अन्तस् की पावन भोगभूमि
और मानस की पवित्र भावभूमि पर बसी
अधरों की सौम्यता।
लोचनयुगल में अनवरत प्रवाहमान
विश्वास की पारदर्शी भागीरथी
अनायास ही छलक पड़ती है
सागरमुक्ता-सी
दन्तपंक्ति के पार्श्व से प्रस्फुटित
निश्छल खिलखिलाहट के साथ।
और इस पल को
शब्दों में बांधने के
निरर्थक प्रयास करके
कसमसाकर रह जाता है शब्दकोश।
अप्रासंगिक लगने लगती हैं
सृष्टि की समस्त लौकिक-पारलौकिक उपमाएँ
क्योंकि
बहुत अन्तर होता है
उपमान और उपमेय में!
✍️ चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Monday, December 30, 2002
Saturday, December 28, 2002
ज़ख़्म कौन धोएगा
भारती आज तेरे ज़ख़्म कौन धोएगा
तेरे बँटते हुए आँचल में कौन सोएगा
बम्बई ने जो धमाकों के ज़ख़्म खाए हैं
भूखे बच्चे जो गोधरा में बिलबिलाए हैं
मंदिरों में भी धमाकों की गूंज उठती हैं
आज हिन्दोस्तां में अरथियाँ भी लुटती हैं
किसी मासूम की जब आह सुनी जाती है
तो ख़यालों में यही बात सरसराती है
भारती आज तेरे ज़ख़्म कौन धोएगा
जब दरिंदों ने अयोध्या में ज़्ाुल्म ढाया था
जहाँ लाशों का समन्दर-सा लहलहाया था
काश इन्सान को इन्सान दिखाई देते
न तो हिन्दू न मुसलमान दिखाई देते
काश हिन्दोस्तां एक प्यार का क़स्बा होता
सबकी आँखों में एतबार का जज़्बा होता
भारती आज तेरे ज़ख़्म कौन धोएगा
जिसने इस देश की ख़ातिर लहू बहाया था
जिसकी ललकार से अंग्रेज कँपकँपाया था
जिनको दुश्मन ने कोल्हुओं के साथ पेला था
जिनकी पीठों ने चाबुकों का दर्द झेला था
उन शहीदों के भी अरमान पूछते होंगे
आज अल्लाह और राम पूछते होंगे
भारती आज तेरे ज़ख़्म कौन धोएगा
आज मरहम की ज़रूरत है तो मरहम बाँटें
क्या ज़रूरी है कि ख़ुशियों की जगह ग़म बाँटें
आओ हम इतने क़रीब आएँ कि दूरी न रहे
आओ ऐसे जिएँ कि मरना ज़रूरी न रहे
आओ इतने दिए जलाएँ कि ना रात आएँ
किसी के जे़ह्न में फिर ये न ख़यालात आएँ
भारती आज तेरे ज़ख़्म कौन धोएगा
तेरे बँटते हुए आँचल में कौन सोएगा
✍️ चिराग़ जैन
तेरे बँटते हुए आँचल में कौन सोएगा
बम्बई ने जो धमाकों के ज़ख़्म खाए हैं
भूखे बच्चे जो गोधरा में बिलबिलाए हैं
मंदिरों में भी धमाकों की गूंज उठती हैं
आज हिन्दोस्तां में अरथियाँ भी लुटती हैं
किसी मासूम की जब आह सुनी जाती है
तो ख़यालों में यही बात सरसराती है
भारती आज तेरे ज़ख़्म कौन धोएगा
जब दरिंदों ने अयोध्या में ज़्ाुल्म ढाया था
जहाँ लाशों का समन्दर-सा लहलहाया था
काश इन्सान को इन्सान दिखाई देते
न तो हिन्दू न मुसलमान दिखाई देते
काश हिन्दोस्तां एक प्यार का क़स्बा होता
सबकी आँखों में एतबार का जज़्बा होता
भारती आज तेरे ज़ख़्म कौन धोएगा
जिसने इस देश की ख़ातिर लहू बहाया था
जिसकी ललकार से अंग्रेज कँपकँपाया था
जिनको दुश्मन ने कोल्हुओं के साथ पेला था
जिनकी पीठों ने चाबुकों का दर्द झेला था
उन शहीदों के भी अरमान पूछते होंगे
आज अल्लाह और राम पूछते होंगे
भारती आज तेरे ज़ख़्म कौन धोएगा
आज मरहम की ज़रूरत है तो मरहम बाँटें
क्या ज़रूरी है कि ख़ुशियों की जगह ग़म बाँटें
आओ हम इतने क़रीब आएँ कि दूरी न रहे
आओ ऐसे जिएँ कि मरना ज़रूरी न रहे
आओ इतने दिए जलाएँ कि ना रात आएँ
किसी के जे़ह्न में फिर ये न ख़यालात आएँ
भारती आज तेरे ज़ख़्म कौन धोएगा
तेरे बँटते हुए आँचल में कौन सोएगा
✍️ चिराग़ जैन
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Tuesday, December 3, 2002
अहसास
मेरे गीतों में मेरे प्रेम का विश्वास बिखरा है
कहीं पतझर ख़नकता है कहीं मधुमास बिखरा है
मेरी बातें दिलों को इसलिए छूकर गुज़रती हैं
कि इन बातों में कोई अनछुआ अहसास बिखरा है
✍️ चिराग़ जैन
कहीं पतझर ख़नकता है कहीं मधुमास बिखरा है
मेरी बातें दिलों को इसलिए छूकर गुज़रती हैं
कि इन बातों में कोई अनछुआ अहसास बिखरा है
✍️ चिराग़ जैन
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