Wednesday, May 10, 2017

दीवारों की दरकन

तर्क-वितर्क से किसी समस्या का समाधान न निकले तो व्यक्ति अक्सर मौन हो जाता है। किन्तु मौन की इस अंतर्मुखी अवस्था में भी मन में वैचारिक घमासान बना रहता है और एक स्थिति यह आ जाती है कि मौन अनायास ही चीखने लगता है। बस इसी स्थिति की देहरी पर खड़ा एक गीत प्रस्तुत है :

कैसे मैं अनदेखा कर दूं संबंधों के नित्य क्षरण को
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को

तिनका-तिनका मन जोड़ा था, तब जाकर ये नीड़ सजा था
श्वासों में सुर-ताल सधे थे, तब मधुरिम संगीत बजा था
रोज़ बिखरते देख रहा हूँ, स्वप्न सुधा के इक-इक कण को
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को

एक शिरा के बहकावे में, दिल की धड़कन ऊब गई है
देह पहेली बूझ न पाए, श्वास भला क्यों डूब गई है
केवल एक घुटन ने घेरा, जर्जर तन को, पीड़ित मन को
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को

दलदल ने डेरा डाला तो, कँवलों से यह ताल सजाया
इक दिन दलदल ने बेचारे, कँवलों को जंजाल बताया
बांझ धरा ने जी भर कोसा, मौसम के पहले सावन को
कंगूरों से कब तक ढाँपूँ इन दीवारों की दरकन को

© चिराग़ जैन

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