अन्तस् की पावन भोगभूमि
और मानस की पवित्र भावभूमि पर बसी
अधरों की सौम्यता।
लोचनयुगल में अनवरत प्रवाहमान
विश्वास की पारदर्शी भागीरथी
अनायास ही छलक पड़ती है
सागरमुक्ता-सी
दन्तपंक्ति के पार्श्व से प्रस्फुटित
निश्छल खिलखिलाहट के साथ।
और इस पल को
शब्दों में बांधने के
निरर्थक प्रयास करके
कसमसाकर रह जाता है शब्दकोश।
अप्रासंगिक लगने लगती हैं
सृष्टि की समस्त लौकिक-पारलौकिक उपमाएँ
क्योंकि
बहुत अन्तर होता है
उपमान और उपमेय में!
✍️ चिराग़ जैन
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