Monday, April 18, 2005

चांद का किरदार

एक पल सूरज छिपा और फिर उजाला हो गया
लेकिन इसमें चांद का किरदार काला हो गया
साज़िशें सूरज निगलने की रची थीं चांद ने
पर वो अपनी साज़िशों का ख़ुद निवाला हो गया

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 12, 2005

वो शालीन पल

हाँ, गुज़ारे थे कभी दो-तीन पल
कुछ हसीं, कुछ शोख़, कुछ रंगीन पल

हर तरह की वासना से हीन पल
अब कहाँ मिलते हैं वो शालीन पल

भोग, लिप्सा, मोह के संगीन पल
कब किसे दे पाए हैं तस्कीन पल

आपका आना, ठहरना, लौटना
इक मुक़म्मल हादसा थे तीन पल

साथ हो तुम तो मुझे लगता है ज्यों
हो गए हैं सब मिरे आधीन पल

कँपकँपाते होंठ, ऑंखों में हया
किस तरह भूलेंगे ये रंगीन पल

दिल में रोशन रख उमीदों के ‘चिराग़’
छू न पाएंगे तुझे ग़मगीन पल

© चिराग़ जैन

Sunday, April 3, 2005

सितारों की तरह

हो गई है ज़िन्दगी अपनी सितारों की तरह
देखते हैं लोग भी अब तो नज़ारों की तरह

जो चले थे काम करने कामगारों की तरह
वो उनींदे से खड़े हैं अब कतारों की तरह

सब शिकारी की तरह घर से निकलते हैं मगर
सब फँसे मिलते शिकंजे में शिकारों की तरह

आपके हालात की बेइंतहा मज़बूरियाँ
और मेरे दहकते अरमां अंगारों की तरह

हर ग़ज़ल मानी बदल लेती है मौक़ा देखकर
शेर हैं सब बेवफ़ाओं के इशारों की तरह 

© चिराग़ जैन