‘सुन!
धनतेरस का दीया
जोड़ रही हूँ।
ध्यान रखियो
बाहर मत आइयो।’
-कहते हुए
हर साल
धनतेरस पर
दीपक बालती थी माँ।
अगली सुबह
चुरा लेता था मैं
उस दीये के
तेल में भीगा रुपैया।
‘क्यों रे
ये दीये में से
सवाया किसने उठाया’
‘मुझे नहीं पता मम्मी
मैंने तो
दीया ही नहीं देखा
आपने ही तो कहा था
अंदर रहने को।’
मेरा धनतेरस तो
शुभ ही रहता था
लेकिन
माथे में त्यौरियाँ डाले
देर तक
बड़बड़ाती थी माँ!
आज दीवाली के लिए
फूल लेने बाहर निकला
किसी की चैखट पर
दीया रखा था
धनतेरस का
पाँच रुपैये भी थे उसमें
तेल में भीगे हुए।
...किसी ने
चुराए ही नहीं अब तक।
जी तो बहुत किया
चुराने का
लेकिन छोड़ आया
...उस बड़बड़ को मिस करूंगा!
© चिराग़ जैन
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