Wednesday, September 12, 2001

मानवता

अपने आप से दूर हो रहे लोग
इंसानियत से अधिक आवश्यक हो रहे भोग
अदालतों में टूटता भाई-बहन का प्यार
अस्सी साल की नारी का बलात्कार
पश्चिम की धुनों पर थिरकता यौवन
चुनाव-दर-चुनाव बढ़ता प्रलोभन
बेटियों को बेचकर ख़रीदा गया राशन
धर्ममंचों से पढ़ा जा रहा राजनैतिक भाषण
स्कूलों के सामने चाय बनाते बच्चे
धर्म के नाम पर उड़ते मानव के परखच्चे
केसर-क्यारी में पलते धतूरे के पेड़
मेमनों को खाती हुई मांसाहारी भेड़
मुस्कुराना भूल चुके आदमी के होंठ
हर आँख में तैरती निकृष्टता की खोट
राह चलती नारियों का तन घूरती आँखें
फ़ैशन की होड़ में उघड़ी हुई काँखें
हर मस्तिष्क में पनप रही भ्रष्टाचारी दानवता
सिद्ध करती है कि मर रही है मानवता

पर ध्यान रखो, मानवता मर रही है, मरी नहीं है
अभी इसने आख़िरी हिचकी भरी नहीं है
हम चाहें तो इसे मरने से बचा सकते हैं
इसकी डूबती हुई साँसों को वापिस ला सकते हैं
इस बुझते हुए दीये को फिर से जलाना होगा
फिर से परोपकार का एक बाग़ लगाना होगा
फिर से चरण-स्पर्श की परम्परा लानी होगी
हर बोली में मिठास की फ़सल उगानी होगी
फिर आदमी को देख आदमी खिलखिला उठेगा
अर गली में प्रेम का सिलसिला उठेगा
फिर से विद्यार्थी किताबों में झाँकेगा
फिर से यौवन विवेकानन्द के पीछे भागेगा
फिर से बेटा, बाप को ‘पिताजी’ कहेगा
फिर दो बेटों का बाप, वृद्धाश्रम में नहीं रहेगा
फिर से बच्चे, बड़ों का आदर करेंगे
जवान बेटे, बूढ़े बाप की आँखों से डरेंगे
फिर भाई के मरने पर भाई दिल से रोयेगा
फिर प्यार की घाटी में कोई नफ़रत न बोयेगा
फिर भाषणों में झूठ नहीं बोला जायेगा
नारी आश्रम के नाम पर वेश्यालय नहीं खोला जायेगा
फिर से नारी अंग ढँक कर चलेगी
फिर हर आँख में नारी के लिये इज़्ज़त पलेगी
फिर हर युगल को गंदी निगाहों से नहीं देखेंगे
फिर दिल के तालाब में सब प्यार के कंकर फेंकेंगे

जिस दिन मानव की मृत्यु से मानव के दिल पर चोट आयेगी
उस दिन मानवता की डूबती हुई साँस लौट आयेगी

✍️ चिराग़ जैन

Sunday, September 9, 2001

रिक्शावाला

डरी-सहमी पत्नी
और तीन बच्चों के साथ
किराए के मकान में
रहता है रिक्शावाला।

बच्चे
रोज़ शाम
खेलते हैं एक खेल
जिसमें सीटी नहीं बजाती है रेल
नहीं होती उसमें
पकड़म-पकड़ाई की भागदौड़
न किसी से आगे
निकलने की होड़
न ऊँच-नीच का भेद-भाव
और न ही
छुपम्-छुपाई का राज़
....उसमें होती है
”फतेहपुरी- एक सवारी“ की आवाज़।

छोटा-सा बच्चा
पुरानी पैंट के पौंचे ऊपर चढ़ा
रिक्शा का हैंडिल पकड़
ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाता है,
और छोटी बहन को
सवारी बना
पिछली सीट पर बैठाता है

...थोड़ी देर तक
उल्टे-सीधे पैडल मारने के बाद
अपने छोटे-काले हाथ
सवारी के आगे फैला देता है
नकली रिक्शावाला

पूर्व निर्धारित
कार्यक्रम के अनुसार
उतर जाती है सवारी
अपनी भूमिका के साथ में
और मुट्ठी में बँधा
पाँच रुपये का नकली नोट
(जो निकलता है
एक रुपए के सौंफ के पैकिट में)
थमा देती है
नकली रिक्शावाले के हाथ में।

तभी खेल में
प्रवेश करता है तीसरा बच्चा;
पकड़ रखी है जिसने
एक गन्दी-सूखी लकड़ी
ठीक उसी तरह
...ज्यों एक पुलिसवाला
डँडा पकड़ता है।

मारता है रिक्शा के टायर पर
फिर धमकाता है उसे
पुलिसवाले की तरह;
और छीन लेता है
नकली बोहनी के
नकली पैसे
नकली रिक्शावाले से
नकली पुलिसवाला बनकर
असली पुलिसवाले की तरह।

✍️ चिराग़ जैन

Saturday, June 2, 2001

अनकहा

हम क़लम थामकर सोचते रह गए
भाव आँसू बने, आँख से बह गए
इक ग़ज़ल काग़ज़ों पर उतर तो गई
दर्द दिल के मगर अनकहे रह गए

© चिराग़ जैन

Thursday, February 8, 2001

कवि

एक जन्म की साधना
या तपस्या कुछ रातों की
व्यक्ति को नहीं बनाती है कवि।

कविता के रूप में
शब्दों को संजाने के लिये
करनी पड़ती है तपस्या जन्मों तक
तब कहीं जाकर
कठिनाई से जन्मता है कवित्व।

जानते हो?
कवि के सामने रखी दवात में
नहीं होती है स्याही
ख़ून होता है।

वही ख़ून
जो जलता है स्वयं
कविता के सृजनार्थ
स्वैच्छिक।

और जब कवि
उस दवात में
चिंतन की क़लम डुबोकर
अभिव्यक्तियों का शब्दचित्र उतारता है ना
काग़ज़ पर
तब उसे मिलती है
‘संतुष्टि’!
जिसे पाकर
वह स्वामी बन जाता है
बैकुण्ठ का!

✍️ चिराग़ जैन

Monday, January 8, 2001

क्या हम हिन्दुस्तानी हैं?

क्या आपने
हिन्दुस्तान को देखा है
ग़रीबी से सिसकती जान
और भूख से निकलते प्राण को देखा है?

...ज़रूर देखा होगा
बरसात में फुटपाथ पर भीगता हुआ हिन्दुस्तान
जिसे पास भीगने को सिर है
पर छिपने को घर नहीं है।
जिसने अपने चीथड़ों के
एक-एक रेशे को
उधड़ते हुए देखा है।
क्या आपने हिन्दुस्तान को देखा है?

...देखा होगा!
वह हिन्दुस्तान
जो बनकर एक युवक
परेशान;
भटक रहा है दफ़्तर-दर-दफ़्तर
नौकरी की तलाश में
जिसके एक हाथ में
फाइल है डिग्रियों की
और दूसरे हाथ में
दिए गए साक्षात्कारों का लेखा है।
क्या आपने हिन्दुस्तान को देखा है?

...देखा होगा!
रेल-लाइन के दोनों ओर
दूर तक फैले हुए खेत
गरम हवाओं के साथ उड़ती हुई रेत
गरमी में आग की बरसात
और खेत में फावड़ा चलाते हुए
दो नन्हें-नन्हें
प्यारे-प्यारे
छोटे-छोटे हाथ।
जो ऊपर से काले पड़ गए हैं।
जिनमें फावड़ा उठाने के कारण
बड़े-बड़े छाले पड़ गए हैं।
जिन्हें विद्या से कोई सरोकार नहीं
जिन्हें किताबों से कोई प्यार नहीं
जिन्हें किताबें पढ़ना आता नहीं
जिन्हें डाँटकर, मारकर, फटकार कर
या प्यार कर
कोई पढ़ाता नहीं।
जो आपके पड़ोस में
चाय की दुकान पर कप-प्लेट धोते हैं
जो गाँव से आई
माँ-बाबा की पाती को देखकर
अपनी निरक्षरता पर फूट-फूटकर रोते हैं।
जिनके हाथों में मात्र
ग़रीबी, मजदूरी, अत्याचार
और चायवाले की मार की रेखा है।
क्या आपने हिन्दुस्तान को देखा है?

...ज़रूर देखा होगा!
लालकिले की प्राचीर के आसपास
भागीरथी के तीर के आसपास
कलकत्ते के गलियारों में
नैनीताल की बहारों में
बाड़मेर की जलन में
सियाचीन की गलन में
अयोध्या के विवाद में
गुजरात-अहमदाबाद में
साम्प्रदायिक दंगों में
भाई-भाई की जंगों में
लोकसभा के दंगल में
वीरप्पन के जंगल में
इक मजबूर भिखारी को
बलात्कार की मारी को
घर से निकले बाप को
नित-नित बढ़ते पाप को
राम रूप में रावण को
घर-घर में दुःशासन को
मरते हुए ज़मीर को
पिटते हुए फकीर को
रोते हुए ईमान को
लुटते हिन्दुस्तान को
रोज़ आपने देखा है
पर ये सोचा नहीं कभी
रक्त हमारा पानी है
क्या हम हिन्दुस्तानी हैं?

✍️ चिराग़ जैन