Friday, August 16, 2013

सियासत पनप रही है

नसीहतें अनसुनी रहेंगी, यही रवायत पनप रही है
पुरानी आफ़त तो टल गई पर नई मुसीबत पनप रही है

कहीं तिज़ारत, कहीं ज़रूरत, कहीं पे वहशत पनप रही है
अमां हटाओ भी दौरे-नौ में कहाँ शराफ़त पनप रही है

इधर मेरे घर में एक नन्हीं, हसीं नज़ाक़त पनप रही है
उधर मेरे मन में सुर्ख़ियों की तमाम दहशत पनप रही है

किसी की मजबूरियों के घुटने कभी टिकें तो ये याद रखना
जहाँ दबाया था हसरतों को वहीं बग़ावत पनप रही है

वो एक हिंदू, ये एक मुस्लिम, वो इसका दुश्मन, ये उसका दुश्मन
इसी तरह के फ़िज़ूल जुमलों पे अब सियासत पनप रही है

हरेक सच को बयान कर दें, पलट के रख दें हरेक बाज़ी
तुम्हारी मजबूरियों के दम पर, हमारी हिम्मत पनप रही है

जो एक आदत-सी हो गई है, तुम्हें हमारी ख़ुशामदों की
तुम्हारी आदत की आड़ लेकर, हमारी चाहत पनप रही है

बहुत दिनों तक संभाले रखी, तो ये मरासिम को लील लेगी
अभी मिटा दो दिमाग़ो-दिल से, अगर शिक़ायत पनप रही है


© चिराग़ जैन

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