Monday, November 27, 2017

सरकारी दफ्तर में काम

किसी सरकारी दफ़्तर में काम अटक जाये तो हर भारतीय के पास दो विकल्प होते हैं। पहला, वह ईमानदारी की लड़ाई लड़े और अपने सब काम-धंधे छोड़कर अधिकारियों, थानों, अदालतों, मीडिया और विजिलेंस के चक्कर लगाने शुरू कर दे। इस प्रक्रिया में काफ़ी परेशानी और ज़िल्लत उठाने के बाद अंततः यह पता चलता है कि जिस क्लर्क अथवा विभाग ने आपके आवेदन पर कार्य शुरू किया था, उसने ज़िम्मेदारी से काम नहीं किया इसलिए एक ज़िम्मेदार ईमानदार करदाता को महज कुछ वर्षों की परेशानी उठानी पड़ी। अंत में किसी पिछले जन्म के पुण्य के उदय से आपको हुई परेशानी के लिये खेद जताते हुए आपका कार्य सम्पन्न करने के आदेश जारी हो जाते हैं और उसी क्लर्क की चिढ़ी हुई शक्ल के अंतिम दर्शन करके आप अपना मनोरथ पूर्ण कर लेते हैं।
दूसरा विकल्प यह है कि आप किसी मंत्री, अधिकारी अथवा दलाल को नए नोट या अपना सामाजिक रुतबा दिखाकर वह काम करवा लें। 
दूसरे वाले विकल्प का प्रयोग करनेवाले लोग सामान्य भाषा में जुगाड़ू और न्यायिक शब्दावली में भ्रष्टाचारी कहलाते हैं। जबकि पहले विकल्प का प्रयोग करनेवाले लोग अदालतों और अधिकारियों की दृष्टि में ईमानदार लेकिन अपने परिवार, यार-दोस्तों, रिश्तेदारों और परिचितों की दृष्टि में सनकी, झक्की और मूर्ख कहलाते हैं। 
स्वतंत्र भारत में हमें जनहित में एक ऐसा तंत्र मुहैया कराया गया है, जिसमें कोई भी नागरिक किसी काम को हल्के में नहीं ले सकता। सहजता से मिलनेवाली चीज़ का मोल कम हो जाता है; इसी उक्ति को ध्यान में रखकर हमें कोई भी इच्छापूर्ति के लिए बाक़ायदा तपस्या करवाई जाती है। भारत देश के लोग ईश्वर को भूल न जाएँ, इसलिए हमें हर टेबल पर इतनी जटिलताओं में उलझाया जाता है कि क़दम-क़दम पर ईश्वर का स्मरण बना रहे।
हर सरकारी दफ़्तर उस सुरसा की भूमिका में मुँह बाए बैठा है कि जैसे ही कोई जीव उसके आगे से गुज़रे तो वह उसकी तरक्की की परछाई को पकड़ ले। यदा-कदा कोई बजरंगी सुरसा के विशालकाय मुँह में एप्रोच का जीरा डालकर ख़ुद को मुक्त करा ले, तो यह उसकी व्यक्तिगत करामात है।
देश के विकास की फाइलें ऐसे ही दफ़्तरों की किसी कतार में चप्पल घिस रही है और उसे अनावश्यक औपचारिकताओं में उलझाकर घर लौटता हर सरकारी बाबू सरकारी बस में लटकते हुए झल्लाकर कहता है- ‘कुछ नहीं हो सकता इस देश का।’ 

© चिराग़ जैन

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