Wednesday, November 25, 2015

इनक्रेडिबल इण्डिया

दुनिया की समस्या ये है कि विश्व से आतंकवाद कैसे समाप्त हो। फ़्रांस इस सोच में व्यस्त है कि isis को कैसे समाप्त किया जाए। अमरीका ये सोच रहा है कि हमला ज़मीनी होना चाहिए या हवाई। चीन इस चिंता में है कि विश्व की अर्थव्यवस्था को अपने पक्ष में कैसे पलटा जाए। पाकिस्तान यह जुगत भिड़ा रहा है कि चीन और अमरीका दोनों से मित्रता कैसे बनाई रखी जाए। ऐसे में हमारे प्रश्न ये हैं कि हमें शाहरुख और आमिर की फ़िल्म देखनी चाहिए या नहीं। हमारी चिंता ये है कि मुलायम सिंह यादव के जन्मदिन पर काटे गए केक में कितना ख़र्चा हुआ। हम इस मुद्दे पर उलझे हैं कि रामदेव की मैगी नेस्टले की मैगी से बेहतर है या नहीं।

न्यूज़ का इंटरनेशनल बुलेटिन देख कर समझ आता है कि 'इनक्रेडिबल इण्डिया' का मतलब क्या है। 

जब आमिर खान अतुल्य भारत के विज्ञापन कर रहे थे तो ऐसा लगता था जैसे भोला-भाला पीके दाढ़ी बनाते नाई की तशरीफ़ में घुसा पायजामा निकाल रहे हों। और असहिष्णुता वाला बयान देकर उन्होंने वो पायजामा वापस वहीँ घुसा दिया।

© चिराग़ जैन

Saturday, November 21, 2015

हल्ला : विकास का एक पर्याय

हल्ला। ये एक ऐसा भाव है जो मचता है। इसके मचने के लिए मुद्दा कतई ज़रूरी तत्व नहीं है। भारत जैसे राजनैतिक रूप से परिपक्व (जिसे कुछ संकुचित मानसिकता के लोग ढिठाई की संज्ञा देते हैं) देश में हल्ले की आड़ में मुद्दों को सुरक्षित रखा जाने की परंपरा होती है। 

हल्ला मचाना यूं तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है किन्तु जो इस कला में दक्षता प्राप्त कर लेता है वह किसी भी पेशे से क्रमबद्ध विकास करता हुआ राजनीति की सुनहरी लंका तक जा पड़ता है। इस कला का अभ्यास हमारे विद्यालयों से प्रारम्भ हो जाता है। कक्षा में अध्यापक का पढ़ाई पर ध्यान न चला जाए इस हेतु अध्यापक को हल्ले में अटका दिया जाता है। धीरे धीरे अध्यापक इसी बात को अपना लक्ष्य मानने लगता है की छात्र हल्ला न करें। ”पढ़ लो रे” के गायत्री मन्त्र से शुरू हुई मास्टरी जब ”हल्ला न करो बे“ के महामृत्युंजय तक पहुँच जाती है तो छात्र कॉलेज का जीर्णोद्धार करने निकल पड़ता है।

”प्रवेश प्रक्रिया में धांधली चल्लई है!“ जैसे क्रांतिकारी वाक्य की शिरोरेखाओं पर सवार होकर हल्ला भी कॉलेज चला आता है। प्रवेश के बाद जागरूक हल्लाधर्मी छात्र कॉलेज के भवन की जर्जर अवस्था देख कर दुखी होता है और छात्रहित में पाठ्यक्रम को तिलांजलि देते हुए सड़क पर उतर आता है। इस प्रकार हल्ले का सहारा लेकर सड़क पर उतर आने से वह बेंच पर चढने की जटिल प्रक्रिया से भी बच लेता है। हल्ले का जलवा ये है कि जो प्रोफ़ेसर उसकी अनुपस्थितियों और लापरवाही का हवाला देकर उसे एडमिट कार्ड देने से इनकार करने वाले थे वे ही दुई कर जोड़े उससे परीक्षा देने की अनुनय करने लगते हैं।

तीन चार साल तक कॉलेज बिल्डिंग की दशा पर दुखी होने के बाद छात्रगण संन्यास भाव के साथ भवन को उसी दशा में और अपने छोटे भाइयों को उसी भवन में छोड़ कर कभी पलटकर न देखने के प्रण के साथ विदा हो जाते हैं।

छात्र जीवन के कठिन अनुशासनों के पालन करने के पश्चात् ये लोग अलग अलग व्यवसायों की भट्ठी में तपने लगते हैं। कोमल हृदयी होने के वशीभूत अपने-अपने पेशे से जुड़े लोगों के जीवन की चुनौतियाँ इनको टिक कर बैठने नहीं देतीं। ये एक एक आदमी के पास अपने निजी पैरों से चलकर जाते हैं और उनको ये बताते हैं कि उनके ऊपर की कुर्सियों पर बैठे लोग उनके जीवन में चुनौतियों का विष घोल रहे हैं इसलिए अपने हक़ की लड़ाई के लिए हम सबको मिलकर हल्ला करना होगा। 

कुछ ही समय में दफ़्तर के बाहर किसी साफ़-सुथरी रेलिंग पर लाल रंग के कपड़े पर कर्मचारी यूनियन लिख कर टांग दिया जाता है। इस दिव्य बैनर के आगे कर्मठ हल्लावादियों के स्वागत में बिछी दरी पर बैठ कर कुछ मेहनती लोग उन कर्मचारियों के हिस्से का ताश खेलते हैं जो ऊपर की कुर्सियों पर बैठे जुल्मी अफसरों के कारण ताश खेलने तक का समय नहीं निकाल पाते। ताश की किसी बाज़ी में नंबर गिनते वक़्त हुई छुटपुट वारदात को अफसरों के प्रति आक्रोश की शक़्ल देकर अख़बार में छपने भेज दिया जाता है।

दस-पाँच बार अख़बार में छपने से दफ़्तर का प्रशासन उनसे हल्ला बंद करने का अनुरोध करता है और इस एवज में उन्हें ताश खेलने की आधिकारिक अनुमति भी प्रदान करता है।

दफ़्तर के कष्टों का निवारण कर ये परोपकारी बन्दे अपने मुहल्लों की नालियों की दशा पर दुखी होने लगते हैं और हल्ले की चटाई बिछाते बिछाते नगर निगम के अहाते तक पहुँच जाते हैं। वहां कुछ पुराने हल्लेबाज़ उनके हल्ले की सरगम को पहचानकर उन्हें अहाते से उठा निगम की बेंच पर बैठा देते हैं। निगम से विधानसभा और विधानसभा से संसद तक पहुँचने के लिए भी हल्ला जारी रहता है। विकास का यह क्रम उस स्थिति में और भी द्रुत हो उठता है जब किसी समाचार चैनल से आधा घण्टा हल्ला करने का न्यौता आ जाता है।

शुरू-शुरू में चैनल पर हल्ला करने के लिए इन लोगों को अनिवार्य रूप से बुलाया जाता था लेकिन अब स्थितियाँ बदल गई हैं अब इन्हें चैनल पर बुलाया तो जाता है लेकिन ये दिखाने के लिए कि तुम लोग चुक गए हो। तुमसे ज़्यादा हल्ला तो हमारा संवाददाता कर लेता है। 

भूख की कराह कहीं आवाज़ न बन जाए इसलिए विदेश यात्राओं का हल्ला करो। ठन्डे चूल्हे की राख विस्फोट न कर दे इसलिए हिन्दू मुस्लिम का हल्ला करो। राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्न चिंघाड़ने न लगें इसलिए पुरस्कार वापसी का शोर उठा दो। 31 अक्टूबर को इंदिरा गांधी याद न आ जाए इसलिए स्वच्छता अभियान का हल्ला कर दो। गांधी की मूर्ति तोड़ने में कानून आड़े आता हो तो गोडसे का मंदिर बनाकर कानून की रीढ़ तोड़ दो। जहाँ 19 नवम्बर को कांग्रेस इंदिरा जी को नमन करे उसी पृष्ठ पर 19 नवंबर को विश्व शौचालय दिवस घोषित करवाने वाला विज्ञापन छपवा दो। मनमोहन सिंह को गाली देने के लिए जंतर मंतर पर हल्ला करो और लालू यादव के साथ गांधी मैदान पहुंचकर गले मिलो। कोई तुमसे जनलोकपाल बिल का हश्र न पूछ ले इसलिए केंद्र सरकार को गाली देते रहो। वो स्मृति ईरानी की डिग्री का हल्ला करें तो तुम तेजस्वी यादव और जितेन्द्र तोमर की शिक्षा का हंगामा कर दो। ख़बरों की रोटियां सिकती रहें इसलिए मुद्दों की आग भड़काए रखो। हल्ला, हंगामा, शोर, शराबा चलता रहना चाहिए। पहला हल्ला रुकने से पहले दूसरा हल्ला तैयार रखो। कुछ न मिले तो हो-हल्ले को चुप कराने का शोर उठा दो।
साथ ही एक गायक पकिस्तान से बुला लो जो बीच बीच में खरद में अलापता रहे- "हंगामा है क्यों बरपा.....।"

© चिराग़ जैन

Thursday, November 19, 2015

संतृप्ति

आपकी प्रीत जबसे सुलभ हो गई
फिर किसी मीत की आरज़ू ना रही
प्यार में हार कर जो मिला है मुझे
अब किसी जीत की आरज़ू ना रही

साँवरे के लिए गीत गाती फिरी
एक मीरा दीवानी कहाती फिरी
क्षण समर्पण का जब तक न हासिल हुआ
तब तलक हर नदी गुनगुनाती रही
राधिका कुंजवन में मिली श्याम से
फिर उसे गीत की आरज़ू ना रही

शब्द आँखों में आकर ठहरने लगे
भाव चेहरे की लाली में ढलने लगे
कण्ठ में जम गए ज्ञान के व्याकरण
अर्थ अधरों पे आकर पिघलने लगे
श्वास का राग धड़कन से ऐसा मिला
मुझको संगीत की आरज़ू ना रही

अबकी सावन मिलेगा तो पूछूंगी मैं
मेघ पहले क्यों ऐसे न लाया कभी
बिजलियों ने न इतना प्रफुल्लित किया
कोयलों ने न यूँ मन लुभाया कभी
मन के चातक ने कैसा अमिय चख लिया
अब उसे छींट की आरज़ू ना रही

© चिराग़ जैन

Saturday, November 14, 2015

पेरिस में आतंकी हमला

उत्सवों के मौसम में पेरिस की आबो-हवा आतंकी हमलों से विषैली हो गई। शुक्रवार की शाम वीकेंड की शुरुआत थी। सैंकड़ों बेगुनाह दहशतगर्दी के शिकार हुए।

आख़िर कब पूरी दुनिया एकजुट होकर इन मुट्ठी भर जाहिलों को क़ाबू करेगी। हम कब अपनी जातियों, सम्प्रदायों. भूगोलों, देशों, भाषाओँ से ऊपर उठकर मानवता के लिए एक होंगे।

जब किसी की मृत्यु की ख़बर आती है तो एक क्षण के लिए जीवन की आपाधापी व्यर्थ लगने लगती है। इसी तरह जब कहीं किसी आतंकवादी घटना का ज़िक्र आता है तो ये पुरस्कार वापसी, ये राज्यसभा का गणित, ये टीपू सुल्तान विवाद ... सब अनर्गल जान पड़ते हैं।

एक बार इंसान होकर सोचें तो शायद इंसानियत के इन दुश्मनों को समाप्त किया जा सके 



© चिराग़ जैन

Thursday, November 12, 2015

मोदी ...मोदी

मोदी जी नेपाल गए। लोगों ने नारे लगाए -"मोदी ...मोदी।" मोदी जी प्रसन्न हुए। मोदी जी अमरीका गए। लोगों ने नारे लगाए- "मोदी ...मोदी।" मोदी जी आत्मविश्वासी हो गए। मोदी जी जापान गए। लोगों ने नारे लगाए- "मोदी ..मोदी।" मोदी जी बेबाक़ हो गए। मोदी जी चीन गए। लोगों ने नारे लगाए- "मोदी ....मोदी।" मोदी जी ने विपक्षियों की बातें सुननी बंद कर दीं। मोदी जी जर्मनी गए। लोगों ने नारे लगाए- "मोदी ...मोदी। मोदी जी ने सबकी बात सुननी बंद कर दी। 

मोदी जी कश्मीर में परास्त हुए। लेकिन कानों में गूँजता रहा- "मोदी ...मोदी।" मोदी जी दिल्ली हार गए। लेकिन कानों में गूँजता रहा- "मोदी ...मोदी। मोदी जी बिहार में हारे तो भ्रम टूटा। चेहरा उतर गया। कान सुन्न हो गए। उनको आडवाणी जी की आवाज़ सुनाई दी। जोशी जी की बात पर उनका ध्यान गया। लेकिन आज मोदी जी ब्रिटेन पहुँच गए। लोगों ने फिर नारे लगाए- "मोदी... मोदी।" तभी मोबाईल पर किसी हितचिंतक ने फोन करके कहा- "भारत में आपकी लोकप्रियता कम हुई है।" मोदी जी ने ज़ोरदार अट्टहास किया। मोबाइल को हिक़ारत से स्विच ऑफ़ किया। और हाथ हिलाते हुए उनका अभिवादन करने लगे जो नारे लगा रहे थे- "मोदी ...मोदी।" 

© चिराग़ जैन

Monday, November 9, 2015

उजियारे के अवशेष

गाँव का
पुराना मकान
कच्चा-पक्का फ़र्श
दीमक लगी जर्जर चौखट
और
देहरी के दोनों ओर
चिकनाई के
दो गोल निशान!

मुद्दत हुई
हर साल
दीपावली पर
दीपक जलाते थे दो हाथ।

फिर
अपने पल्लू की ओट में छिपाकर
हवा के झोंके से बचाते हुए
दीवार की आड़ में
हौले से
देहरी पर
दो दीपक
धर आते थे दो हाथ।

न जाने क्यों
आज फिर से
जीवंत हो उठी है माँ!

© चिराग़ जैन

Saturday, November 7, 2015

विज्ञापन से पता चला

विज्ञापन से पता चला कि खली की अपनी बॉडी से उनका अपना घर टूट गया। उनको अपने अवार्ड वापस कर देने चाहिए थे। लेकिन उन्होंने अवॉर्ड वापस करने की बजाय अपनी मौसी से सलाह ली। अब वो अम्बुजा सीमेंट से घर बणवा के आराम से रह रहेहैं।
मुझे समझ नहीं आता कि इन सब पुरस्कार विजेताओं की कोई मौसी क्यों नहीं है। 

© चिराग़ जैन

मार्च फॉर इण्डिया

इस बीच राहुल गांधी ने मम्मी से पूछा है- "मम्मी मम्मी! बीजेपी 'मार्च फॉर इण्डिया' कर रही है तो आप 'अप्रैल फॉर इटली' क्यों नहीं करती?"
मम्मी माथा ठोकते हुए बोली- "मार्च-अप्रैल का तो पता नहीं पर तू एक दिन 'श्राद्ध फॉर कांग्रेस' ज़रूर करेगा।" 

© चिराग़ जैन

इसे कहते हैं बाज़ी

सियासत के एक खेमे ने कुछ कलाकारों को बटोरा ...सरकार का विरोध करने के लिए।
फिर सियासत के दूसरे खेमे ने कुछ कलाकारों को बटोरा ...कलाकारों का विरोध करने के लिए।
अब कुछ दिन हो-हल्ला होगा।
एक खेमे के कलाकार दूसरे खेमे के कलाकारों को गालियाँ देंगे। खूब शोर होगा। सोशल मीडिया पर खेमेबाज़ी होगी। जब माहौल खूब बिगड़ लेगा तो एक दिन टीवी चैनल पर दो बड़े दलों के राजनेता दुखी होते हुए बयान देंगे - "हमें बहुत दुःख है कि साहित्य और कला के क्षेत्र से जुड़े लोग आपस में इस तरह लड़ते-मरते हैं। अरे भाई! तुम कलाकार हो, सृजन करो, कविता लिखो, मनोरंजनकरो। राजनीति करना आपको शोभा नहीं देता।" 

© चिराग़ जैन

धनतेरस का दीया

‘सुन!
धनतेरस का दीया
जोड़ रही हूँ।
ध्यान रखियो
बाहर मत आइयो।’

-कहते हुए
हर साल
धनतेरस पर
दीपक बालती थी माँ।

अगली सुबह
चुरा लेता था मैं 
उस दीये के
तेल में भीगा रुपैया।

‘क्यों रे
ये दीये में से
सवाया किसने उठाया’

‘मुझे नहीं पता मम्मी
मैंने तो
दीया ही नहीं देखा
आपने ही तो कहा था
अंदर रहने को।’

मेरा धनतेरस तो
शुभ ही रहता था
लेकिन
माथे में त्यौरियाँ डाले
देर तक
बड़बड़ाती थी माँ!

आज दीवाली के लिए
फूल लेने बाहर निकला
किसी की चैखट पर
दीया रखा था
धनतेरस का
पाँच रुपैये भी थे उसमें
तेल में भीगे हुए।

...किसी ने
चुराए ही नहीं अब तक।

जी तो बहुत किया
चुराने का
लेकिन छोड़ आया
...उस बड़बड़ को मिस करूंगा!

© चिराग़ जैन