Sunday, August 12, 2012

सिर्फ़ हंगामा

आज स्वर्गीय दुष्यंत कुमार पर बहुत गुस्सा आ रहा है। उनका एक शेर पूरे हंगामे की जड़ बन गया है। पहले कोई भी विवाद खड़ा करने से पहले हर आदमी को यह भय रहता था कि मुझे कलेसी समझा जाएगा। लेकिन अब दुष्यंत ने सब कलेसियों को सुविधा दे दी है कि जब के कलेस करो और अंत में दो मिसरे बोल कर सारे आरोपों का पिंडदान कर डालो-

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

इस शेर को पूरा देश उसी भाव से सुनता है जिस भाव से द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर के मुख से अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार सुना था। ‘अश्वत्थामा हतोयतः...’ सुनने के बाद पूरे देश के कान बंद हो जाते हैं और यह समझ ही नहीं पाते कि अगले मिसरे में अगला किसी कोशिश की बात कर रहा है।

फ़ेसबुकियों से लेकर संसदियों तक; जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक हर जगह अवचेतन में गुलाम अली का हारमोनियम टुनटुनाने लगता है- हंगामा है क्यों बरपा...। शाम के प्राइम टाइम बुलेटिन में हर न्यूज़ चैनल पर चार-पाँच कलेसी सादर आमंत्रित किए जाते हैं कि लीजिए, जो क़सर संसद में या रैली में अधूरी रह गई हो, उसको पूरा करो। सबको लाकर काॅलर माइक लगा दिया जाता है। फिर एंकर बहुत सभ्य तरीक़े से सबकी राय जानना चाहता है। जब सब राय दे देते हैं तब बहस शुरू होती है कि विषय क्या हो। बहस कई बार गति पकड़ने का प्रयास करती है लेकिन हर बार एंकर स्पीड ब्रेकर लगाकर प्रश्न उछालता है कि पहले विषय तय कर लिया जाए। और फिर बहस उस विषय से भटक जाती है, जो कभी था ही नहीं। सब एक साथ हंगामा खड़ा करने लगते हैं। बेचारा एंकर सोमनाथ स्टाइल में मीरा कुमार की स्क्रिप्ट पढ़ता रहता है- बैठ जाइए, उनको बोलने दीजिए, कृपया शांत हो जाइए।’

बड़ी मुश्क़िल से सभी इस बात पर सहमत होते हैं कि उस बेचारे को भी सुन लिया जाए जो पिछले बीस मिनिट से हमने जुड़ चुका है। जैसे ही उससे बोलने को कहा जाता है, ऐन वक़्त पर उसके कान में लगा ईअर फोन निकल जाता है और उससे हमारा संपर्क टूट जाता है। इस मौक़े का लाभ उठाकर एंकर तुरंत बताता है कि वक़्त हो चला है एक ब्रेक का।

मैं भी विषय से उतना भटक चुका हूँ, जितना आवश्यक था। सो मैं दो पंक्तियों के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ- 

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

© चिराग़ जैन

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