है। और मन भी साधारण नहीं; बल्कि ऐसा मन, जिसका करुणा-कोष अक्षय हो। जिसकी कल्पना का आकाश दिखाई तो सबको दे, लेकिन उस तक पहुँचना सहज संभव न हो। जिसकी दृष्टि विहंगम हो। जिसकी आकांक्षाओं में समस्त सृष्टि के लिए शुभ की कामना हो। जिसकी उत्कंठाओं में हर किसी के लिए स्वप्नपूर्ति का अवकाश हो। जो सपनीला हो... जो संगीतमयी हो...!
वैभव की तेज़ रौशनी कब किसी अश्रु में से गुज़रकर इंद्रधनुषी हो उठी है, यह जिसकी आँखों को अनायास दिखाई दे जाए, वह कवि है। कविता के किसी भी रस को साध लेने के लिए इन गुणों की साधना आवश्यक है। डॉ. कीर्ति काले की रचनाओं का मुख्य रस शृंगार है, इसलिए उनका रचनाकार, संवेदना के इस महीन अस्तित्व के प्रति अधिक उत्तरदायी है। वियोग शृंगार के लिए तो फिर भी करुणा की वीथियाँ उपलब्ध हो जाती हैं, किंतु सयोग शृंगार के लिए तो प्रेम के उद्वेग में अनदेखे रह जानेवाले पलों को लपकने का कौशल अपेक्षित है।
इसके लिए प्रेम को भरपूर जीना होता है। इसके लिए प्राप्ति के आनन्द को परत-दर-परत निहारना होता है। इसके लिए फूल की एक-एक पाँखुरी का, एक-एक पर्ण का निकट से अन्वेषण करना होता है। प्रेम की कविताएँ लिखने के लिए कवि को प्रेमियों का मनोविज्ञान भोगना होता है। और रचनाकार एक बार इस मनोविज्ञान को छू ले, तो फिर उसकी रचनाओं में उत्सव की जो खनक उतरती है, वह श्रोता के मन को सम्मोहित करने में सक्षम हो पाती है।
डॉ. कीर्ति काले के काव्यपाठ में मैंने दर्जनों बार यह खनक सुनी है। उनके बिम्ब और प्रतीक इस बात की गवाही देते हैं कि उनकी रचनाएँ पुरानी परंपरागत रचनाओं के प्रभाव से उत्पन्न प्रतिबिम्ब मात्र न होकर, बाक़ायदा सर्वहितकारी साहित्य में गणित होने योग्य हैं। मुझे आज भी याद है, वर्ष 2002 में दिल्ली के एक कवि-सम्मेलन में जब पहली बार डॉ. कीर्ति काले को सुना था, तो उनका पहला ही कवित्त ‘नीम की निंबोरी’ से प्रारंभ हुआ। इस बिम्ब से किसी अल्हड़ किशोरी की मनोदशा का चित्रण हो सकता है, यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य का विषय था। निंबोरी जैसा सामान्य फल, जो धरती पर पददलित होकर उपेक्षित रहने को अभिशप्त था, उसे कविता में सजाकर सौंदर्य का उपमान बना देना कवयित्री का ऐसा कौशल था, जिसने मुझे उन्हें ध्यान से सुनने के लिए प्रेरित किया।
इसके बाद जब-जब भी इस सृजनात्मक हृदय की कविताओं का उपभोग किया तब-तब आश्वस्त हुआ कि मैंने इन्हें पढ़ने-सुनने के लिए समय की जो कीमत चुकाई है, वह कम ही है। मेरे भीतर के रचनाकार को डॉ. कीर्ति काले की लेखनी से सात्विक ऊर्जा प्राप्त हुई है। उनके कितने ही गीत ऐसे हैं, जिन्होंने मेरे एकाकी मौन के वातायन में गुनगुनाहट भरी है।
‘याद फिर बुनने लगी है मखमली स्वेटर’ -इस गीत ने रह-रहकर मेरे मन की रोमावली पर गुनगुनी धूप का लेप किया है। कविता जितनी बारीक़ होगी, उतना ही अधिक रस उलीचेगी। इस गीत में न केवल स्वेटर बुनने की याद बुनी गई है, बल्कि एक-एक फंदे और एक-एक सिलाई की बुनावट में उंडला प्रेम भी शब्दाकार हो गया है। ‘धीरे-धीरे घट रहे हैं रात के फन्दे, पोरुओं ने छू लिए दिनमान के कंधे...’ अहा! कविता का कल्पनालोक चाहे, तो स्वेटर के फंदों से पूरी प्रकृति का आलिंगन कर सकता है। यही तो कवि की शक्ति है। इसीलिए तो कवि को ब्रह्मा कहा गया है।
ज्यों-ज्यों आप कीर्ति जी को और पढ़ोगे, त्यों-त्यों आपको इस बात पर और विश्वास होता जाएगा कि वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। ‘दूर तक दृष्टि जाकर सिहर-सी गई, देखते-देखते दृश्य ओझल हुआ’ -गीत की यह पंक्ति रचनाकार के भीतर के उस दृष्टा का अवधान प्रदर्शित करती है, जो अपनी ही दृष्टि को देखने के लिए भी अपने साक्षीभाव को सचेत रखता है। शोक के जिस पल में आँखों की पुतलियाँ अश्रु अतिरेक के कारण कुछ नहीं देख पातीं, ऐसे में उन अश्रुओं के उस पार दूर तक दृष्टि ले जाना बड़ा जीवट का काम है और उससे भी कठिन है इस पार आँसुओं से जूझती पुतलियों के संघर्ष की गवाही देना। किसी नाटक के बीच ही जब यवनिका पतन हो जाए, तो ऐसे में उस दुर्घटना से भी नाटक का एक दृश्य बुन लेना किसी विलक्षण प्रतिभा के बूते ही संभव हो सकता है। कीर्ति जी ने इस गीत में ऐसे ही असंभव को संभव कर दिखाया है।
उनका एक गीत और है- ‘जब भी मन की माला फेरी, मर्यादा ने आँख तरेरी’। इस गीत की इन दो पंक्तियों में एक पूरे उपन्यास का कथानक समाहित हो गया है। सृजन के लिए मन और मर्यादा के मध्य जो संघर्ष होता है, वह पूरा संघर्ष अनायास ही इन दो पंक्तियों में उतर आया है। ऐसी पंक्तियाँ रचने के लिए किसी कवि को ज्ञान की नहीं अपितु किसी अदृश्य शक्ति के आशीर्वाद की आवश्यकता होती है। मर्यादा की सीमा से बाहर जाकर जिन्होंने मन की माला फेरी है, उन सब पुरखों का वर्णन कीर्ति जी ने इस गीत में पूरे दम-ख़म के साथ किया है। इस गीत में एक जगह कीर्ति जी लिखती हैं- ‘ईश्वर की आँखों से छलके होंगे सूरज-चंदा-तारे।’ यह पंक्ति विज्ञान की तमाम पोथियों को चुनौती देती है। लेकिन यह चुनौती इतनी ख़ूबसूरत है कि एक बार तो स्वयं विज्ञान भी ठिठककर इस पंक्ति को सच मान बैठता है। यह कविता का सम्मोहन है।
डॉ. कीर्ति काले के सृजनलोक में ऐसे सम्मोहन की अनेक वेदियाँ विद्यमान हैं। उनकी लेखनी से निःसृत सहज रचनाओं में एक ऐसा चुम्बकीय गुण है जो रसिकों को सहज ही अपने पाश में जकड़ लेता है।
हिन्दी कवि-सम्मेलन जगत् में तीन दशक से अधिक लम्बी यात्रा के बाद भी कीर्ति जी के स्वर की खनक और गीतों का प्रभाव कम नहीं हुआ है। इसका कारण यही है कि कवि-सम्मेलन के भीड़ भरे मेले में विचरते हुए भी वे अक्सर अपने रचनाकार का आश्रम सजाने के लिए मन का एकान्त खोजने में समर्थ हैं। सृजन के पारलौकिक शक्तिसूत्रों से यही अपेक्षा है कि वह डॉ कीर्ति काले जैसे रचनाकारों को उनके हिस्से का इतना एकन्त सदैव उपलब्ध कराएँ कि वे सरस्वती के इस असीम आकाश में अनवरत कुछ सितारे टाँकती रह सकें।
-चिराग़ जैन
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