Tuesday, April 12, 2005

वो शालीन पल

हाँ, गुज़ारे थे कभी दो-तीन पल
कुछ हसीं, कुछ शोख़, कुछ रंगीन पल

हर तरह की वासना से हीन पल
अब कहाँ मिलते हैं वो शालीन पल

भोग, लिप्सा, मोह के संगीन पल
कब किसे दे पाए हैं तस्कीन पल

आपका आना, ठहरना, लौटना
इक मुक़म्मल हादसा थे तीन पल

साथ हो तुम तो मुझे लगता है ज्यों
हो गए हैं सब मिरे आधीन पल

कँपकँपाते होंठ, ऑंखों में हया
किस तरह भूलेंगे ये रंगीन पल

दिल में रोशन रख उमीदों के ‘चिराग़’
छू न पाएंगे तुझे ग़मगीन पल

© चिराग़ जैन

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