हालांकि फिल्म का प्रचार एक हॉरर-कॉमेडी की तरह किया जा रहा है, और फ़िल्म में ये दोनों रंग बख़ूबी भरे भी गए हैं, लेकिन फिल्मकार ने चुपके से स्त्री की वर्तमान परिस्थितियों का संदेश भी इन रंगों में मिला दिया है।
फ़िल्म में नायक राजकुमार राव ने एक संवाद बोला है- "हमारा सामना एक ऐसी चुड़ैल से है जो पढ़ी-लिखी है, और आज्ञाकारी भी है। हम अपनी पर आ जाएं तो इससे जो चाहे करा सकते हैं।" बस यही संवाद स्त्री की सामाजिक स्थिति का संपूर्ण ग्रंथ है। स्त्री की स्थिति आज भी ठीक पहले जैसी ही है। बस अंतर आया है तो सिर्फ़ इतना कि पहले जब वह पढ़ी लिखी नहीं थी तो पुरुष उसे मार-पीट कर अपनी मनमानी करता था और आज जब वह पढ़-लिख गई है तो हम सभ्यता से दीवार पर लिख देते हैं- "ओ स्त्री कल आना"; बस इसे पढ़कर सदियों से आज्ञाकारी रही स्त्री कल का इंतज़ार करने लगती है, और पुरुष उसे टरका कर अपने जश्न में मशगूल हो जाता है।
फ़िल्म के एक दृश्य में चौकीदार रात में पहरा देते हुए पुरुष प्रधान समाज पर एक और तीखा प्रहार करते हुए आवाज़ लगाता है -"ओ स्त्री, मत आना! इस शहर में कोई मर्द नहीं है।" यह एक वाक्य समाज की अंतरात्मा को झखझोरने वाला वाक्य है। पुरुष को मर्दानगी के वास्तविक मआनी बताने वाला महामंत्र है यह वाक्य। स्त्री की अपेक्षाओं के समक्ष पुरुष की दुर्बलता का तमाचा है यह एक वाक्य।
फ़िल्म में श्रद्धा कपूर स्त्री सशक्तिकरण के अभियानों पर व्यंग्य करते हुए कहती है कि- "स्त्री अपने घर में बहुत शक्तिशाली होती है, उसे घर से बाहर लाओ, फिर मारो।" अद्भुत कटाक्ष है यह। समाज में नारी को उसकी भूमिका निर्वाह करने से रोककर उसे अर्थोपार्जन की मशीन बना देने के कुत्सित षड्यंत्रों पर कुठाराघात किया है इस संवाद ने।
स्त्री के स्त्रीत्व को भी फिल्मकार ने बख़ूबी समाहित किया है। "स्त्री की शक्ति उसकी चोटी में है, चोटी काट दो तो वह मरेगी नहीं लेकिन कुछ कर नहीं पाएगी।" यह वाक्य स्त्री से उसका स्त्रीत्व छीन लेने की कहानी कहता है।
स्त्री के मन को स्वर देते हुए फ़िल्म कहती है कि "आज तक इस शहर ने उसे दो चीज़ें नहीं दी, एक प्यार और दूसरी इज़्ज़त। वह इन्हीं दो चीज़ों की भूखी है।" यह बात समझ कर फिल्मकार ने पुनः एक करारा कटाक्ष करते हुए दिखाया कि पुरुषों ने एक इबारत लिखकर आज की पढ़ी-लिखी स्त्री से अपनी मनमानी करवा ली और लिखवा दिया "ओ स्त्री रक्षा करो"। यहाँ यह फ़िल्म समाप्त हो जाती है क्योंकि समाज आश्वस्त है कि इस वाक्य को पढ़कर स्त्री समाज की रक्षा करने लगेगी।
फ़िल्म के निर्माता की सोच को प्रणाम करने का दिल करता है। साथ ही दर्शकों की समझ पर मन भर आता है कि जिन संवादों का ज़िक्र मैंने ऊपर किया था उन सब पर हॉल में ठहाके गूंज रहे थे।
© चिराग़ जैन
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