Monday, June 18, 2007

रोटी

पेट को जब भूख लगती है
तो अक्सर पाँव सबके
घर से बाहर आ निकलते हैं
भूख के कारण सभी
प्राणी, परिन्दे, जानवर
सब कीट और इन्सान तक
संघर्ष करते हैं

तितलियाँ लड़ती हैं अक्सर आंधियों से
चींटियाँ चलतीं कतारों में
निकलकर बांबियों से
साँप, बिल को छोड़कर फुफकारते हैं
शेर, तजकर मांद को
भीषण दहाड़ें मारते हैं

भेड़िये, चीते, बघेरे
मृग, मगर और मीन
सब भोजन कमाने को
घरों का त्याग करते हैं
परिन्दे, दानों की ख़ातिर
खोलते हैं पर
फुदककर नीड़ से बाहर निकलते हैं

और इन सबकी तरह
इंसान भी
दो वक़्त की रोटी कमाना चाहता है

हाँ,
कमाने के तरीक़े भी
सभी के एक से हैं।
छीनना, लड़ना, झपटना, मांगना
या सोखना और चाटना
जूठन उठाना
या किसी की हसरतों का क़त्ल करके
पेट की ज्वाला बुझाना

फ़र्क़ है तो सिर्फ़ इतना
और सब
सुब्ह निकलकर
शाम तक घर लौट आते हैं
फिर से सूनी बांबियों में
घोसलों में
प्यार की दुनिया बसाते हैं

आदमी, पर इक दफ़ा
जब रोटियाँ लाने निकलता है
तो फिर घर लौट कर
वापिस नहीं आता!

© चिराग़ जैन

Saturday, June 9, 2007

सच के नाम पे

कोई महज ईमान का जज्बा लिए जिया
कोई फ़रेब-ओ-झूठ का मलबा लिए जिया

टूटन, घुटन, ग़ुबार, अदावत, सफ़ाइयाँ
इक शख्स सच के नाम पे क्या-क्या लिए जिया

जब तक मुझे ग़ुनाह का मौक़ा न था नसीब
तब तक मैं बेग़ुनाही का दावा लिए जिया

था बेलिबास अपनी नज़र में हर एक शख्स
दुनिया के दिखावे को लबादा लिए जिया

रोशन रहे चराग़ उसी की मज़ार पर
ताज़िन्दगी जो दिल में उजाला लिए जिया

इक वो है जिसे दौलते-शोहरत मिली सदा
इक मैं हूँ ज़मीरी का असासा लिए जिया

तुम पास थे या दूर थे, इसका मलाल क्या
मैं तो लबों पे नाम तुम्हारा लिए जिया

© चिराग़ जैन

Thursday, June 7, 2007

सार्थकता

सच बोलने की भी जो हिम्मत जुटा न सके
ऐसी निरी खोखली जवानी किस काम की
शोषण को देख नहीं लहू में उबाल आए
बोलो ऐसी ख़ून की रवानी किस काम की
लाज, प्रेम, करुणा की नमी यदि सूख जाए
भला फिर आँख बिन पानी किस काम की
जिसके निधन पे न चार नैन नम हुए
ऐसे आदमी की ज़िन्दगानी किस काम की

© चिराग़ जैन