उत्सव की आँखें भीगी हैं, एक घड़ी विपदा लाई
हर उजियारे पर भरी है, एक घड़ी की परछाई
कैसे वर मांगे कैकयी ने, सिंहासन से राम छिने
काया से जीवन छीना है, आशा से आयाम छिने
नगर समूचा वन जैसा है, यश-वैभव वनवासी है
जिसने सबकी ख़ुशियाँ छीनीं, उसके द्वार उदासी है
भोली रानी ख़ुद की करनी, ख़ुद भी मेट नहीं पाई
एक ठहाका पांचाली का पूरे युग पर भार बना
एक वचन ही पूरे युग की चीखों का आधार बना
पुत्र गँवाए, लाज लुटाई, घर छूटा, वनवास सहा
एक ठहाके के बदले में जीवन भर संत्रास सहा
इतने पर भी कब संभव है, उस इक पल की भरपाई
एक घड़ी आवेश न आता, गणपति मानवमुख रहते
एक घड़ी अमृत न छलकता, सूरज-चांद न दुख सहते
एक घड़ी का दंभ न होता, वंश दशानन क्यों खोता
एक घड़ी चौसर टल जाती, युग वीरों पर क्यों रोता
ईश्वर से भी कब टल पाई, एक घड़ी वह दुखदाई
हर उजियारे पर भारी है, एक घड़ी की परछाई
© चिराग़ जैन
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