Monday, November 3, 2003

अंदाज़ा न कर

पीर की ज़द का अंदाज़ा न कर
कल की आफ़त का अंदाज़ा न कर

ज़ख़्म गहरा है दर्द होगा ही
अब रियायत का अंदाज़ा न कर

वक़्त पर ख़ुद-ब-ख़ुद पनपती है
यूँ ही हिम्मत का अंदाज़ा न कर

बीज में पेड़ छिपा होता है
क़द से ताक़त का अंदाज़ा न कर

सिर्फ़ दो दिन की मुलाक़ातों से
उनकी आदत का अंदाज़ा न कर

हँस के मिलना तो उसकी आदत है
इससे उल्फ़त का अंदाज़ा न कर

इसमें मुमक़िन है हर कोई मंज़र
इस सियासत का अंदाज़ा न कर

सिर्फ़ जामे को देखकर उसकी
बादशाहत का अंदाज़ा न कर

चाहता हूँ तुझे मीरा होकर
तू इबादत का अंदाज़ा न कर

जिसने मांगा न हो कभी कुछ भी
उसकी चाहत का अंदाज़ा न कर

© चिराग़ जैन

No comments:

Post a Comment