हादसा थी ज़िन्दगी, होता रहा जो उम्र भर
दौलते-लमहात थी, खोता रहा जो उम्र भर
कौन समझे उसके अश्क़ों की ढलकती दास्तां
बस दरख़तों से लिपट, रोता रहा जो उम्र भर
अब तो कलियों से भी उसकी पीठ क़तराने लगी
पत्थरों को गुल समझ ढोता रहा जो उम्र भर
इक न इक दिन उसका घर अश्क़ों में डूबेगा ज़रूर
सबके आंगन में हँसी बोता रहा जो उम्र भर
मौत को देखा तो वो भी कसमसा कर रो दिया
ज़िन्दगी को बोझ-सा ढोता रहा जो उम्र भर
मौत ने आकर जगाया तो सुबककर रो पड़ा
ऑंख में सपने लिए सोता रहा जो उम्र भर
मौत जब आई तो मौक़ा देखते ही बेहिचक
उड़ गया पिंजरे में इक तोता रहा जो उम्र भर
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Friday, November 21, 2003
Wednesday, November 12, 2003
गीत गढ़ने का हुनर
मसख़रों की मसख़री अपनी जगह
शायरों की शायरी अपनी जगह
गीत गढ़ने का हुनर कुछ और है
मंच की बाज़ीगरी अपनी जगह
© चिराग़ जैन
शायरों की शायरी अपनी जगह
गीत गढ़ने का हुनर कुछ और है
मंच की बाज़ीगरी अपनी जगह
© चिराग़ जैन
Monday, November 3, 2003
अंदाज़ा न कर
पीर की ज़द का अंदाज़ा न कर
कल की आफ़त का अंदाज़ा न कर
ज़ख़्म गहरा है दर्द होगा ही
अब रियायत का अंदाज़ा न कर
वक़्त पर ख़ुद-ब-ख़ुद पनपती है
यूँ ही हिम्मत का अंदाज़ा न कर
बीज में पेड़ छिपा होता है
क़द से ताक़त का अंदाज़ा न कर
सिर्फ़ दो दिन की मुलाक़ातों से
उनकी आदत का अंदाज़ा न कर
हँस के मिलना तो उसकी आदत है
इससे उल्फ़त का अंदाज़ा न कर
इसमें मुमक़िन है हर कोई मंज़र
इस सियासत का अंदाज़ा न कर
सिर्फ़ जामे को देखकर उसकी
बादशाहत का अंदाज़ा न कर
चाहता हूँ तुझे मीरा होकर
तू इबादत का अंदाज़ा न कर
जिसने मांगा न हो कभी कुछ भी
उसकी चाहत का अंदाज़ा न कर
कल की आफ़त का अंदाज़ा न कर
ज़ख़्म गहरा है दर्द होगा ही
अब रियायत का अंदाज़ा न कर
वक़्त पर ख़ुद-ब-ख़ुद पनपती है
यूँ ही हिम्मत का अंदाज़ा न कर
बीज में पेड़ छिपा होता है
क़द से ताक़त का अंदाज़ा न कर
सिर्फ़ दो दिन की मुलाक़ातों से
उनकी आदत का अंदाज़ा न कर
हँस के मिलना तो उसकी आदत है
इससे उल्फ़त का अंदाज़ा न कर
इसमें मुमक़िन है हर कोई मंज़र
इस सियासत का अंदाज़ा न कर
सिर्फ़ जामे को देखकर उसकी
बादशाहत का अंदाज़ा न कर
चाहता हूँ तुझे मीरा होकर
तू इबादत का अंदाज़ा न कर
जिसने मांगा न हो कभी कुछ भी
उसकी चाहत का अंदाज़ा न कर
© चिराग़ जैन
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