Sunday, March 31, 2024

ऊब का गीत

आस मंज़िल की किसी को भी नहीं है
आदमी को खींचती है राह उसकी
प्यार का मतलब नहीं है प्यार केवल
प्यार का आधार है परवाह उसकी

मेघ से ऊबे तो इक सूरज बुलाया
सूर्य दहका, देह ने बरसात कर दी
रात से उकता गए तो दिन उगाया
थक गए दिन से तो फिर से रात कर दी
जो हमारे पास है उससे दु:खी हैं
जो हमारा है नहीं है चाह उसकी
आस मंज़िल की किसी को भी नहीं है
आदमी को खींचती है राह उसकी

प्रेम से ऊबे घृणा का हाथ थामा
वैर नस-नस में भरा तो दिल निचोड़ा
भोग से ऊबे, तो ये संसार त्यागा
और फिर संन्यास में जंजाल जोड़ा
ऊब जाने से नहीं ऊबा कभी मन
ऊब जाने की नहीं है थाह उसकी
आस मंज़िल की किसी को भी नहीं है
आदमी को खींचती है राह उसकी

राह में ही भोग लो संबंध सारे
द्वार के उस पार उच्चाटन मिलेगा
प्रेम है जिससे उसे दुर्लभ बना लो
प्राप्ति के पश्चात भारी मन मिलेगा
कल्पना ने आज आलिंगन भरा है
सत्य में चुभने लगेंगी बाँह उसकी
आस मंज़िल की किसी को भी नहीं है
आदमी को खींचती है राह उसकी

~चिराग़ जैन 

Friday, March 22, 2024

सच बोलना पाप है

क्या कहा, तुम सच कहोगे 
और ज़िंदा भी रहोगे 
झूठ का चाबुक तुम्हारी खाल खींचेगा समझ लो 
और फिर सारा ज़माना आँख मीचेगा समझ लो 

ख़ुद नदी ने इस तरह के दाँव सारे रख दिए हैं 
नाव जैसे दिख रहे पत्थर किनारे रख दिए हैं 
पेड़, जिसकी छाँह के दम पर भिड़े हो धूप से तुम 
धूप ने उस पेड़ की जड़ में अंगारे रख दिए हैं
क्या कहा, सच का सहारा 
ये महज भ्रम है तुम्हारा 
हर सहारा फेर कर मुँह, होंठ भींचेगा समझ लो 
और फिर सारा ज़माना आँख मीचेगा समझ लो 

दिन दहाड़े हो नहीं सकता भला अंधेर कैसे
मौत पहले आ गई क्यों, न्याय में है देर कैसे 
जो सभी की थालियों से, ले गया रोटी उठाकर
सब उसी को दे रहे हैं तोहफ़ों के ढेर कैसे 
क्या कहा, दिल की सुनोगे
एक दिन तुम सिर धुनोगे
दिल उम्मीदों का ज़खीरा भी उलीचेगा समझ लो 
और फिर सारा ज़माना आँख मीचेगा समझ लो 

लूट के हर दृश्य में हम मूकदर्शक हो गए हैं 
झूठ की हर कामयाबी के प्रशंसक हो गए हैं 
कोई अत्याचार सुनकर दिल दहलता ही नहीं है 
आत्माएँ हैं दिवंगत, मन नपुंसक हो गए हैं 
क्या कहा विश्वास रखें 
आसमां से आस रखें 
आसमां ख़ुद तो न बंजर खेत सींचेगा समझ लो 
और फिर सारा ज़माना आँख मीचेगा समझ लो 

~चिराग़ जैन