Tuesday, January 23, 2024

मूल प्रवृत्ति

सामान्यतया राम की मूर्ति धनुष से पहचानी जाती है, और राम का चरित्र मृदुता से! इसके ठीक विपरीत कृष्ण की मूर्ति बाँसुरी से पहचानी जाती है किन्तु कृष्ण का चरित्र एक योद्धा का चरित्र है। राम कंधे पर धनुष रखकर विनम्र जीवन जीते हैं और कृष्ण अधरों पर बाँसुरी रखकर राजनैतिक जीवन जीते हैं। दोनों के चित्र देखकर उनके चरित्र का आकलन नहीं किया जा सकता। दोनों को जानने के लिए उनके आचरण का अनुसरण करना होगा। 
राम के व्यवहार में बाँसुरी की मोहिनी है और कृष्ण के आचरण में धनुष का सा निस्पृह कर्म। शिशुपाल वध की घटना में कृष्ण ठीक धनुष का आचरण करते प्रतीत होते हैं। वे प्रत्यंचा के टूटने की सीमा तक अपने क्रोध के बाण को पीछे खींचते हैं और फिर एक क्षण में वही बाण शिशुपाल की जीवन रेखा को दो टूक करता हुआ निकल जाता है। उधर कैकेयी और मंथरा के प्रति राम का व्यवहार बाँसुरी की मिठास से परिपूर्ण है। वे अपनी दसों उंगलियों से परिस्थिति को साधने का यत्न करते हैं और अंततः सम्बन्ध को सुरम्य बना लेते हैं। 
राम और कृष्ण के मध्य का यह विलोम अन्य भी अनेक विषयों में उजागर होता है। रामकथा आस्था के पोषण पर केंद्रित है। रामकथा में प्रतीक्षा के समापन स्वरूप रामकृपा प्राप्त होती है। अहल्या की प्रतीक्षा का समापन राम के स्पर्श से हुआ। शबरी की प्रतीक्षा का समापन राम के दर्श से हुआ। सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर मूक होकर प्रतीक्षा करते रहे और राम ने बाली का वध करके सुग्रीव की प्रतीक्षा का सुखद अंत कर दिया। रामकथा की सीता भी अशोक वाटिका में राम के प्रति आस्था के बल पर प्रतीक्षारत रही। और रामकथा के भरत भी चौदह वर्ष तक राम के लौटने की प्रतीक्षा करते रहे। प्रतीक्षा के लिए आस्था आवश्यक है। और आस्था भी पूरी तरह निशंक होनी चाहिए। जहाँ आस्था को संशय ने छुआ वहीं धैर्य डोल जाएगा। फिर एक क्षण भी प्रतीक्षा करना सम्भव नहीं होगा। संशय की एक बूंद आस्था के महासागर को सुखा देती है। इसलिए रामकथा की प्रत्येक प्रतीक्षा अद्वितीय है। 
लेकिन कृष्ण की कथा कर्म की महत्ता बताती है। इसलिए कृष्ण की कथा के जिस भी पात्र ने कृष्ण को पाया, उसे आस्था रखते हुए कर्मशील भी होना पड़ा। कृष्ण गोपियों तक चलकर नहीं जाते, वे तो वृंदावन में चैन की बंसी बजाते बैठते हैं; उनकी बंसी की तान पर गोपियों को वृंदावन तक जाना पड़ता है, तब रास घटित होता है। सुदामा की प्रतीक्षा, किसी साधना से कम नहीं थी। किन्तु कृष्ण को पाने के लिए उन्हें द्वारका के राजमहल तक जाने का उद्यम करना पड़ा।
कृष्ण चाहते तो अर्जुन की ओर से लड़ सकते थे किंतु वे युद्धक्षेत्र में होते हुए भी शस्त्र नहीं, लगाम थामते हैं। उनका सखा अर्जुन, कृष्ण के साथ होते हुए भी अपनी लड़ाई स्वयं लड़ता है। अपना कर्म स्वयं करता है। यह घटना इस बात की ओर इंगित है कि आस्था को कर्म का संबल मिले तो कृष्ण को पाया जा सकता है। 
ये दोनों सनातन चरित्र पहले हमें आस्थावान बनना सिखाते हैं। और जब आस्था पुष्ट हो जाए तब कर्मशील होने का प्रावधान है। आस्था के अभाव में किया गया कर्म ईश्वर का साहचर्य नहीं दिला सकता।
रामकथा और कृष्णकथा में ऐसे बहुत विलोम दिखाई देते हैं। राम मित्रता के निर्वहन हेतु वनवासी सुग्रीव को उसकी किष्किंधा जीतकर देते हैं। राम लंका जीतकर शरणागत विभीषण को सौंप देते हैं। किंतु कृष्ण, पाण्डवों को वनवासी होने से रोकने का कोई यत्न नहीं करते। वे उनके इंद्रप्रस्थ के लिए कोई कूटनीति नहीं रचते। अपितु एक ऐसे युद्ध की सर्जना करते हैं कि इंद्रप्रस्थ पर दृष्टि गड़ानेवाले दुर्योधन से उसका हस्तिनापुर भी छीन लिया जाए। और यह कार्य कृष्ण करते नहीं, करवाते हैं। 
इतनी विविधता के बाद भी एक बात दोनों ही चरित्रों से सीखने को मिलती है, और वो बात यह है कि यदि केवल चित्र देखकर किसी का आकलन किया जाए तो आप उसकी मूल प्रवृत्ति को नहीं समझ पाएंगे। 

✍️ चिराग़ जैन 

Saturday, January 20, 2024

शबरी

नित्य सजाती रही अंगना, प्रभु राम के दर्श की आस में शबरी
आस की ऐसी निशंक तपस्या से दर्ज हुई इतिहास में शबरी
सीता वियोग से व्याकुल थे, तब घुल गई राम की प्यास में शबरी
राम को भक्ति का स्वाद चखा गई बेर की जूठी मिठास में शबरी

-चिराग़ जैन

Friday, January 19, 2024

भूल

क्यों भला भाती नहीं शीतल नदी की धार
यूँ समझ लो आप अपनी प्यास को भूले हुए हो
ख़ुश हुए तो भूल बैठे दर्द का उपकार
रो पड़े तो प्राण के उल्लास को भूले हुए हो

आज से पीछा छुड़ाकर भागते हो
एक कोरे ख़्वाब के संग जागते हो
क्यों हज़ारों ख़्वाहिशों का ढो रहे हो भार
आप शायद वक़्त के इतिहास को भूले हुए हो

कब समय किसकी बना दे कौन सूरत
आँसुओं में भीग जाएँ, शुभ मुहूरत
कुंडली में दिख रहा आंगन खड़ा त्योहार
आप शायद राम के वनवास को भूले हुए हो

पाल भी बांधो, हवा भी है ज़रूरी
भीगकर ही नापती है नाव दूरी~
पार कर पाती नहीं नौका, कोई पतवार
तो यक़ीनन आप इक अरदास को भूले हुए हैं

 ~चिराग़ जैन

Tuesday, January 16, 2024

अहल्या

साँस न थी पर आस की डोर पे जीवित थी दुखियारी अहल्या
शाप के ताप को, स्वर्ग के पाप को झेल रही थी बेचारी अहल्या
देखने में बस पाहन थी, मन में धरती से थी भारी अहल्या
देखो शिला में भी प्राण बहे जब राम ने छूकर तारी अहल्या

-चिराग़ जैन

Thursday, January 4, 2024

अनाड़ी का आनंद

जिसे नाचना आता है वह अच्छा डांस करता है, लेकिन जिसे नाचना नहीं आता वह मज़ेदार डांस करता है। 

✍️ चिराग़ जैन