लड़खड़ाकर गिरे नहीं होते
गर तेरे आसरे नहीं होते
कमनसीबी का दौर है वरना
हम भी इतने बुरे नहीं होते
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Tuesday, March 22, 2005
Saturday, March 19, 2005
दर्द की दास्तान
दर्द की दास्तान सुन लेना
ख़ुद-ब-ख़ुद साहिबान सुन लेना
होंठ मेरे न कुछ कहेंगे मगर
आँसुओं का बयान सुन लेना
© चिराग़ जैन
ख़ुद-ब-ख़ुद साहिबान सुन लेना
होंठ मेरे न कुछ कहेंगे मगर
आँसुओं का बयान सुन लेना
© चिराग़ जैन
Friday, March 11, 2005
अहसास
तुम छोड़ जाओगे- ये अहसास खल रहा है
सीने में दर्द का इक लावा पिघल रहा है
कुछ इस तरह से हर इक लम्हा निकल रहा है
हाथों से जैसे कोई रेशम फिसल रहा है
सीने में दर्द का इक लावा पिघल रहा है
कुछ इस तरह से हर इक लम्हा निकल रहा है
हाथों से जैसे कोई रेशम फिसल रहा है
© चिराग़ जैन
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Thursday, March 3, 2005
परिवर्तन
जब से हम करने लगे बात-बात में जंग
तब से फीके पड़ गए त्यौहारों के रंग
धुआँ-धुआँ सा रह गया दीपों का त्यौहार
शोर-शराबा बन गया होली का हुड़दंग
© चिराग़ जैन
तब से फीके पड़ गए त्यौहारों के रंग
धुआँ-धुआँ सा रह गया दीपों का त्यौहार
शोर-शराबा बन गया होली का हुड़दंग
© चिराग़ जैन
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