Tuesday, April 5, 2016

एकाकी

सिर्फ दिखावे भर के सारे उत्सव मेले हैं
सब अपने-अपने जीवन में निपट अकेले हैं

अपनेपन का नाम सुना है, शक्ल नहीं देखी
रिश्तों पर मिटने वालों की नस्ल नहीं देखी
बाहर से ख़ुश हैं पर भीतर बहुत झमेले हैं

वैभवशाली दिखने की इक होड़ लगी है रे
जर्जरता भी बाहर से बेजोड़ लगी है रे
हीरे बनकर घूम रहे मिट्टी के ढेले हैं

बेमतलब की प्रीत, ठिठोली पीछे छूट गई
मन से मन तक जाने वाली डोरी टूट गई
कौन बताए किसको किसने क्या दुःख झेले हैं

जिनसे अपनापन चाहा उनसे सम्मान मिला
संबंधों की नब्ज़ छुई तो मन बेजान मिला
वाणी पर है शहद दिलों में सिर्फ करेले हैं

क्या संबंधों वाले सारे किस्से झूठे थे
या सचमुच पिछली पीढ़ी के लोग अनूठे थे
क्या अब भी दुनिया में वैसे कुछ अलबेले हैं

© चिराग़ जैन

No comments:

Post a Comment