Sunday, October 21, 2018

लक्ष्मण-मूर्च्छा

सौमित्र पड़े बेसुध भू पर, वीरों का अन्तस बैठ गया
वानर कोलाहलहीन हुए, रण में सन्नाटा पैंठ गया
बिन शेषनाग धरती ठहरी, वृक्षों का तन निस्पन्द हुआ
नभचर अवाक्, जलचर प्रस्तर, सागर का गर्जन बन्द हुआ

लेकिन इस पथराए पल में, राघव का मन वाचाल रहा
सारी वसुधा गतिहीन हुई, राघव मन में भूचाल रहा
लक्ष्मण जैसा भाई खोकर, मैं क्या हासिल कर पाऊंगा
माता को क्या बतलाऊंगा, उर्मिल को क्या समझाऊंगा
यह जगत् मुझे धिक्कारेगा, पत्नी पाई, भाई खोया
भाई के तन से लिपट-लिपट, राघव का रोम-रोम रोया
ओ समय! तनिक पीछे हो जा, मुझको आगे हो जाने दे
लक्ष्मण का जीवन लौटा दे, मेरा जीवन खो जाने दे
रघुकुल का सूरज डूब रहा, आशा का इंदु नहीं निकला
कुछ अहित करेगा इन्द्रजीत, मेरा सन्देह सही निकला
निज भाग्य पीट बिलखे राघव, सारा यश चकनाचूर हुआ
जिसने सबके संकट काटे, वह किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ

बस तभी अचानक बिजली सम, मन में कौंधा विधि का विधान
जिस घर से आया है संकट, उसमें ही खोजो समाधान
व्याकुल अन्तर्मन शान्त हुआ, अनुभव की बाँच गया पोथी
सुग्रीव न राह सुझाता तो बाली पर विजय नहीं होती
अन्धियारे का आसन डोला, उग गया आस का अंशुमान
श्रीराम विभीषण से बोले -"हे मित्र, सुझाओ कुछ निदान"
इस पल में मैं हूँ व्यथाग्रस्त, भाई पर संकट बना हाय!
तुम हो विवेक से युक्त मित्र, तुम ही खोजो कोई उपाय

राघव की पीड़ा देखी तो, यह किया विभीषण से विचार
अपनी निष्ठा दिखलाने का, अवसर कब मिलता बार-बार
रावण की लंका ने मेरा, पल-पल केवल अपमान किया
इस मर्यादा पुरुषोत्तम ने, अरि-भ्राता को सम्मान दिया
मैं यहाँ नहीं टिक पाया तो, मेरा जग में कुछ ठौर नहीं
लक्ष्मण के प्राण बचा लूँ तो, फिर कठिन परीक्षा और नहीं

इस उहापोह में जाने कब, मुख से कह बैठे समाधान
लंका के वैद्य सुषेण मात्र, कर सकते इस दुःख का निदान
किस बूटी में क्या औषधि है, किस पीड़ा का है क्या उपाय
वह आयुर्विज्ञ मरे को भी, यम के हाथों से छीन लाय
सुनते ही हनुमत दौड़ गए, आशाओं पर लाली छाई
जिस कुटिया में थे वैद्यराज, वह लंका से उड़ कर आई

हतप्रभ सुषेण के मस्तक पर, विस्मय का भाव घनेरा था
पर बिन बोले ही जान गए, अरि को संकट ने घेरा था
आपातकाल में मर्यादा, तज देना भी न्यायोचित है
मेरे हित धर्म वही है बस, जिसमें इक रोगी का हित है
यह शत्रुभाव, यह कूटनीति, इन सबसे मेरा क्या पड़ता
नाड़ी से परिचय करता हूँ, कुल-जाति नहीं पूछा करता

फिर अपनी तीन अंगुलियों से, थामा लक्ष्मण की नाड़ी को
करुणा का पोथा पढ़ा गए, रण में संलिप्त खिलाड़ी को
बोले सुदूर उत्तर दिशि में, इक द्रोणाचल गिरि है महान
केवल उस पर मिल सकता है, इस महाव्याधि का समाधान
मंगवा पाओ, तो मंगवा लो, अपने भाई के प्राण राम
द्रोणाचल की बूटी है वह, उसका है संजीवनी नाम
उस बूटी को लाना होगा, घट श्वास रीतने से पहले
संजीवन इसे सुंघा देना, पर रात बीतने से पहले

इतना सुनते ही अंजनिसुत, झंझा का वेग पछाड़ चले
जैसे सूने गिरि-कानन में, केहरि की विकट दहाड़ चले
कह गए, अभी ले आता हूँ, लक्ष्मण का दुःख पुग जाएगा
जब तक उपचार न हो जाए, सूरज कैसे उग जाएगा
उड़ चले पवनसुत मनगति से, द्रोणाचल पर्वत पर आए
लेकिन इतनी श्यामल निधि में, बूटी पहचान नहीं पाए
इस दुविधा में बजरंगी ने, वह कार्य किया अगले ही पल
धरती अवाक, अम्बर अवाक, टापता रह गया द्रोणाचल

नक्षत्रों ने झुक कर देखा, वृक्षों ने उचक-उचक देखा
प्रण-शक्ति बदलती है कैसे, पौरुष से विधिना का लेखा
मन में इच्छाबल जाग उठे, फिर क्या धरती, कैसा अम्बर
पर्वत को रखा हथेली पर, ला टेक दिया सागर-तट पर

इससे पहले सूरज उगता, दमके सौमित्र दिवाकर से
आनन्द रत्न उद्घटित हुआ, रघु-लोचन के रत्नाकर से
सूरज ने आँखें खोलीं तो, रह गईं खुली की खुली आज
ठिठका रह गया अर्क नभ में, भूला गति का निज कामकाज
जैसा उसने कल छोड़ा था, उससे परिदृश्य विभिन्न मिला
राघव का शोक अदृश्य हुआ, लंका का उत्सव खिन्न मिला
जो वीर पराजित छोड़ा था, वह मृत्यु विजय कर जीवित था
कल शाम विजेता था जो भट, वह घर बैठा अपमानित था

लंका का आनन क्लांत मिला, आश्चर्य-क्रोध से दगा हुआ
रघुदल का प्रांगण शांत मिला, वात्सल्य-बोध से पगा हुआ
जिससे सत धर्म प्रतिष्ठित हो, ऐसे हर एक जतन की जय 
सब बोलो पवनपुत्र की जय, सब बोलो राम लखन की जय 

© चिराग़ जैन

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