Thursday, July 22, 2010

लव इन दिल्ली यूनिवर्सिटी

मौरिस नगर के नुक्कड़ों को
आज भी याद हैं 
हज़ारों
निःशब्द प्रेम कहानियाँ
जिनका पूरा सफ़र
तय होकर रह गया
आँखों-आँखों में ही।

लेकिन अब
ये प्रेम कहानियाँ
ऐसी ख़ामोशी से नहीं बनतीं।

अब
दिल्ली यूनिवर्सिटी में
पढ़-लिख कर
अपने अधिकार
जान गया है प्रेम।

अब लोक-लाज
और
पिछड़े हुए समाज से
आगे निकलकर
‘निरुलाज़- और ‘मॅक-डीज़’ में
बर्गर खाते हुए
घंटों बतिया सकता है प्रेम
...सेफ्ली।

या फिर
आर्ट्स फैकल्टी के बाहर
भेल-पुड़ी खाते हुए
आलिंगनबद्ध हो सकता है
सारे ज़माने के सामने।

अब
फैशनेबल मोटर बाइक पर
बेहिचक-बेझिझक
बिना किसी से डरे
‘चाहे जैसे’
फर्राटे से दौड़ सकता है प्रेम।

पहले की तरह नहीं 
कि नाम पूछने में ही
महीनों लग जाएँ।

अब तो झट से पूछ सकता है
कोई भी
कुछ भी
किसी से भी!

© चिराग़ जैन

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