Thursday, May 28, 2015

पीर के गाँव

प्रेम की राह में पीर के गाँव हैं
प्रेम फिर भी हमेशा लुभावन हुआ
एक सावन बिना प्रेम पतझर बना
पतझरों ने छुआ प्रेम; सावन हुआ

जब नदी ने समुन्दर छुआ झूम कर
तब नदी की सुधा को निचोड़ा गया
अपहरण कर लिया सूर्य ने देह का
और बादल उसे ओढ़ बौरा गया
हिमशिखर में ढली, आँसुओं-सी गली
छू सकूँ फिर समुन्दर -यही मन हुआ

एक अनमोल पल की पिपासा लिए
मौन साधक जगत् में विचरता रहा
घोर तप में तपी देह जर्जर हुई
श्वास से आस का स्रोत झरता रहा
चल पड़े प्राण आनन्द के मार्ग पर
जग कहे- ‘साधना का समापन हुआ’

एक राधा कथा से नदारद हुई
एक मीरा अचानक हवा हो गई
सिसकियाँ उर्मिला की घुटीं मन ही मन
मंथरा इक अमर बद्दुआ हो गई
बस कथा ने सभी को अमर कर दिया
फिर न राघव हुए ना दशानन हुआ

© चिराग़ जैन

Sunday, May 17, 2015

पुत्री के जन्म पर

इक किरण सूर्य की आई हो जैसे धरती के प्रांगण में
वैसे ही आई है बिटिया मेरे मुस्काते जीवन में
उसके आ जाने से मेरी मुस्कानों ने मआनी पाए
उसको गोदी में ले चूमा तो अन्तस् ने उत्सव गाए
शब्दों को ख़ूब निचोड़ लिया फिर भी यह गान अधूरा है
बिटिया के जन्मोत्सव के इस सुख का अनुमान अधूरा है
सारी ख़ुशियों से बढ़कर है उल्लास पिता बन जाने का
मन को बालक कर देता है अहसास पिता बन जाने का
तुलना करना नामुमक़िन है, जग के सब रिश्ते-नातों से
क्या मिलता है जब छूती है मुझको वो कोमल हाथोे से
उसकी किलकारी से बेहतर कोई मधुरिम संगीत नहीं
उसकी सुविधा से आवश्यक दुनिया की कोई रीत नहीं
जब वो अपना छोटा सा सिर सीने पर रखकर सोती है
उस क्षण धरती का राजा होने की अनुभूति होती है
दुनिया का सब ऐश्वर्य व्यर्थ सारा सुख-वैभव झूठा है
अपनी संतति की धड़कन सुनने का आनंद अनूठा है

© चिराग़ जैन

Saturday, May 9, 2015

ज़रा से तार में ख़ुशियाँ पिरोना

निभाना, सहन करना, बाट जोहना सीख लेती थीं
बिना आवाज़ के छुप-छुप के रोना सीख लेती थीं
कहाँ ग़ुम हो गईं वो पीढ़ियाँ जब बेटियाँ माँ से
ज़रा से तार में ख़ुशियाँ पिरोना सीख लेती थीं

© चिराग़ जैन

Friday, May 8, 2015

क़ानून इतना भी अंधा नहीं है जितना लगता है

लीजिये जनाब! रोना-पीटना बंद करो, सल्लू भाई पर आता हुआ संकट उसी तरह टल गया जैसे धरती की ओर बढ़ता हुआ उल्कापिंड अचानक न्यूज़ चैनल देखकर अपनी दिशा बदल लेता है। सेशन कोर्ट ने तेरह साल तक न्याय को वनवास दिये रखा और हाईकोर्ट ने तीस हज़ार रुपये की बड़ी रक़म वसूल कर न्याय को अज्ञातवास में भेज दिया। सारा प्रकरण देख कर पहली बार महसूस हुआ कि न्याय की मूर्ति की आँखों पर बंधी पट्टी की ख़रीद में कोई बड़ी धांधली हुई है। उस पट्टी की क्वालिटी में एक ख़ामी है। तेज़ चमक वाले चेहरों की रोशनी पट्टी में से पार होकर न्याय की देवी की आँखें चुंधिया सकती है।

क़ानून इतना भी अंधा नहीं है जितना लगता है। क़ानून टीवी चैनल देख सकता है।अभिनय जगत् के श्रेष्ठ कलाकारों की आँखों में बिना ग्लेसरिन के उतरे आँसू देख सकता है। सल्लू मिया के ऊपर लगे बॉलीवुड के सैंकड़ो करोड़ रुपैये देख सकता है। क़ानून समझता है कि जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में रुपये की क़ीमत लगातार गिर रही हो ऐसे में ढाई सौ करोड़ रुपये को ठंडे बस्ते में डाल देना देश के हित में नहीं है। क़ानून हत्या के अपराधी के घर से अदालत तक सड़कों पर उठ रहे सलमान ज़िंदाबाद के नारों की गूंज सुन सकता है।

लेकिन क़ानून निष्पक्ष है। क़ानून जानता है कि अभिजीत के बयान का सलमान के केस से कोई लेना-देना नहीं है। क़ानून यह भी जानता है कि उस रात फ़ुटपाथ पर सो रहे लोगों में एक आदमी की जान चली गई और बाक़ी चार की बच गई। चूँकि बच जाने वाले लोगों की संख्या मर जाने वाले लोगों की संख्या से कम है इसलिये लोकतंत्रात्मक दृष्टिकोण से सल्लू मियां के हत्यारे होने को कुल एक वोट मिला है, लेकिन गाड़ी के नीचे आने के बावज़ूद ज़िंदा बचा लेने वाले मसीहा होने को चार वोट मिले हैं।

लेकिन क़ानून पारदर्शी है और भावनाओं को नहीं समझता। क़ानून व्यवहारिक है। वह यह समझता है कि किसी भले आदमी से कोई ग़लती हो गई तो तेरह साल तक उसके द्वारा सबूतों और गवाहों से की गई छेड़ख़ानी सहज मानवीय व्यवहार का हिस्सा है। चूँकि हर किसी को अपना बचाव करने का अधिकार है।

क़ानून प्रभावित नहीं होता। इसलिये इस फ़ैसले पर होने वाली आलोचनाओं से क़ानून को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। क्योंकि न्याय की मूर्ति के कान इस समय सलमान ख़ान ज़िंदाबाद के नारे सुनने में व्यस्त हैं। और जब क़ानून इन आलोचनाओं पर संज्ञान लेगा तो भी विचलित नहीं होगा। वह अदालत की अवमानना और न्यायालय के विशेषाधिकार के दम पर नोटिस ज़ारी करेगा। क्योंकि क़ानून कुछ भी जानता हो या न जानता हो पर वह क़ानून तो जानता ही है।

-चिराग़ जैन

Thursday, May 7, 2015

मीडिया की महानता

जंतर मंतर पर गजेन्द्र सिंह फांसी झूल गया। मीडिया की मौज हो गई। गजेन्द्र सिंह पर हर चैनल ने पीएचडी कर मारी। वहां वसुंधरा क्यों नहीं गई। वहां अरविन्द केजरीवाल क्यों चुप रहा। किसने उसकी चिता जलाई। कौन उसकी बेटी है। किसको उसने फोन किया। सारी पड़ताल दो दिन में हो गई। 

उसको न्याय मिलने ही वाला था कि नेपाल की धरती हिल गई। नेपाल में तबाही मच गई और मीडिया में हाहाकार।गजेन्द्र के परिवार की गुहार इस हाहाकार में दब गई। उन अनाथ बच्चों को स्टूडियो से बाहर फ़ेंक कर मीडिया नेपाली हो गया। कौन सी बिल्डिंग गिरी। जब बिल्डिंग गिरी तो लोग कैसे भागे। किस मंदिर में चमत्कार हुआ। किस मलबे में कितने लोग फंसे हैं। सारी रिसर्च ही गई। अभी मलबा पूरी तरह हटा भी नहीं था कि रामदेव की पुत्रजीवक वटी का मुद्दा मीडिया की मशीन में पेल दिया गया। सुबह से शाम तक हर चैनल पर रामदेव और त्यागी जी। उस दवाई के नाम में क्या गुनाह था ये स्पष्ट होता इससे पहले मीडिया को कुमार विश्वास मिल गया। मिडिया ने त्यागी जी को त्याग कर कुमार विश्वास और लड़की का दामन थाम लिया। दोनों पक्ष ये कहते रहे कि हमारे बीच कोई सम्बन्ध नहीं हुए।लेकिन मीडिया ने दो दिन तक कुमार विश्वास का चीरहरण किया। कुमार की इज़्ज़त पूरी तरह लुटती इससे पहले सल्लू मियां पर फैसला आ गया। बेचारे सलमान को जिसने केवल एक फुटपथिये को कुचला था। उसको इतनी भारी सज़ा हो गई। अदालत की इस बर्बरता पर मीडिया ने सवाल उठाए। पूरे देश में दुःख की लहर दौड़ गई। अब देखना ये है कि अगला नंबर किसका है।

हमारा देश इतने जागरूक मीडिया से धन्य है। वो और देश होंगे जिनकी मिडिया को मुद्दों की तलाश होती है। हमारे न्यूज़ चैनल तो जिस पर बात करने लगें, वही मुद्दा हो जाता है। कभी-कभी तो लगता है कि मुद्दे खुद न्यूज़ चैनल के बाहर लाइन बनाकर खड़े हैं। हालात ये है कि किसी भी मुद्दे को दो दिन से ज़्यादा का स्लॉट नहीं मिल पा रहा। इतनी व्यस्तता के बीच भी संसद की चर्चा, भूखे को रोटी, सरकारी भ्रष्टाचार, गर्मी से झुलसते लोग, हवा में बढ़ता प्रदूषण और जीवन स्तर की बेहतरी को दरकिनार कर हमारा मीडिया ऐसे बिना बात के मुद्दों पर पूरी ऊर्जा से चीखता चिल्लाता है; इससे ज़्यादा महानता और क्या होगी। 

© चिराग़ जैन

Tuesday, May 5, 2015

बदचलन लड़की बनाम मीडिया

किसी शहर में एक लड़की रहती थी। बहुत खुले विचारों की थी। उसको मुहल्ले का कोई भी लड़का फ़िल्म दिखाने, कॉफ़ी पिलाने, पार्क घुमाने, बाइक पर घुमाने, डिस्को ले जाने या डेट पर चलने का ऑफ़र देता, तो बिना किसी नखरे के मान जाती थी। धीरे-धीरे उसकी यह सहृदयता पूरे शहर में फ़ेमस हो गई। कभी-कभी बाहर के शहर के छोरे भी उसे आइसक्रीम खिलाने अपने साथ ले जाने लगे। अब उसका कोई भी दिन अकेले नहीं बीतता।

लेकिन आजकल उसकी हालत बहुत दयनीय हो गई है। स्थिति यह है कि पूरे शहर में जिस लड़के के साथ वो होती है, उसके अतिरिक्त बाक़ी पूरा शहर उसको बदचलन, आवारा, चरित्रहीन और कुल्टा कहता है। हाँ, जिस लड़के पर जिस समय कृपा बरस रही होती है, उसको वह बहुत मैच्योर, सिन्सियर और ओपेन माइंडिड लगती है। वो लड़का बाक़ी शहर भर के छोरों को मैनर्सलैस और इल्लिट्रेट मानता है। ये और बात है, बाद में यह छोरा भी मैनर्सलैस छोरों के साथ मिलकर उसे किसी और के साथ घूमते देख आवारा कहने से नहीं चूकता।

उस लड़की का नाम मीडिया है। इसके लिये हर छोरा एक दिन का दाना-पानी है। और छोरे अपनी-अपनी बारी के चक्कर में सब ज़रूरी काम छोड़ कर इसके चाल-चलन और रंग-ढंग से बिना बात प्रभावित हुए रहते हैं। 

© चिराग़ जैन

Monday, May 4, 2015

चरित्र-हत्या का परमानेन्ट फण्डा

मेरे इस लेख को वे लोग न पढ़ें जो स्वयँ को महिला आयोग का अघोषित अध्यक्ष समझते हुए किसी भी मुद्दे में महिला का नाम आते ही महिला को पीड़ित और बेचारी समझकर बुद्धि के कपाट बंद कर देते हैं। वे लोग भी इस पोस्ट से दूर रहें जो स्वयं को मन ही मन, भाजपा, आप, कांग्रेस या अन्य किसी दल का प्रवक्ता मान बैठे हैं और अपने-अपने दल का नाम आते ही सोचने-समझने की शक्ति को पैरों के नीचे रखकर उस पर खड़े होकर हो-हल्ला मचाने लगते हैं।

यह केवल उन लोगों के लिये है जो एक ही समय में एक ही व्यक्ति के जीवन की हर घटना को अलग-अलग करके उस पर सोच सकते हैं और किसी भी प्रकार के आग्रह से मुक्त होकर एक ऐसे चिंतन की आधारशिला पर खड़े हो सकते हैं जो समाज के उन्नयन के लिये अपरिहार्य हो चुका है। क्योंकि इस पोस्ट के प्रश्न जटिल न भी हों तो कड़वे ज़रूर हैं।

क्योंकि प्रश्न यह है कि हाथ हिला-हिलाकर किसी भी व्यक्ति के चरित्र, निर्णय, चाल-चलन और यहाँ तक कि संवेदना तक को सवालों के कठघरे में ला खड़ा करने वाले मीडिया एंकर क्या वास्तव में देश और समाज के लिये चिंतित हैं। प्रश्न यह है कि यदि कोई सवाल किसी की ज़िंदगी से भी बड़ा है, और उस सवाल ने पूरे मीडिया हाउस को झखखोर डाला है तो फिर उस सवाल की गंभीर और गर्मागर्म चर्चा के बीच ब्रेक लेने के निर्णय को टाला क्यों नहीं जा सकता। प्रश्न यह भी है कि स्वयं को निर्णायक मानकर किसी भी शख़्स से बैसिर-पैर के सवाल पूछनेवाले पत्रकार उसको जवाब देने तक का अवसर नहीं देते तो क्या जनता इस तानाशाही को समझ पाती है? सवाल यह है कि जंतर-मंतर पर फाँसी झूल जानेवाले गजेन्द्र की किशोर बेटी से जब यह पूछा जा रहा था कि आपके पिता आपसे क्या बातें करते थे तो क्या दर्शकों के भीतर इस संवेदनहीन मीडिया के प्रति कोई घृणा उत्पन्न हुई थी? 

अभी एक टीवी चैनल पर वो मोहतरमा बैठी हैं जिन्होंने सोशल मीडिया पर वायरल हुई कुछ तस्वीरों को लेकर पहले उन पर क्षोभ जताया जिनकी वॉल पर ये तस्वीरें पोस्ट की गईं थीं। फिर उन्होंने यह कहा कि इस मामले से हुई बदनामी के कारण मेरे पति ने मुझे घर से निकाल दिया है।

उनके पति की मांग़ यह है कि कुमार विश्वास अगर इन आरोपों का खंड्न कर दें तो उनको संतोष हो जायेगा। सवाल यह है कि जिस लड़की के चरित्र पर लांछन लगा है क्या उसको स्टूडियो में बैठाकर उससे बार-बार चटखारे लेकर सारी रामकहानी पूछना क्या किसी बलात्कार से कम है? सवाल यह है कि महिला आयोग उस राम से प्रश्न क्यों नहीं पूछता जिसने सोशल मीडिया की एक अप्रमाणिक तस्वीर को आधार मानकर अपनी ब्याहता को घर से निकाल दिया, और अब उसे उस रावण की गवाही चाहिये जिसके साथ उसकी सीता का नाम जोड़ा गया है?

प्रश्न यह है कि यदि उन तस्वीरों के पीछे की कहानी में कोई सत्य होगा भी तो क्या कुमार विश्वास उसको सार्वजनिक रूप से स्वीकार करेंगे? यदि कुमार विश्वास के कथन की नैतिकता पर इतना ही विश्वास है तो फिर उनके चरित्र पर विश्वास करने में संकोच क्यों? प्रश्न यह है कि जब कुमार विश्वास ने मीडिया के सामने यह कह दिया कि इन ख़बरों में कोई सत्य नहीं है तो फिर पीड़िता की मांग पूरी क्यों नहीं हो गई? उसके पति के संदेह की खाई कैसे पोली रह गई?
प्रश्न यह है कि इस प्रकार के घटनाक्रम यदि इसी प्रकार सेंसेशनल बनाये जाते रहे तो क्या कोई स्त्री समाज और देश के हित कभी किसी भी मुहिम में आगे बढ़ पाएगी? क्या किसी व्यक्ति का सम्मान और पारिवारिक संबंधों की नींव किसी ऐरे ग़ैरे नत्थूख़ैरे के कह देने भर से तय होती रहेगी।

प्रश्न यह है कि हम पीड़ा में से ख़बर तलाशने से कब बाज़ आएंगे? प्रश्न यह है कि 8 मिनिट के विज्ञापनों से पैसा जुगाड़ने की हवस में बाक़ी के 22 मिनिट तक हम पत्रकारिता के मूल्यों को कितने गहरे कुँए में फेंकेंगे? 

एक लड़की चिल्ला-चिल्ला कर अपने हाव-भाव और बातों से कुमार विश्वास को "बदमाश" सिद्ध करने पर उतारू है। अचानक वो भावुक हो गई क्योंकि महिला जो है, पीड़ित महिला जो है, लगातार जो है, उसके आँसू जो हैं, वो बह रहे हैं। इतनी देर में कैमरा लड़की की काजल घली आँखों में उतरे आँसुओं को एक्स्ट्रीम क्लोज़ अप से दिखाता है। तभी एंकर के कान में एवीयू से कुछ कहा जाता है, झटाक से कैमरा ज़ूम आउट करता है, एंकर हाँफ़ते हुए बताती है कि इस बीच हमसे किरण बेदी जुड़ चुकी हैं, किरण जी, हमारे साथ स्टुडियों में पीड़ित महिला बैठी है, जो सुबक सुबक कर रो रही है, उसके पति ने उनको घर से निकाल दिया है। आप उनसे कुछ कहना चाहेंगीं?

किरण जी कुछ क़ायदे की बात कहने का प्रयास करती हैं, लेकिन एंकर उनकी बात को सुने बिना फिर उछल-उछल कर चिल्लाने लगती हैं कि आप ये बताओ कि ये कहाँ जाएँ, ……कि इनकी हालत जो है, आप देखिये… कि महिलाओं की रक्षा का मुद्दा… कि फ़लाना… कि ढिमका… कि ये …कि वो… कि अभी वक़्त हो चला है एक ब्रेक का… आप हमारे साथ बने रहिये… टैंनेंटैणं… मेकअप दादा, टचअप… पानी……… (एवीयू से कान मेंफ़ुसफ़ुसाहट होती है) …क्या बात है, हिला कर रख दिया! (एंकर मुस्कुराते हुएखखारती है) रैडी… रोलिंग्… 

…प्रश्न ये है कि इन सबके बीच समस्याओं और मुद्दों को गंभीरता से कब सोचा जाएगा?

-चिराग़ जैन