बहुत ज़्यादा न हो पर कुछ तो हसरत सबको होती है
जहाँ में नाम और शोहरत की चाहत सबको होती है
मरासिम हर दफ़ा ताज़िन्दगी निभता नहीं लेकिन
किसी से इक दफ़ा सच्ची मुहब्बत सबको होती है
मन अपने आप से भी इक ना इक दिन ऊब जाता है
किसी अपने की दुनिया में ज़रूरत सबको होती है
हर इक मुज़रिम को लगता है, उसी पर सख़्त है मुन्सिफ़
नहीं तो हर सज़ा में कुछ रियायत सबको होती है
किसी को बादशाहत दी, किसी को झोपड़ों के सुख
मगर फिर भी मुक़द्दर से शिक़ायत सबको होती है
फ़क़त इक मौत जीवन को कोई मौक़ा नहीं देती
वगरना एक-दो लमहों की मोहलत सबको होती है
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Sunday, August 30, 2009
Saturday, August 22, 2009
मुहाने तक नहीं पहुँची
किसी की ज़िन्दगी अपने ठिकाने तक नहीं पहुँची
किसी की मौत ही वादा निभाने तक नहीं पहुँची
बुज़ुर्गों की क़दमबोसी मेरी फितरत रही लेकिन
मेरी हसरत कभी उनके ‘सिराने तक नहीं पहुँची
ज़माने के लिए जो शख्स घुट-घुट कर मरा आख़िर
ख़बर उस शख्स की ज़ालिम ज़माने तक नहीं पहुँची
हवा के साथ उसकी ख़ुश्बुएँ आती रहीं लेकिन
कभी वो शय हमारे आशियाने तक नहीं पहँची
लहर से जूझना ही क्यों लिखा था मेरी क़िस्मत में
मेरे किश्ती कभी भी क्यों मुहाने तक नहीं पहुँची
© चिराग़ जैन
किसी की मौत ही वादा निभाने तक नहीं पहुँची
बुज़ुर्गों की क़दमबोसी मेरी फितरत रही लेकिन
मेरी हसरत कभी उनके ‘सिराने तक नहीं पहुँची
ज़माने के लिए जो शख्स घुट-घुट कर मरा आख़िर
ख़बर उस शख्स की ज़ालिम ज़माने तक नहीं पहुँची
हवा के साथ उसकी ख़ुश्बुएँ आती रहीं लेकिन
कभी वो शय हमारे आशियाने तक नहीं पहँची
लहर से जूझना ही क्यों लिखा था मेरी क़िस्मत में
मेरे किश्ती कभी भी क्यों मुहाने तक नहीं पहुँची
© चिराग़ जैन
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Tuesday, August 11, 2009
शब्द शिव हैं
शब्द
शिव हैं।
जब कभी
बहती है भावना
उद्विग्न हो
मन के भीतर से
तो उलझा लेते हैं उसे
व्याकरण की जटाओं में।
रोक देते हैं
उसका सहज प्रवाह।
सीमित कर देते हैं
उसकी क्षमताएँ।
कविता वेग है
आवेग है
उद्वेग है।
वो तो
शब्दों ने उलझा लिया
वरना,
बहा ले जाती
सृष्टि के
सारे कचरे को।
शब्द ब्रह्म नहीं हैं,
शब्द शिव हैं।
© चिराग़ जैन
जब कभी
बहती है भावना
उद्विग्न हो
मन के भीतर से
तो उलझा लेते हैं उसे
व्याकरण की जटाओं में।
रोक देते हैं
उसका सहज प्रवाह।
सीमित कर देते हैं
उसकी क्षमताएँ।
कविता वेग है
आवेग है
उद्वेग है।
वो तो
शब्दों ने उलझा लिया
वरना,
बहा ले जाती
सृष्टि के
सारे कचरे को।
शब्द ब्रह्म नहीं हैं,
शब्द शिव हैं।
© चिराग़ जैन
Monday, August 3, 2009
राखी के स्वयंवर की गौरवगाथा
भारतीय स्वयंवर परंपरा के गौरवशाली इतिहास में जानकी और द्रौपदी के स्वयंवरों की टीआरपी सबसे हाई रही है। इन दिनों राखी सावंत इस इतिहास को डायरेक्ट चुनौती दे रही है। यहाँ यह बताना बेहद ज़रूरी है कि स्वयंवर की ‘ईवेंट मैनेजमेंट’ में राखी को सीता और द्रौपदी से अधिक मेहनत करनी पड़ी। पहले तो उन्हें अपने लिए कुछ ‘भाई’ ढूंढने पड़े। इस चयन प्रक्रिया में न्यूनतम योग्यता यह थी कि आवेदक की मौजूदा स्थिति ‘आउट आॅफ फोकस’ होनी चाहिए ताकि उनको पेयमेंट कम करनी पड़े। पूज्यनीय राम ‘भैया’ इस ‘कसौटी’ पर खरे उतरे और उन्हें अपनी बहन के स्वयंवर की एंकरिंग करने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ। इस बहाने उनको काम मिल गया और उनकी ‘हैल्दी प्रज़ेंस’ के कारण उनके तेरह काल्पनिक बहनोई उनकी बहन की ओर आँख उठा कर नहीं देख सके। ये और बात है कि जब एक उम्मीदवार ने राखी को ‘किस’ कर लिया तो लड़ने के लिए दूसरे बहनोई को उस पर छोड़ दिया गया और ‘भैया जी’ ने उसकी ओर आँख नहीं उठाई।
ख़ैर अब दूसरे भैया की बात करते हैं। आदरणीय रविकिशन जी सेट पर आए तो राखी जी ने उनका आलिंगन कर उनका स्वागत किया। इस स्वागत समारोह के दौरान बहुत से ‘सैंया उम्मीदवार’ भैया जी की क़िस्मत से जल रहे थे। उधर कुछ सालियाँ और सासू माँ भी सेट पर अवतरित हुईं। उनके साथ सभी बहनोइयों की अच्छी पटी। यह शोध का विषय है कि आने वाले एपिसोड्स में राखी का हाथ बँटाने और कौन-कौन कुनबेदार आने वाले हैं। यह शोध का विषय है कि राखी पति खोजने निकली हैं या कुनबा जोड़ने।
जो भी हो, इतना तो मानना ही पड़ेगा कि राखी जी ने स्वयंवर जैसी परंपरा के रीति-रिवाज़ों से कोई छेड़छाड़ नहीं की। ये दीगर बात है कि द्रौपदी और सीता अपने स्वयंवर से पूर्व राजकुमारों के साथ ‘डेट’ पर नहीं गई थीं। इसके दो कारण हैं। पहला कारण तो यह कि वे राखी जी की तरह ‘बोल्ड’ नहीं थीं और दूसरा यह कि उन दिनों ‘कलैण्डर’ नहीं होते थे।
बहरहाल, राखी जी ने स्वयंवर की परंपराओं को हर क़ीमत पर निभाया है। स्वयंवरों का टूट-फूट से गहरा रिश्ता रहा है। कहीं शिव का धनुष तोड़ा गया तो कहीं मछली की आँख फोड़ी गई। इस परंपरा को क़ायम रखते हुए राखी ने स्वयंवर में शर्त रखी है कि जो प्रत्याशी टीआरपी के रिकाॅर्ड तोड़ने में सर्वाधिक मदद करेगा, राखी की माला उसी के गले पड़ेगी।
स्वयंवर के पहले दिन राखी जी से प्रश्न पूछा गया- ‘स्वयंवर करने का निर्णय लेने में आपको क्या कठिनाई हुई?’ यह प्रश्न पूछ कर पत्रकार ने राखी जी की क्षमताओं पर सवालिया निशान खड़ा किया है। लेकिन हमारी उदार राखी जी ने पत्रकार की धृष्टता को अनदेखा करते हुए इस सवाल का बेहद तार्किक और सारगर्भित उत्तर दिया। टाॅपलेस टाॅप पहनकर; अपने एक हाथ में अपना ही दूसरा हाथ थामे हुए, नज़रें नीची कर राखी जी ने कहा- (इनवर्टिड कौमा स्टार्ट) हर लड़की शादी के लिए छह-सात लड़कों से तो मिलती ही है। बस मैंने इन सबको एक साथ बुला लिया (इनवर्टिड कौमा क्लोज़)। कितने महान विचार हैं। काल करै सो आज कर.........!
कुछ समझ आया मूर्ख पत्रकार! मैं समझाता हूँ। इन महान उद्गारों के माध्यम से राखी जी कहना चाहती हैं कि हर प्राणी जीवन में लगभग आधे वक़्त तो सोता ही है, तो क्यों ना बच्चे को पैदा होते ही खूब सारी नींद की गोलियां खिला दी जाएँ ताकि वह सोने का सारा काम एक साथ निपटा ले। या फिर यूँ कहें कि हर व्यक्ति आठ रोटी प्रतिदिन के हिसाब से पूरे वर्ष में लगभग दो हज़ार नौ सौ बीस रोटियाँ खाता है। यदि उसको साठ वर्ष जीना है तो उसे जन्म लेते ही एक लाख पचहत्तर हज़ार दो सौ रोटियाँ खिला देनी चाहिएँ। इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति रोज़ाना लगभग पाँच मिनट शौचालय में बिताता है, तो उसे चाहिए कि वह साठ वर्ष की संभावित आयु के मुताबिक़ तीन माह तक लगातार शौचालय में रहे ताकि उसे जीवन में पुनः ऐसी गंदी जगह न जाना पड़े।
मुझे पूरा यक़ीन है कि ‘ज़मीन से जुड़े’ इस अंतिम उदाहरण से आपको राखी जी के कथन का सार समझ आ गया होगा। आइए अब हम ‘ज़मीन से जुड़ी’ राखी जी की बात पर लौटते हैं। उनकी महान प्रतिभा को पहचानने वाले जौहरी का नाम है- लव। उन्होंने राखी जी के बलिदानों और व्यक्तित्व को ध्यान में रखते हुए कहा- ‘जिस तरह हमारे देश में रानी लक्ष्मीबाई थी, जैसे हमारे देश में इंदिरा गांधी थी; वैसे ही अब हमारे देश में राखी जी हैं।’ लव के इस ‘अध्यक्षीय’ वक्तव्य के बाद योजना आयोग कुछ ऐसी योजनाएँ तैयार कर रहा है जिनका नाम पूज्यनीया राखी जी के नाम पर रखा जाएगा, जैसे- राखी सावंत खुला विश्वविद्यालय योजना, राखी सावंत एक्सप्रेस हाई-वे योजना और राखी सावंत संस्कृत विद्यापीठ इत्यादि।
कहने का मतलब ये है कि लब ने सीता मैया, रानी लक्ष्मीबाई और इंदिरा गांधी की तुलना राखी सावंत से कर के देश की संस्कृति और सम्मान को इतना ऊपर उठा दिया है कि अधिक ऊँचाई के कारण उस पर हृदयाघात का ख़तरा मंडराने लगा है।
तो भाई लोग, नित नए ‘करतब’ लिए राखी का स्वयंवर जारी है! राखी सचमुच महान हैं। उनमें कुछ भी कर गुज़रने की क्षमता है। अब देखना यह है कि टीवी पर पब्लिसिटी बटोरने आए नौजवानों में से किसे राखी की मांग भरनी पड़ती है। दुआ कीजिए कि स्वयंवर के पश्चात् इसी सिरीज़ में अगला कार्यक्रम हो - ‘राखी का हनीमून।’
© चिराग़ जैन
Saturday, August 1, 2009
लो वेस्ट जीन्स पर बैन
पिछले दिनों इस बात से पूरे समाज में सनसनी फैल गई कि अब लड़के-लड़कियाँ लो वेस्ट जीन्स नहीं पहन सकेंगे। मुद्दआ ये है कि इस प्रकार के परिधानों को उत्तेजक बताते हुए इन पर बैन लगा दिया गया है। अब ये विषय विश्वविद्यालयों की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं से लेकर साहित्यिक पत्रिकाओं के वाद-विवाद व्यवसाय तक छाया रहेगा।
दरअसल हमारा जागरूक समाज इस निर्णय को इसलिए स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि यह हमारे मौलिक अधिकार ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का हनन है। इस संदर्भ में परम आदरणीया मल्लिका जी की एक सूक्ति उद्धृत की जा सकती है। जब उनके परिधानों को लेकर कुछ संकुचित मानसिकता वाले लोगों ने हंगामा खड़ा किया था तो मल्लिका जी ने यह उद्बोधन देकर मुआमला शांत किया था कि मेरे पास ख़ूबसूरत बदन है तो मैं क्यों न दिखाऊँ। तर्क में दम था। सो हंगामाजीवियों को साँप संूघ गया और संपादकीय पृष्ठों से उठा विवाद पेज थ्री के इस बयान से समाप्त हो गया।
कदाचित् बुद्धिजीवियों ने यह सोचकर विवाद को आगे नहीं बढ़ाया कि यदि कल को मल्लिका जी ने उन्हें कम कपड़े पहनने की चुनौती दे डाली तो क्या होगा! सो अपनी इज़्ज़त अपने हाथ....। ख़ैर कपड़ों की तरह विषय भी भटक गया था। सो वापस लो वेस्ट जीन्स पर आते हैं।
यह मुआमला केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का नहीं है अपितु हमारे सभ्य समाज की ‘अनुभूति की स्वतंत्रता’ का भी है। जब कुछ ‘सुराग़’ ही नहीं दिखाई देगा तो कल्पनाशील समाज पूरी तस्वीर की कल्पना कैसे करेगा। और जब तस्वीर की कल्पना ही नहीं होगी तो वह सुखद अनुभूति कैसे होगी जो..........!
इतना ही नहीं, ये निर्णय पुनः हमारे समाज की महिलाओं को उसी पुरुषवादी कठघरे में ला खड़ा करने का एक षड्यंत्र है जिससे बाहर आने के लिए सैंकड़ों लोग महिला-मुक्ति का झंडा उठाए कमा रहे हैं। पहले पुरुषों ने धर्म के नाम पर महिलाओं को घर की चाहरदीवारी में क़ैद कर रखा था और अब पूरे कपड़ों में क़ैद करने के लिए समाज और सभ्यता की दुहाई दी जा रही है।
ये अन्याय नहीं चलेगा। और चूंकि क्रांति दबाने से और भड़कती है इसलिए यदि पुरुष यूँ ही मनमानी करते रहे और महिलाओं को पूरे कपड़े पहनाने को विवश किया गया तो महिलाएँ इसका और भी अधिक विरोध करेंगी और कोई काॅरपोरेट कंपनी अपनी सोशल रिस्पांसिबिलिटी निभाते हुए लो थाइज़ जीन्स लांच कर देगी। फिर देखते रह जाएंगे सारे पुरुष!
सरकार को चाहिए कि ऐसे मामलों को गंभीरता से लेते हुए इस निर्णय पर बैन लगाए। ज़रा सोचिए! एक ग़रीब आदमी जो अभी दो सप्ताह पहले लिवाइज़ की जीन्स ख़रीद कर लाया है, इस निर्णय के लागू होने से उसके दिल पर क्या बीतेगी। कहाँ से लाएगा नई जीन्स ख़रीदने के लिए वह पैसा। जिस दौर में लोगों के पास दाल-रोटी के लाले हैं, ऐसे में सरकार ने यदि इस प्रकार के निर्णयों पर रोक नहीं लगाई तो ग़रीबी कितनी बढ़ जाएगी।
वैसे भी जब गांधी जी अपने देशवासियों की चिंता में अपने पायजामे को धोती में बदल सकते हैं, तो गांधी जी के अनुयायी अपनी जीन्स को थोड़ा छोटा नहीं कर सकते। ये और बात है कि गांधी जी ने पाऊँचे काटे थे और हमने बैल्ट! पर मूल मुद्दआ तो कटौती का है। और कटौती हम कर रहे हैं। अब इस निर्णय पर पुनर्विचार होना चाहिए और इसको जीन्स से हटाकर टाॅप पर लागू करना चाहिए कि जो लो वेस्ट टाॅप पहनेगा उस पर ज़ुर्माना किया जाएगा। इससे हमारे टाॅप भी ऊपर उठेंगे और ‘संस्कृति’ भी!
© चिराग़ जैन
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जग में कुछ लोग कमाए
काऊ ने भोग लिए मन के सुख, काऊ ने देह के रोग कमाए
दौलत में सुख खोजने वालों ने केवल भौतिक भोग कमाए
काऊ ने प्रेम में जीते नारायण, काऊ ने मात्र वियोग कमाए
जीवन सिर्फ़ उन्होंने जिया, जिनने जग में कुछ लोग कमाए
© चिराग़ जैन
दौलत में सुख खोजने वालों ने केवल भौतिक भोग कमाए
काऊ ने प्रेम में जीते नारायण, काऊ ने मात्र वियोग कमाए
जीवन सिर्फ़ उन्होंने जिया, जिनने जग में कुछ लोग कमाए
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