डरी-सहमी पत्नी
और तीन बच्चों के साथ
किराए के मकान में
रहता है रिक्शावाला।
बच्चे
रोज़ शाम
खेलते हैं एक खेल
जिसमें सीटी नहीं बजाती है रेल
नहीं होती उसमें
पकड़म-पकड़ाई की भागदौड़
न किसी से आगे
निकलने की होड़
न ऊँच-नीच का भेद-भाव
और न ही
छुपम्-छुपाई का राज़
....उसमें होती है
”फतेहपुरी- एक सवारी“ की आवाज़।
छोटा-सा बच्चा
पुरानी पैंट के पौंचे ऊपर चढ़ा
रिक्शा का हैंडिल पकड़
ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाता है,
और छोटी बहन को
सवारी बना
पिछली सीट पर बैठाता है
...थोड़ी देर तक
उल्टे-सीधे पैडल मारने के बाद
अपने छोटे-काले हाथ
सवारी के आगे फैला देता है
नकली रिक्शावाला
पूर्व निर्धारित
कार्यक्रम के अनुसार
उतर जाती है सवारी
अपनी भूमिका के साथ में
और मुट्ठी में बँधा
पाँच रुपये का नकली नोट
(जो निकलता है
एक रुपए के सौंफ के पैकिट में)
थमा देती है
नकली रिक्शावाले के हाथ में।
तभी खेल में
प्रवेश करता है तीसरा बच्चा;
पकड़ रखी है जिसने
एक गन्दी-सूखी लकड़ी
ठीक उसी तरह
...ज्यों एक पुलिसवाला
डँडा पकड़ता है।
मारता है रिक्शा के टायर पर
फिर धमकाता है उसे
पुलिसवाले की तरह;
और छीन लेता है
नकली बोहनी के
नकली पैसे
नकली रिक्शावाले से
नकली पुलिसवाला बनकर
असली पुलिसवाले की तरह।
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Sunday, September 9, 2001
Saturday, June 2, 2001
अनकहा
हम क़लम थाम कर सोचते रह गए
भाव आँसू बने, आँख से बह गए
इक ग़ज़ल काग़ज़ों पर उतर तो गई
दर्द दिल के मगर अनकहे रह गए
© चिराग़ जैन
भाव आँसू बने, आँख से बह गए
इक ग़ज़ल काग़ज़ों पर उतर तो गई
दर्द दिल के मगर अनकहे रह गए
© चिराग़ जैन
Monday, January 8, 2001
क्या हम हिन्दुस्तानी हैं?
क्या आपने
हिन्दुस्तान को देखा है
ग़रीबी से सिसकती जान
और भूख से निकलते प्राण को देखा है?
...ज़रूर देखा होगा
बरसात में फुटपाथ पर भीगता हुआ हिन्दुस्तान
जिसे पास भीगने को सिर है
पर छिपने को घर नहीं है।
जिसने अपने चीथड़ों के
एक-एक रेशे को
उधड़ते हुए देखा है।
क्या आपने हिन्दुस्तान को देखा है?
...देखा होगा!
वह हिन्दुस्तान
जो बनकर एक युवक
परेशान;
भटक रहा है दफ़्तर-दर-दफ़्तर
नौकरी की तलाश में
जिसके एक हाथ में
फाइल है डिग्रियों की
और दूसरे हाथ में
दिए गए साक्षात्कारों का लेखा है।
क्या आपने हिन्दुस्तान को देखा है?
...देखा होगा!
रेल-लाइन के दोनों ओर
दूर तक फैले हुए खेत
गरम हवाओं के साथ उड़ती हुई रेत
गरमी में आग की बरसात
और खेत में फावड़ा चलाते हुए
दो नन्हें-नन्हें
प्यारे-प्यारे
छोटे-छोटे हाथ।
जो ऊपर से काले पड़ गए हैं।
जिनमें फावड़ा उठाने के कारण
बड़े-बड़े छाले पड़ गए हैं।
जिन्हें विद्या से कोई सरोकार नहीं
जिन्हें किताबों से कोई प्यार नहीं
जिन्हें किताबें पढ़ना आता नहीं
जिन्हें डाँटकर, मारकर, फटकार कर
या प्यार कर
कोई पढ़ाता नहीं।
जो आपके पड़ोस में
चाय की दुकान पर कप-प्लेट धोते हैं
जो गाँव से आई
माँ-बाबा की पाती को देखकर
अपनी निरक्षरता पर फूट-फूटकर रोते हैं।
जिनके हाथों में मात्र
ग़रीबी, मजदूरी, अत्याचार
और चायवाले की मार की रेखा है।
क्या आपने हिन्दुस्तान को देखा है?
...ज़रूर देखा होगा!
लालकिले की प्राचीर के आसपास
भागीरथी के तीर के आसपास
कलकत्ते के गलियारों में
नैनीताल की बहारों में
बाड़मेर की जलन में
सियाचीन की गलन में
अयोध्या के विवाद में
गुजरात-अहमदाबाद में
साम्प्रदायिक दंगों में
भाई-भाई की जंगों में
लोकसभा के दंगल में
वीरप्पन के जंगल में
इक मजबूर भिखारी को
बलात्कार की मारी को
घर से निकले बाप को
नित-नित बढ़ते पाप को
राम रूप में रावण को
घर-घर में दुःशासन को
मरते हुए ज़मीर को
पिटते हुए फकीर को
रोते हुए ईमान को
लुटते हिन्दुस्तान को
रोज़ आपने देखा है
पर ये सोचा नहीं कभी
रक्त हमारा पानी है
क्या हम हिन्दुस्तानी हैं?
-चिराग़ जैन
हिन्दुस्तान को देखा है
ग़रीबी से सिसकती जान
और भूख से निकलते प्राण को देखा है?
...ज़रूर देखा होगा
बरसात में फुटपाथ पर भीगता हुआ हिन्दुस्तान
जिसे पास भीगने को सिर है
पर छिपने को घर नहीं है।
जिसने अपने चीथड़ों के
एक-एक रेशे को
उधड़ते हुए देखा है।
क्या आपने हिन्दुस्तान को देखा है?
...देखा होगा!
वह हिन्दुस्तान
जो बनकर एक युवक
परेशान;
भटक रहा है दफ़्तर-दर-दफ़्तर
नौकरी की तलाश में
जिसके एक हाथ में
फाइल है डिग्रियों की
और दूसरे हाथ में
दिए गए साक्षात्कारों का लेखा है।
क्या आपने हिन्दुस्तान को देखा है?
...देखा होगा!
रेल-लाइन के दोनों ओर
दूर तक फैले हुए खेत
गरम हवाओं के साथ उड़ती हुई रेत
गरमी में आग की बरसात
और खेत में फावड़ा चलाते हुए
दो नन्हें-नन्हें
प्यारे-प्यारे
छोटे-छोटे हाथ।
जो ऊपर से काले पड़ गए हैं।
जिनमें फावड़ा उठाने के कारण
बड़े-बड़े छाले पड़ गए हैं।
जिन्हें विद्या से कोई सरोकार नहीं
जिन्हें किताबों से कोई प्यार नहीं
जिन्हें किताबें पढ़ना आता नहीं
जिन्हें डाँटकर, मारकर, फटकार कर
या प्यार कर
कोई पढ़ाता नहीं।
जो आपके पड़ोस में
चाय की दुकान पर कप-प्लेट धोते हैं
जो गाँव से आई
माँ-बाबा की पाती को देखकर
अपनी निरक्षरता पर फूट-फूटकर रोते हैं।
जिनके हाथों में मात्र
ग़रीबी, मजदूरी, अत्याचार
और चायवाले की मार की रेखा है।
क्या आपने हिन्दुस्तान को देखा है?
...ज़रूर देखा होगा!
लालकिले की प्राचीर के आसपास
भागीरथी के तीर के आसपास
कलकत्ते के गलियारों में
नैनीताल की बहारों में
बाड़मेर की जलन में
सियाचीन की गलन में
अयोध्या के विवाद में
गुजरात-अहमदाबाद में
साम्प्रदायिक दंगों में
भाई-भाई की जंगों में
लोकसभा के दंगल में
वीरप्पन के जंगल में
इक मजबूर भिखारी को
बलात्कार की मारी को
घर से निकले बाप को
नित-नित बढ़ते पाप को
राम रूप में रावण को
घर-घर में दुःशासन को
मरते हुए ज़मीर को
पिटते हुए फकीर को
रोते हुए ईमान को
लुटते हिन्दुस्तान को
रोज़ आपने देखा है
पर ये सोचा नहीं कभी
रक्त हमारा पानी है
क्या हम हिन्दुस्तानी हैं?
-चिराग़ जैन
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