Friday, November 25, 2011

कहानी

शब्दशः याद है मुझे
डाकू खड्गसिंह
घोड़ा सुल्तान
बाबा भारती
घोड़ा चुराने की धमकी
बाबा का भय
खड्गसिंह की चाल
ग़रीब का वेष बनाना
घोड़ा छीनना
बाबा का उसे टोकना...

सुनो! इस घटना का ज़िक्र
किसी से मत करना
वरना लोग छोड़ देंगे
मजबूरों की सहायता करना।

यहाँ तक की कहानी
रोज़ देखता हूँ अपने आसपास
कभी खड्गसिंह बनकर
कभी बाबा भारती बनकर।

लेकिन इसके आगे
न तो कभी
कोई खड्गसिंह आया
मेरे अस्तबल में घोड़ा बांधने
न मैं ही जा पाया
किसी बाबा भारती का
सुल्तान लौटाने।

© चिराग़ जैन

Monday, November 21, 2011

नई कविता

अजीब सी
पशोपेश में रहता हूँ आजकल

तुम
और कविता
दोनों ही मांगती हैं वक़्त!

मैं घण्टों बतियाता हूँ
तुमसे
और भीतर ही भीतर
घुटती रहती है कविता।

आज अचानक
पूछ लिया तुमने-
"क्या बात है
बहुत दिनों से
कोई
नई कविता नहीं सुनाई?"

मैंने कहा-
"कल सुनाऊंगा।
आज ही किसी ने
दिल दुखाया है।"

© चिराग़ जैन

Saturday, November 12, 2011

अलसाए झरोखों से

पल-पल भारी होती पलकों के
अलसाए झरोखों से
पढ़ ही लेता हूँ
देर रात
मोबाइल स्क्रीन पर आया
तुम्हारा नाम!

करवट बदलकर
निंदियारी आँखें
पहुँच ही जाती हैं 
उंगलियों के सहारे
इनबाॅक्स तक!

...देर तक पढ़ता हूँ
मैसेज में लिखे
दो छोटे-छोटे शब्द।

भुजपाश में जकड़े
तकिए पर
ठुड्डी टिकाकर
मुस्कुराने लगते हैं मेरे होंठ!

और पलकों के भीतर
इतराने लगती हो तुम!

© चिराग़ जैन