Saturday, August 3, 2002

दुःख

वाह के मज़मों में
अक्सर मौज़ूद होती है आह भी।
जैसे बहुत कुछ पा लेने पर भी
नहीं मिट पाती है कसक
कुछ खो जाने की।

दुःख जन्मता है
ख़ुशियों की कुक्षि से
कदाचित् यही सिद्ध करने के लिये
जलती हैं खलिहानों में रखी फ़सलें
फटते हैं धरती पर उतरते अंतरिक्ष-यान
मरते हैं जवान बेटे
फुँकते हैं बसे हुए घर
और छीन ली जाती है
घास की रोटी भी
भूखे बच्चों की उंगलियों से।

दुःख फैला है
धरती के कण-कण में
अविनाशी-सा
विराट, अरूपी, अमूर्त, अनवरत
अंधियारे-सा
सूनसान सन्नाटे की तरह
क्षितिज के छोर तक
सागर के तल पर झिलमिलाती
सूरज की किरण के समान
विशाल, अखण्ड और अनुपयोगी भी।

दुःख महसूस होता है
हृदय को प्रताड़ित करता 
एक अनजाना-अनकहा एहसास
जो उभर आता है
अक़्सर सुख के बीच
सुन्दर कन्या के गाल पर
मुँहासे की तरह।

दुःख अमर्यादित है
शायद इसीलिये नहीं बंध पाता
शब्दों की मर्यादा में
क्योंकि दुःख है
सिर्फ़ एक एहसास
जिसे नकारना असम्भव है
...सुख की तरह

✍️ चिराग़ जैन

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