जीवन में कुछ क्षण ऐसे आते हैं, जब शब्द हिचकियों और सुबकियों में अनूदित होजाते हैं। आज संतोष आनंद जी को सुबकते हुए देखा तो उनके गीतों की जिजीविषा वहाँ व्याप्त सन्नाटे में लास्य करने लगी। इसी जिजीविषा की उंगली थामकर मृत्त्यु के सम्मुख निरुपाय खड़ा एक बुज़ुर्ग बाप कदाचित् फिर से अपनी सुबकियों का शब्दानुवाद कर सके।
संकल्प और नंदिनी की शोकसभा में बैठा था तो कहीं दूर अवचेतन में एक गीत गूँजता रहा-
"जो दिल को तसल्ली दे, वो साज उठा लाओ
दम घुटने से पहले ही, आवाज़ उठा लाओ…"
संतोष जी को माइक दिया गया तो उनकी जिजीविषा ने उनकी जर्जर देह में प्रवेश किया, उन्होंने माइक लिया, एक पल को पलकें झपकीं, फिर अपने मेरुदंड को सीधा करते हुए सीने को प्राणवायु से लबरेज़ कर बोले- "मैं टूटुंगा नहीं… मैं इस बच्ची रिद्धिमा के लिये जिऊंगा… मैं इस परिवार के लिये जिऊंगा…!"
सबकी आँखें नम थीं, सभा समाप्त हुई, सब बाहर निकले… द्वार पर संतोष जी की पत्नी, उनकी दो बेटियाँ और उनकी पोती बैठी थी… संतोष जी अपने काँपते हाथों से सबका अभिवादनकर विदा कर रहे थे… उनकी आँखें लगातार बोल रही थीं- …मैं जिऊंगा …मैं टूटुंगा नहीं…!
© चिराग़ जैन
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