जाटों के उपद्रव को 'आंदोलन' कहकर मिडिया भी कम नुक़सान नहीं कर रहा। मैं सरकार से गुर्जरों, जाटों और पटेलों को नौकरियों में आरक्षण देने की मांग करते हुए अपेक्षा करता हूँ कि इनसे तब तक "बिना वेतन नौकरी" करवाई जाए जब तक इनके उपद्रवों से हुए नुक़सान की भरपाई न हो जाए।
जेएनयू में कुछ लोगों ने भारत की बर्बादी के नारे लगाए। हरियाणा में कुछ लोगों ने जनता की संपत्ति को बर्बाद किया। पम्पोर में आतंकियों से निपटने को सेना सक्रिय। हरियाणा में जाट उपद्रवियों से निपटने के लिए सेना सक्रिय। क्या इन ख़बरों में कुछ साम्य है? क्या राष्ट्रद्रोह और आतंकवाद जैसे शब्दों की पुनर्व्याख्या नहीं होनी चाहिए? हिंसा और अराजकता किसी भी स्थिति में किसी भी तंत्र के सुचारू रहने में सहायक नहीं हो सकती।
मांग क्या है, इससे ज़्यादा बड़ा प्रश्न यह हो गया है कि मांगने का तरीका क्या है। पीने का पानी रोकने जैसी घटना ने बर्बरता का वह अमानवीय चेहरा प्रस्तुत किया है जिससे कम से कम अपनत्व तो महसूस नहीं किया जा सकता।
आरक्षण का कटोरा उठाकर अधिकारों की बात करने वाली जातियों के भीतर की ग्रन्थियां स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। यदि अपनी जायज़/नाजायज़ मांगें मनवाने के लिए अराजक हो जाना तर्कसंगत होता तो मानवीय समाज में सभ्यता और शांति कीआकांक्षा रखने वाले पुरखे अपराधी हो गए होते।
जातीय विभेद और बाहुबल की दुहाइयाँ देकर लाठी भांजने की परम्पराओं ने कई सद्दामों और गद्दाफियों को धूल चटाई है। संविधान के अधिकारों की माला जपने वाले यह न भूलें किसंविधान में कर्तव्यों का भी ज़िक्र है। स्वार्थों की जठराग्नि यदि राष्ट्रबोध और बहुजनहिताय के संस्कारों को पचाने में सक्षम हो जाए तो आपके अस्तित्व को लीलने में भी वह संकोच न करेगी।
© चिराग़ जैन
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