सेना के शौर्य पर बने अन्य चलचित्रों की भाँति 'सेना- गार्जियन ऑफ द नेशन' में भी सैनिकों की चुनौतियों, सैन्य जीवन की कठिन परिस्थितियों तथा उनके परिवारों के भावनात्मक पक्ष को प्रकाशित करने का एक और प्रयास किया गया है।
कार्तिक शर्मा की मुख्य भूमिका में विक्रम चौहान और दीनदयाल शर्मा की भूमिका में यशपाल शर्मा ने सर्वाधिक प्रभावित किया। आतंकी हमज़ा का पात्र बहुत नया है, जो आतंकवादियों की परंपरागत मूढ़ छवि से कुछ हटकर एक शातिर आदमी की शक़्ल पेश करता है। राहुल तिवारी ने इस भूमिका का निर्वाह भी बेहतरीन किया है।
नायक की माँ के किरदार में नीलू डोगरा ने भी एक संभ्रांत और समझदार गृहिणी का सच्चा चित्र प्रस्तुत किया है। उनके चेहरे के हाव-भाव हमारे घरों की महिलाओं की तरह सादा और कभी-कभी कटाक्ष-स्मित से अलंकृत हैं।
मेरा हमेशा से मानना रहा है कि हक़ीक़त और बॉर्डर जैसी फ़िल्मों ने इस विषय को लगभग निचोड़ लिया है लेकिन फिर भी मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि 'सेना' का कहानीकार इस निचुड़े हुए नींबू में से रस की कुछ बूँदों को हासिल करने में कामयाब हुआ है।
एक पिता के वात्सल्य को संघर्ष के समय की स्थितियों से जोड़ने के लिए नायक के बचपन का फ्लैशबैक जिस खूबसूरती से पटकथा में बुना गया है वह भय की रोमांचक मनोदशा को यकायक भावुक कर देता है।
यह मेरा पक्षपात हो सकता है किन्तु एक कवि होने के नाते मुझे व्यक्तिगत रूप से रश्मिरथी और पुष्प की अभिलाषा का प्रयोग तो अच्छा लगा ही, साथ ही हिंदी साहित्य में पिता की भावनाओं के दृष्टिकोण से किसी उपन्यास की कमी का जिस सलीके से उल्लेख किया गया है, वह दिल को छू गया।
एक पिता के वात्सल्य की महीन आवाज़ को कहानी में बेहद शानदार और दमदार ढंग से मुखर किया है। पिता को कंधे पर बैठानेवाले दृश्य में तो आँखें खारी हो गयी थीं।
यद्यपि कहानी की मांग के बहाने से रक्तपात और हिंसा के दृश्यों को न्यायसंगत ठहराया जा सकता है लेकिन मेरा मानना है कि वैभत्स्य को मंच पर प्रतीकात्मक ही रखा जाए तो अधिक नयनप्रिय रहता है। हालाँकि मैं इस बात की प्रशंसा करूंगा कि नायक के भीतर घुमड़ते भावुक क्रोध को पर्दे पर उतारने के लिए जिस उत्तेजना से सैंकड़ों गोलियां एक आतंकवादी के जिस्म में उतारी गईं, वह वास्तव में कहानी की मांग थी। यह गोलियों से भूनने और जिस्म को छलनी करने जैसी मिसालों को मूर्त करने का उत्कृष्ट उदाहरण है।
हमज़ा के बदले हुए चेहरे को दिखाने के लिए उसका रक्तरंजित घिनौना चेहरा भी मुहावरे को चरितार्थ करता हुआ लाजवाब शॉट है।
सिरीज़ कहीं भी अनावश्यक विस्तार करती नहीं दिखती और न ही ओढ़ी हुई भावुकता से दूषित है। सैनिकों के जीवन पर आधारित दर्जनों फ़िल्मों के बावजूद यह सिरीज़ जनमानस को सैन्य भावनाओं के और निकट से दर्शन कराने में सफल कही जाएगी।
✍️ चिराग़ जैन