पहली बार इस भाव को सीधे-सीधे अभिव्यक्त करती हुई एक फिल्म आई है। पहली बार किसी फिल्म ने नारी-समानता के तमाम उपक्रमों को पुरुष के ठीक बराबर लाकर खड़ा कर दिया है।
"कहाँ शुरू कहाँ ख़त्म" को आपने अगर एक लाइट कॉमेडी की तरह देखकर ख़त्म कर दिया तो समझ लीजियेगा कि आप गंगा किनारे से सूखे लौट रहे हैं। सामने खड़े पति को छोड़कर परमेश्वर से बतियाती स्त्री उस पुरुषप्रधान समाज पर सबसे तीखा कटाक्ष है, जिसे स्त्री की संवेदना सुनाई ही नहीं देती।
फिल्म का कहानीकार केवल मसाला परोसने के लिए कहानी को हरियाणा से निकालकर बरसाने की ओर नहीं ले गया है, वह एक ही समाज के दो अलग-अलग रंग दिखाकर स्त्री की सामाजिक स्थिति का अन्तर रेखांकित कर रहा है। एक ओर गोलियाँ बरसानेवालों के यहाँ घूंघट में छिपी स्त्री है और दूसरी ओर बरसानेवालों के यहाँ लाठी थामकर खड़ी गृहस्वामिनी है, जिसके आँगन में कोई बिना पैर धोए आ जाए तो वह कुपित हो जाती है। यह सशक्त स्त्री यह संदेश देना नहीं भूलती कि उसका साम्राज्य उसके आँगन तक है किन्तु जहाँ तक उसका साम्राज्य है, वहाँ तक उसका एकछत्र राज है। फिल्म में नायक का भाई, अध्यात्म को बाज़ार बनाकर बेचने की प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य कर रहा है।
नायिका का भाई एक दृश्य में नायक को पीटता है। उसका कष्ट यह नहीं है कि नायक ने किसी लड़की को शादी से भगाया है, उसका कष्ट यह है कि नायक ने 'उसकी बहन' को भगाया है। समष्टि से चलनेवाले समाज मे व्यष्टि की यह व्याप्ति समाज की सोच पर प्रश्नचिह्न जड़ रही है।
और पुरुष प्रधान समाज के गाल पर सबसे करारा तमाचा फिल्म का वह दृश्य है जिसमें ऑडी की ड्राइविंग सीट पर बैठी नायिका से नायक कहता है कि मैंने गुंडों की बहन को भगा लिया है अब वो लोग मुझे नहीं छोड़ेंगे। इस पर नायिका बताती है कि तूने मुझे नहीं भगाया, मैंने तुझे भगाया है। पुरुष के कर्ताभाव के अहंकार पर इससे गहरा घाव शायद ही पहले कभी हुआ हो।
बहरहाल, व्यंग्य को इतने सलीके से परोसने वाली फिल्म बहुत समय बाद देखने को मिली है। हास्य का हल्का सा स्पर्श व्यंग्य की धार को कुंद किए बिना ही फिल्म की रोचकता में वृद्धि कर रहा है।
और भी अनेक दृश्य कटाक्ष की छुरी पर रखे, संदेश के शहद का आभास कराते हैं, लेकिन मैंने सब कुछ यहाँ लिख दिया तो आपको फिल्म देखने में मज़ा नहीं आएगा।
सो, जाइए फिल्म देखिए और कमेन्ट कर के बताइये कि कटाक्ष की यह चुभन कैसी लगी।
✍️ चिराग़ जैन
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