आओ अपने घर में सूरज का इक अंश उठा लाएँ
आओ जीवन के अंधियारे का विध्वंस उठा लाएँ
जिस सूरज की स्वर्णिम किरणें धरती को दमकाती हैं
जिस ऊर्जा से पोषित होकर सब फसलें लहराती हैं
उस सूरज की एक किरण का जगमग वंश उठा लाएं
जो सूरज की ऊर्जा वैदिक मंत्रों में ढल सकती है
वो ऊर्जा घर के भीतर बिजली बनकर जल सकती है
यंत्रों के इस मानसरोवर का इक हंस उठा लाएं
ये ऊर्जा मानवता के हित ईश्वर का उपहार सखे
इस पर कुछ अवरोध नहीं ना सिस्टम ना सरकार सखे
बिजली के उस इंतज़ार का सार्थक ध्वंस उठा लाएं
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Thursday, May 25, 2017
सौर ऊर्जा
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Tuesday, May 16, 2017
फिर आया सूरज
दिन भर आग बबूला होकर
दम्भ दहक का बोझा ढोकर
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने
नदिया की कलकल धारा से शीतलता पाने
मरना देखा, जीना देखा
सबका दामन झीना देखा
दौलत के सिर छाया देखी
श्रम के माथ पसीना देखा
रूप गया क़िस्मत के द्वारे, दो रोटी खाने
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने
भोर भये मैं सबको भाया
सांझ ढले जग ने बिसराया
दोपहरी में कोई मुझको
आँख उठा कर देख न पाया
जिसने इस जग को गरियाया, जग उसको जाने
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने
चंदा डूबा दूर हुआ था
मैं अम्बर का नूर हुआ था
शाम हुई फिर चाँद उगा तो
मान तड़क कर चूर हुआ था
ढलते की सुधि छोड़ चले सब, उगते को माने
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने
© चिराग़ जैन
दम्भ दहक का बोझा ढोकर
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने
नदिया की कलकल धारा से शीतलता पाने
मरना देखा, जीना देखा
सबका दामन झीना देखा
दौलत के सिर छाया देखी
श्रम के माथ पसीना देखा
रूप गया क़िस्मत के द्वारे, दो रोटी खाने
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने
भोर भये मैं सबको भाया
सांझ ढले जग ने बिसराया
दोपहरी में कोई मुझको
आँख उठा कर देख न पाया
जिसने इस जग को गरियाया, जग उसको जाने
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने
चंदा डूबा दूर हुआ था
मैं अम्बर का नूर हुआ था
शाम हुई फिर चाँद उगा तो
मान तड़क कर चूर हुआ था
ढलते की सुधि छोड़ चले सब, उगते को माने
सांझ ढले फिर आया सूरज दो पल बतियाने
© चिराग़ जैन
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Thursday, May 11, 2017
हिन्दी पढ़ने वाली लड़की
हिंदी पढ़ने वाली लड़की
हिंदी पढ़ने वाली लड़की
सीधी-सादी, सहज-सलोनी, कभी न तड़की-भड़की
बातों का भावार्थ समझ लेती है वो झटपट से
उसके सरल वाक्य अपराजित रहते सदा कपट से
स्वाद बढ़ाते हैं बातों का उसके बोले व्यंजन
देवनागरी की अक्षर लिपटे रहते हैं लट से
अनुपम है अनुभूति भाव की
सक्षम है अभिव्यक्ति भाव की
कविता पढ़-पढ़ स्वयं हो गई कविता किसी सुगढ़ की
नियम छोड़ कर रोमन हो गई हैं जब शीला-मुन्नी
ऐसे में भी उसे सुहाए शिरोरेख सी चुन्नी
भीतर-बाहर एक सरीखी उसकी जीवनचर्या
ना कठोर, ना जटिल, न दूभर, ना अभद्र, ना घुन्नी
वो इक रोचक उपन्यास है
वो उत्सव का अनुप्रास है
शायद वो है किसी निराले कवि की बिटिया बड़की
उसको है आभास सभी की लघुता-गुरुता द्वय का
उसे पता है अर्थ शब्द संग अलंकार परिणय का
छंद भंग हों संबंधों के यह संभव कब उससे
ध्यान हमेशा रखती है वो यति-गति का सुर-लय का
कभी अकड़ है पूर्णछन्द सी
कभी रबड है मुक्तछन्द सी
भाषा से सीखी हैं उसने सब बातें रोकड़ की
नवरस की अनवरत साधना उसका धर्म ग़ज़ब है
भाषा से अनुराग उसे जो है, अन्यत्र अलभ है
मात्र भंगिमा के बल पर वह श्लेष साध लेती है
उसे यमाताराजभानसलगा से फुर्सत कब है
हीरामन-होरी से परिचित
हर गौरा-गोरी से परिचित
उसने कंधों से समझी है पावनता काँवड़ की
© चिराग़ जैन
हिंदी पढ़ने वाली लड़की
सीधी-सादी, सहज-सलोनी, कभी न तड़की-भड़की
बातों का भावार्थ समझ लेती है वो झटपट से
उसके सरल वाक्य अपराजित रहते सदा कपट से
स्वाद बढ़ाते हैं बातों का उसके बोले व्यंजन
देवनागरी की अक्षर लिपटे रहते हैं लट से
अनुपम है अनुभूति भाव की
सक्षम है अभिव्यक्ति भाव की
कविता पढ़-पढ़ स्वयं हो गई कविता किसी सुगढ़ की
नियम छोड़ कर रोमन हो गई हैं जब शीला-मुन्नी
ऐसे में भी उसे सुहाए शिरोरेख सी चुन्नी
भीतर-बाहर एक सरीखी उसकी जीवनचर्या
ना कठोर, ना जटिल, न दूभर, ना अभद्र, ना घुन्नी
वो इक रोचक उपन्यास है
वो उत्सव का अनुप्रास है
शायद वो है किसी निराले कवि की बिटिया बड़की
उसको है आभास सभी की लघुता-गुरुता द्वय का
उसे पता है अर्थ शब्द संग अलंकार परिणय का
छंद भंग हों संबंधों के यह संभव कब उससे
ध्यान हमेशा रखती है वो यति-गति का सुर-लय का
कभी अकड़ है पूर्णछन्द सी
कभी रबड है मुक्तछन्द सी
भाषा से सीखी हैं उसने सब बातें रोकड़ की
नवरस की अनवरत साधना उसका धर्म ग़ज़ब है
भाषा से अनुराग उसे जो है, अन्यत्र अलभ है
मात्र भंगिमा के बल पर वह श्लेष साध लेती है
उसे यमाताराजभानसलगा से फुर्सत कब है
हीरामन-होरी से परिचित
हर गौरा-गोरी से परिचित
उसने कंधों से समझी है पावनता काँवड़ की
© चिराग़ जैन
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Wednesday, May 10, 2017
दीवारों की दरकन
तर्क-वितर्क से किसी समस्या का समाधान न निकले तो व्यक्ति अक्सर मौन हो जाता है। किन्तु मौन की इस अंतर्मुखी अवस्था में भी मन में वैचारिक घमासान बना रहता है और एक स्थिति यह आ जाती है कि मौन अनायास ही चीखने लगता है। बस इसी स्थिति की देहरी पर खड़ा एक गीत प्रस्तुत है :
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को
तिनका-तिनका मन जोड़ा था, तब जाकर ये नीड़ सजा था
श्वासों में सुर-ताल सधे थे, तब मधुरिम संगीत बजा था
रोज़ बिखरते देख रहा हूँ, स्वप्न सुधा के इक-इक कण को
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को
एक शिरा के बहकावे में, दिल की धड़कन ऊब गई है
देह पहेली बूझ न पाए, श्वास भला क्यों डूब गई है
केवल एक घुटन ने घेरा, जर्जर तन को, पीड़ित मन को
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को
दलदल ने डेरा डाला तो, कँवलों से यह ताल सजाया
इक दिन दलदल ने बेचारे, कँवलों को जंजाल बताया
बांझ धरा ने जी भर कोसा, मौसम के पहले सावन को
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को
© चिराग़ जैन
Friday, May 5, 2017
गुनगुनाते रहो
जो मिले बस उसे ही निभाते रहो
वक़्त के साज पर गुनगुनाते रहो
सुख मिले तो ख़ुशी के तराने रचो
दुख मिले दर्द के गीत गाते रहो
दर्द हद से गुज़रने लगे जिस घड़ी
उस घड़ी लेखनी से शरण मांग लो
और टूटे हुए स्वप्न को बीनकर
शब्द से काव्य की सीपियाँ टाँक लो
भाग्य जब दर्द से आज़माए तुम्हें
तुम सृजन कर उसे जगमगाते रहो
क्या मिला, क्या अचानक पराया हुआ
इन सवालों का दामन नहीं थामना
जब कभी धड़कनों में विकलता बढ़े
ताल की चाल जैसा उसे साधना
अश्रुओं को रसों में अनूदित करो
और फिर देर तक मुस्कुराते रहो
एक दिन जब कथा मौन हो जाएगी
गीत ही ये कहानी पुनः गाएगा
तुम समर्पित हुए प्रीति की राह पर
पीढ़ियों को यही बात बतलाएगा
तुम सदा स्वार्थ के लोभ से हीन थे
इस अकथ की गवाही बनाते रहो
तुम अगर चाह लो पीर से टूटकर
जीवनी शक्तियों का अनादर करो
तुम अगर चाह लो दर्द की भेंट का
बाँह फैलाए सत्कार सादर करो
तुम अगर चाह लो छटपटाते रहो
तुम अगर चाह लो जग सजाते रहो
© चिराग़ जैन
वक़्त के साज पर गुनगुनाते रहो
सुख मिले तो ख़ुशी के तराने रचो
दुख मिले दर्द के गीत गाते रहो
दर्द हद से गुज़रने लगे जिस घड़ी
उस घड़ी लेखनी से शरण मांग लो
और टूटे हुए स्वप्न को बीनकर
शब्द से काव्य की सीपियाँ टाँक लो
भाग्य जब दर्द से आज़माए तुम्हें
तुम सृजन कर उसे जगमगाते रहो
क्या मिला, क्या अचानक पराया हुआ
इन सवालों का दामन नहीं थामना
जब कभी धड़कनों में विकलता बढ़े
ताल की चाल जैसा उसे साधना
अश्रुओं को रसों में अनूदित करो
और फिर देर तक मुस्कुराते रहो
एक दिन जब कथा मौन हो जाएगी
गीत ही ये कहानी पुनः गाएगा
तुम समर्पित हुए प्रीति की राह पर
पीढ़ियों को यही बात बतलाएगा
तुम सदा स्वार्थ के लोभ से हीन थे
इस अकथ की गवाही बनाते रहो
तुम अगर चाह लो पीर से टूटकर
जीवनी शक्तियों का अनादर करो
तुम अगर चाह लो दर्द की भेंट का
बाँह फैलाए सत्कार सादर करो
तुम अगर चाह लो छटपटाते रहो
तुम अगर चाह लो जग सजाते रहो
© चिराग़ जैन
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Monday, May 1, 2017
सुधार
आप इस नाराज़गी की फिक्र करना छोड़ भी दो
मैं अब अपनी चाहतों को डाँट कर बहला रहा हूँ
ये सही है, मैं हठी होने लगा हूँ बालकों सा
किन्तु हठ को आपकी अनुमति मिले, निश्चित नहीं है
मैं न जाने कौन सा अधिकार अनुभव कर रहा हूँ
आपकी इस भाव को स्वीकृति मिले, निश्चित नहीं है
आप मेरी अनुनयों के साथ जो जी चाहे कीजे
मैं प्रणय की प्रार्थना को साध कर टहला रहा हूँ
एक जंगल काटकर निकला नगर निर्माण करने
किन्तु उस वन की किसी शाखा ने अपनापन जताया
किस तरह उसको कुचल कर भूमि को श्रीहीन कर दूँ
जिस लचकती डाल पर मैं मन समूचा टाँक आया
लक्ष्य का संधान करने के समय है मोह शर से
मैं कदाचित् इस तरह का आदमी पहला रहा हूँ
© चिराग़ जैन
मैं अब अपनी चाहतों को डाँट कर बहला रहा हूँ
ये सही है, मैं हठी होने लगा हूँ बालकों सा
किन्तु हठ को आपकी अनुमति मिले, निश्चित नहीं है
मैं न जाने कौन सा अधिकार अनुभव कर रहा हूँ
आपकी इस भाव को स्वीकृति मिले, निश्चित नहीं है
आप मेरी अनुनयों के साथ जो जी चाहे कीजे
मैं प्रणय की प्रार्थना को साध कर टहला रहा हूँ
एक जंगल काटकर निकला नगर निर्माण करने
किन्तु उस वन की किसी शाखा ने अपनापन जताया
किस तरह उसको कुचल कर भूमि को श्रीहीन कर दूँ
जिस लचकती डाल पर मैं मन समूचा टाँक आया
लक्ष्य का संधान करने के समय है मोह शर से
मैं कदाचित् इस तरह का आदमी पहला रहा हूँ
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