Friday, November 21, 2003

हादसा थी ज़िन्दगी

हादसा थी ज़िन्दगी, होता रहा जो उम्र भर
दौलते-लमहात थी, खोता रहा जो उम्र भर

कौन समझे उसके अश्क़ों की ढलकती दास्तां
बस दरख़तों से लिपट, रोता रहा जो उम्र भर

अब तो कलियों से भी उसकी पीठ क़तराने लगी
पत्थरों को गुल समझ ढोता रहा जो उम्र भर

इक न इक दिन उसका घर अश्क़ों में डूबेगा ज़रूर
सबके आंगन में हँसी बोता रहा जो उम्र भर

मौत को देखा तो वो भी कसमसा कर रो दिया
ज़िन्दगी को बोझ-सा ढोता रहा जो उम्र भर

मौत ने आकर जगाया तो सुबककर रो पड़ा
ऑंख में सपने लिए सोता रहा जो उम्र भर

मौत जब आई तो मौक़ा देखते ही बेहिचक
उड़ गया पिंजरे में इक तोता रहा जो उम्र भर

© चिराग़ जैन

Wednesday, November 12, 2003

गीत गढ़ने का हुनर

मसख़रों की मसख़री अपनी जगह
शायरों की शायरी अपनी जगह
गीत गढ़ने का हुनर कुछ और है
मंच की बाज़ीगरी अपनी जगह

© चिराग़ जैन

Monday, November 3, 2003

अंदाज़ा न कर

पीर की ज़द का अंदाज़ा न कर
कल की आफ़त का अंदाज़ा न कर

ज़ख़्म गहरा है दर्द होगा ही
अब रियायत का अंदाज़ा न कर

वक़्त पर ख़ुद-ब-ख़ुद पनपती है
यूँ ही हिम्मत का अंदाज़ा न कर

बीज में पेड़ छिपा होता है
क़द से ताक़त का अंदाज़ा न कर

सिर्फ़ दो दिन की मुलाक़ातों से
उनकी आदत का अंदाज़ा न कर

हँस के मिलना तो उसकी आदत है
इससे उल्फ़त का अंदाज़ा न कर

इसमें मुमक़िन है हर कोई मंज़र
इस सियासत का अंदाज़ा न कर

सिर्फ़ जामे को देखकर उसकी
बादशाहत का अंदाज़ा न कर

चाहता हूँ तुझे मीरा होकर
तू इबादत का अंदाज़ा न कर

जिसने मांगा न हो कभी कुछ भी
उसकी चाहत का अंदाज़ा न कर

© चिराग़ जैन