Thursday, July 22, 2010

दिल्ली

वे भी दिन थे
जब पुरानी दिल्ली की
तंग गलियाँ
अकारण ही मुस्कुरा देती थीं 
नज़र मिलने पर
अजनबियों से भी।

दरियागंज की हवेलियाँ
अक्सर देखा करती थीं 
एक कटोरी को
देहरी लांघकर
इतराते हुए
दूसरी देहरी तक जाते
कुछ दशक पहले तक।

शाहदरा के बेतरबीब मकान
चिलचिलाती धूप में अक्सर
दरवाज़ा खोलकर
बिना झल्लाए
तर कर देते थे
अजनबियों का गला
ठण्डे-ठण्डे पानी से।

करोल बाग़ की सड़कें
अनायास ही जुट जाती थीं 
मुसीबत में खड़े
मुसाफ़िरों की मदद के लिए!

लेकिन अब दिल्ली
दो पल ठहर कर
किसी को रास्ता नहीं बताती है।
अब एक्सीडेंट देखकर भी
गाड़ियों की कतारें
(न जाने
कहाँ पहुँचने की जल्दी में)
फर्राटे से निकल जाती हैं। 

अब कोई किसी प्यासे को
पानी नहीं पिलाता
और तो और
अब तो कोई प्यासा
पानी पीने के लिए
किसी का
दरवाज़ा भी नहीं खटखटाता।

शाहदरा और
उत्तम नगर की
कस्बाई गलियाँ
धड़धड़ाती मैट्रो में सवार होकर 
गड्ड-मड्ड हो जाती हैं
साउथ-एक्स
और नेहरू प्लेस की
शहरी भीड़ में।

अब इन गलियों के पास
नहीं बचा है वक़्त
चाय की चुस्कियों के साथ
‘जनसत्ता’ पढ़ने का।

अब तो
फटाफट न्यूज़ का
दस मिनिट का बुलेटिन
देख पाते हैं
बमुश्किल।

दरियागंज की हवेलियों में
अब गोदाम हैं 
किताबों के
काग़ज़ के
और रुपयों के।

पुरानी दिल्ली की तंग गलियाँ
अब तंग आ चुकी हैं 
अजनबियों से।

हुक्के की गुड़गुड़ाहट पर
कब्ज़ा कर लिया है
‘आइए भैनजी,
सूट देखिये!’
-की आवाज़ ने।

मुद्दतों से
ग़ज़ल नहीं इठलाई है
बल्लीमारान की
गली क़ासिम में
अब यहाँ
जूतियों का
इंटरनेशनल बाज़ार है।

© चिराग़ जैन

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