Saturday, March 12, 2011

एक पल में पिया सौत के हो गए

उम्र भर मौत से भागते जो रहे
मौत आई तो बस मौत के हो गए
मेरे हर रोम में अपना अहसास भर
एक पल में पिया सौत के हो गए

एक ही पल में ये क्या से क्या हो गया
एक पल ज़िन्दगी से बड़ा हो गया
मौत को देखकर तुम पिघल से गए
और रुख़ ज़िन्दगी पर कड़ा हो गया
मौत ने छल किया? अपहरण कर लिया?
या सफल मौत के टोटके हो गए?

मौत ने कौन सा रस पिलाया कि फिर
ज़िन्दगी की तुम्हें याद आई नहीं
हाल तक पूछने की न कोशिश हुई
इतनी भी दुनियादारी निभाई नहीं
पीढ़ियाँ तुमको थाली चढ़ाती रही
और तुम मौत के गोत के हो गए

© चिराग़ जैन

Saturday, March 5, 2011

भावार्थ

इन दिनों
संदर्भ निंदा कर रहे हैं
विषय की भावार्थ से-
शब्द लट्टू हो गए
भाषा पे
या फिर व्याकरण पे
बोलियों के गेसुओं में फँस गया है मर्म
कुछ अलंकारों में सीमित हो गया कवि-कर्म
जटिल सा लगने लगा है
आजकल सरलार्थ
आँख मूंदे, मुस्कुराता
मौन है भावार्थ

© चिराग़ जैन

Wednesday, March 2, 2011

वक़्त बीमार है

वक़्त बीमार है
Short term memory loss का पुराना मरीज़। 

कुछ याद ही नहीं रह पाता इसको
लिख-लिख कर
मुश्क़िल से याद रख पाता है
बड़ी से बड़ी बात

मैंने अक्सर देखा है वक़्त को
अपनी ही लिखी पर्चियों के बीच
उलझे हुए

इतिहास की किताबों में
किसी क़िरदार की
सबसे सही पहचान तलाशते हुए

सुना है
वक़्त को धोखा देने के लिये
किसी ने जला डाली थीं
कुछ पर्चियाँ

…तब से
बौराया-सा फिर रहा है बेचारा!

© चिराग़ जैन

Tuesday, March 1, 2011

बेचारा ईश्वर

मैंने देखा-
मूसलाधार बारिश में
भीग रही थी
ईश्वर की मूर्ति

मैंने सोचा-
थपेड़े भी सहती होगी
गर्म लू के
इसी तरह।

मैंने महसूस किया-
सर्दी-गर्मी-बरसात
नंगे बदन
कैसे खड़ा रहता है परमात्मा।

...और तब मैंने चाहा-
काश, कोई इसकी भी सुध ले!

© चिराग़ जैन