Friday, April 22, 2016

मुफ्तख़ोरी

हर बार इन्हें मुफ्त के सपने न दिखा तू
इक बाद बदल डाल ये किस्मत का लिखा तू
ये मुफ्तख़ोरी देश को बर्बाद न कर दे
ऐ राजनीति इनको कमाना भी सिखा तू

✍️ चिराग़ जैन

Sunday, April 17, 2016

लूट का तंत्र न तोड़ो साहिब

दिल्ली के ऑटो-टैक्सी वालों ने सरकार को बताया है कि हम जो सदियों से जनता को लूटते रहे हैं, मीटर से चलने से इनकार करते रहे हैं, तीन-चार गुना से लेकर दस-बारह गुना तक किराया मांगते रहे हैं, मीटर से चलने की मांग करने वालों को गाली बकते रहे हैं, पुलिस का डर दिखाने वालों की खिल्ली उड़ाते रहे हैं; ये सारी परंपराएं ओला और ऊबर जैसे आधुनिक और पाश्चात्य सभ्यता से प्रेरित ऑपरेटर्स ने बंद करवा दी हैं। जो आम आदमी ऑटो तक को हाथ देने से डरता था वो अब झटाक से ऊबर-ओला कैब बुलाने लगा है। इनके कारण हमें नदिरेस्टे, पुदिरेस्टे, हनिमुरेस्टे और हवाई अड्डे पर थके हारे मुसाफिरों से मनमानी करने का अवसर नहीं मिल पा रहा है। इस पाश्चात्य सेवा ने हमारी पुरातन परम्पराओं पर ताला डाल दिया है। हमारी खड़-खड़ करती नॉन एसी गाड़ियों के काले पीले रंग को चमचमाती नई एसी गाड़ियों ने कहीं का नहीं छोड़ा। जनता को लूट कर हम रोज़ शाम महफ़िल जमाते थे लेकिन अब दो वक़्त की रोटी भी नसीब नहीं हो रही।

इस वेल मैनेज्ड सर्विस को तुरंत बंद नहीं किया गया तो हम हड़ताल कर देंगे।

सरकार बोली- लेकिन तुम तो बोल रहे हो कि तुम्हारे धंधे पर आलरेडी ताला पड़ गया है, फिर उसी कुंडे में हड़ताल वाला ताला कैसे डाला जा सकता है।

सुनकर यूनियन वाले रोने लगे। बोले सरकार आप इन सेवाओं को बंद करवा दो तो हम कानून का पालन करने को तैयार हैं।

सरकार बोली- लेकिन कानून तो पहले भी था जिसे तुम धड़ल्ले से चीथड़े करते रहे हो।

यूनियन बोली- तो आप जनता को कोई हेल्पलाइन दे दीजिये जिस पर हमारी मनमानी की कंप्लेंट की जा सके।

सरकार बोली- उस पर कंप्लेंट करने वालों को तुम पीटने लगते हो।

यूनियन बोली- अब नहीं पीटेंगे माई बाप।

सरकार फिर बोली- अगर तुम ईमानदारी से चलो तो तुम वैसे ही उबर ओला को पछाड़ दोगे, फिर इन्हें बंद क्यों किया जाए।

अब यूनियन वाले हँसते हुए बोले- हुकुम, आप तो जानते ही हो सवारी देखकर थोड़े पैसे कमाने का लालच जाग जाता है, आखिर हमारे भी बाल बच्चे हैं।

बाल बच्चों की बात पर सरकार भावुक हो गई। बोली चलो कल से उबर ओला की धरपकड़ शुरू करवा देंगे। तुम अपनी पुरानी टैक्सियों के मीटर की ओइलिंग करवा लो।

यूनियन वाले ख़ुशी ख़ुशी सचिवालय से बाहर आए। बाहर आते ही उस ओला को हिक़ारत से देखा जिस में बैठ कर सचिवालय आए थे। फिर एक कपडा निकाला और अपनी गाड़ी की धूल ओला की गाडी पर उड़ाते हुए जनपथ को रौंदते हुए दौड़ गए। ओला की गाडी फुटपाथ पर चिलम फूंकते "जनहित" नामक नागा के बराबर में खडी होकर अपना कलेजा जलाने लगी। 

© चिराग़ जैन

Friday, April 8, 2016

ऐसा संवत्सर आया है

ऐसा संवत्सर आया है
बूढ़ा अमुवा बौराया है
छोटी छोटी कैरी आई
झड़बेरी पर बेरी आई
शहतूतों का रंग लाल हुआ
सहजण का पेड़ कमाल हुआ
गेंदा फूला, गुडहल फूला
चिड़ियों ने फिर झूला झूला
पीपल पर कोंपल नई नई
पिलखन पर चिड़िया कई कई
नम हुए सूखते हुए सोत
झूमे तोते, झूमे कपोत
ककड़ी का हरियाला मौसम
आया खीरों वाला मौसम
खरबूजे की मीठी सुवास
तरबूज सजे हैं आसपास
कांजी, नीबू, जलजीरा भी
आम्बी का पना, कतीरा भी
लस्सी, शर्बत, सत्तू, मट्ठा
चुस्की, कुल्फी, चटनी चट्टा
नुक्कड़ पर प्याऊ की मढ़िया
अमराई में बैठक बढ़िया
पिकनिक का मूड बनाया है
छुट्टी से मन हर्षाया है
ऐसा संवत्सर आया है

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 5, 2016

एकाकी

सिर्फ दिखावे भर के सारे उत्सव मेले हैं
सब अपने-अपने जीवन में निपट अकेले हैं

अपनेपन का नाम सुना है, शक्ल नहीं देखी
रिश्तों पर मिटने वालों की नस्ल नहीं देखी
बाहर से ख़ुश हैं पर भीतर बहुत झमेले हैं

वैभवशाली दिखने की इक होड़ लगी है रे
जर्जरता भी बाहर से बेजोड़ लगी है रे
हीरे बनकर घूम रहे मिट्टी के ढेले हैं

बेमतलब की प्रीत, ठिठोली पीछे छूट गई
मन से मन तक जाने वाली डोरी टूट गई
कौन बताए किसको किसने क्या दुःख झेले हैं

जिनसे अपनापन चाहा उनसे सम्मान मिला
संबंधों की नब्ज़ छुई तो मन बेजान मिला
वाणी पर है शहद दिलों में सिर्फ करेले हैं

क्या संबंधों वाले सारे किस्से झूठे थे
या सचमुच पिछली पीढ़ी के लोग अनूठे थे
क्या अब भी दुनिया में वैसे कुछ अलबेले हैं

© चिराग़ जैन

Saturday, April 2, 2016

खूबसूरत ज़िन्दगी का दर्दनाक अंत

सफलता के पथ पर एक प्रेत रहता है, जिसका नाम है अवसाद। इसकी पकड़ बहुत मज़बूत है। मुस्कुराहटों और खिलखिलाहटों की महफ़िल से छिटक कर अचानक एकाकी हो गए लोगों पर यह सामने से हमला करता है।

सफलता के पथ का पथिक जब व्यावसायिक सफलता और व्यक्तिगत चुनौतियों के बीच झूल रहा होता है तब न जाने किस बिंदु पर यह प्रेत उसे ऐसा अड़ंगा देता है कि यदि संभला न जाए तो प्राण संकट में पड़ जाएं। इसी बिंदु पर अक्सर मृत्यु के कष्ट, जीवन की चुनौती से सरल जान पड़ते होंगे। इसी आयाम पर मर जाना, जी लेने से सहज लगता होगा। यहीं आकर जिजीविषा के अस्त्र हताशा के पाश से परास्त हो जाते होंगे।

सृजन और कला से विभक्त होकर जब क्लेश और तनाव की अंधी खोह में गिरना पड़े तो चेतन मस्तिष्क शून्य हो जाता होगा। उस क्षण में दैहिक कष्ट की तुलना में मानसिक पीड़ा बड़ी हो जाती होगी।

प्रत्यूषा और ज़िया खान जैसी प्रतिभाएं ऐसे ही किसी क्षण पर अवसाद के प्रेत की शिकार हुई होंगी। उसकी सफलता और उसके भीतर के कलाकार के लिए क्लेश अथवा तनाव झेलना असंभव हो गया होगा। स्टूडियो की फोकस लाइट से निकल कर स्वयं के साथ अनावश्यक तनाव के गहन अँधेरे उसकी बर्दाश्त से बाहर हो गए होंगे।

कला और सृजन पारलौकिक विधाएँ हैं। इनसे जुड़े हर शख़्स में एक फ़क़ीर वास करता है। उस फकीर को दुनियादारी के अनावश्यक झगड़ों से दूर रखा जाना चाहिए। उसका समाज में रहने का तरीका अलग लेकिन उत्तरदायित्वपूर्ण होता है। उसे उसके तरीके से दुनिया को बेहतरी की ओर ले जाने दिया जाना चाहिए। उसे सृजन से पृथक करना उसकी राह में काँटे बोने जैसा है।

प्रत्यूषा ने सही किया या ग़लत ये मैं नहीं जानता लेकिन एक कलाकार होने के नाते इतना अवश्य जानता हूँ कि उसकी परिस्थितियां उसके साथ सही नहीं कर रही थीं, वरना इतनी खूबसूरत ज़िन्दगी का ऐसा दर्दनाक अंत कौन कोमलहृदयी कर सकेगा! 

© चिराग़ जैन

Ref : Suicide of Pratyusha Mukarji