Sunday, December 30, 2018

चुनावी चक्कर

वोटों की गिनती भी शुरू नहीं हुई
और एमपी में कमलनाथ को
मुख्यमंत्री बनने की बधाइयां छप गईं
पूरी कांग्रेस पार्टी
इन्हीं हरकतों की वजह से खप गई
अब अगर चुनाव का परिणाम पलट गया
तो उन्हीं बधाइयों के तेल में
हार के पकौड़े तले जाएंगे।
उधर कांग्रेस के स्वघोषित मुख्यमंत्री
राज्यपाल के सामने खीझे थे
क्योंकि जिनके दम पर वे सरकार बनाने चले गए थे
वो तो एग्जिट पोल के नतीजे थे।

पहले कुशवाहा ने साथ छोड़ा
फिर ऊर्जित पटेल ने बम फोड़ा
इससे पहले की सरकार का संतुलन बिगड़ता
लंदन ने सरकार के हाथ में थमा दिया भगौड़ा
एक ही दिन में कितना कुछ घटित हो गया
दिल्ली में सारा विपक्ष संगठित हो गया
एक ही दिन की घटनाओं ने 
पूरी राजनीति के सिंहासन हिला डाले हैं
लगता है देश के अच्छे दिन आने वाले हैं

✍️ चिराग़ जैन 

नए साल में राजनीति

बार-बार हारने के बाद भी आखिरकार
राहुल जी जीतने लगे हैं हर चाल में
उन्नीस में थोड़ा देख-भालकर फेंकियेगा
खुद ही न फँस जाओ जुमलों के जाल में
कांग्रेसियों को भी संभलकर चलना है
डूबने न लग जाओ, अगले उछाल में
गाय, गधे, घोड़े छोड़कर अब यह सोचो
ऊँट किस करवट बैठे नए साल में

✍️ चिराग़ जैन 

चुनाव आ गए

अभी सबके ही पत्ते खुलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए
सारे नेता सड़क पर मिलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए

पहला युद्ध टिकट बँटने का हर दल के भीतर होगा
दलबदलू मौका ढूंढेंगे, किस दल में बेहतर होगा
भाषण, रैली, वादे, गाली, पग-पग ये मंज़र होगा
टोपी और किसी की होगी, और किसी का सर होगा
अब तो पानी में पत्थर घुलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए
अभी सबके ही पत्ते खुलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए

देशप्रेम का रोज़ दिखेगा कोरा ड्रामा, हंगामा
वादे झूठे, जुमले झूठे, झूठा जामा हंगामा
कोई है बेटा जनता का, कोई मामा हंगामा
हर छुटभैया नेता कूदे पहन पजामा, हंगामा
सबके खद्दर के कुर्ते सिलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए
सारे नेता सड़क पर मिलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए

बीजेपी को रामलला की याद आएगी वोटिंग है
कट्टर दुश्मन से भी हाथ मिला आएगी वोटिंग है
कांग्रेस की करतूतों को गिनवाएगी वोटिंग है
जो भी प्रश्न करोगे उसको भटकाएगी वोटिंग है
असली मुद्दे सड़क पर रुलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए
अभी सबके ही पत्ते खुलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए

राहुल बाबा को भगवान बनाने निकले कांग्रेसी
जनता को इक गुड्डे से बहलाने निकले कांग्रेसी
बीजेपी के सारे पाप गिनाने निकले कांग्रेसी
नौ सौ चूहे खाकर हज को जाने निकले कांग्रेसी
अब तो कीचड़ से कपड़े धुलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए
अभी सबके ही पत्ते खुलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए

एक अकेले राहुल गांधी कितना काम करें भैया
पार्टी के हर इक खेमे का युद्ध विराम करें भैया
कुर्ते की बाजू ऊपर करके संग्राम करें भैया
दिन में रैली रात में बैठक, कब विश्राम करें भैया
जन समर्थन में पापड़ बिलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए
सारे नेता सड़क पर मिलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए

शाम-सवेरे दाग़ रहे जुमलों के गोले मोदी जी
अपने खातों पर रखते हैं सबके झोले मोदी जी
डमरू लेकर कर देते हैं भम भम भोले मोदी जी
हर रैली में मित्रो-मित्रो करते डोले मोदी जी
राहुल बाबा पे जम कर पिलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए
सारे नेता सड़क पर मिलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए

मनमानी वाले कर पाएं सीएम पद की सैर नहीं
जनता से पूछा तो बोली कांग्रेसी भी ग़ैर नहीं
हम उनको कैसे चुन लें जो भू पर धरते पैर नहीं
मोदी जी से वैर नहीं पर रानी जी की ख़ैर नहीं
हाय इनके न नखरे झिलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए
सारे नेता सड़क पर मिलेंगे
कि देश में चुनाव आ गए

✍️ चिराग़ जैन 

Saturday, December 29, 2018

प्यार कहाँ खो बैठे

जिसको छू लेने से मन की महक गुलाबी हो जाती थी
जिसमें आँखें बतियाती थीं, हम वो प्यार कहाँ खो बैठे
जिसके दम पर हम दोनों का अपनापन गहरा होता था
जो हमको इक-दूजे पर था, वो अधिकार कहाँ खो बैठे

जाने कैसी ज़िद्द पनपी है, संवादों का स्वर ऐंठा है
तन पर मन भर बोझ चढ़ा है, मन ऐसा तन कर बैठा है
ख़ुशियों की क्यारी जिसके आलिंगन में फूला करती थी
जिसमें रिश्ता पंख पसारे, वो विस्तार कहाँ खो बैठे
हम वो प्यार कहाँ खो बैठे

बातें करने बैठ गए तो फिर बातों का छोर नहीं था
नयनों में बस मुस्कानों का डेरा था, कुछ और नहीं था
जो छोटी सी दुनिया हमको, दुनिया से अच्छी लगती थी
जिसमें अपने सब अपने थे, वो संसार कहाँ खो बैठे
हम वो प्यार कहाँ खो बैठे

आपस की सरगम ऐसी थी, खटपट से भी सुर सजते थे
पल भर सन्नाटा होता था, फिर घंटों नूपुर बजते थे
जो धागा हम-तुम दोनों को आपस में बांधे रखता था
जिससे हम हर बार जुड़े थे, वो इस बार कहाँ खो बैठे
हम वो प्यार कहाँ खो बैठे

✍️ चिराग़ जैन

नियति

रोज़ नया अनुभव जुड़ता है
रोज़ उमर घटती जाती है
रोज़ नए बिरवे उगते हैं
रोज़ फसल कटती जाती है

जब यह तय है कुछ दिन पीछे हम सबको निश्चित मरना है
फिर इतने सारे अनुभव का आख़िर हमको क्या करना है
बिन मतलब के अनुभव से ही
निश्छलता छँटती जाती है
रोज़ नए बिरवे उगते हैं
रोज़ फसल कटती जाती है

सागर युग-युग तक गरजेगा, लहरें आएंगी-जाएंगी
कुछ सागर तट को चूमेंगी, कुछ पहले ही मिट जाएंगी
लहर नियत सीमा तक बढ़कर
ख़ुद पीछे हटती जाती है
रोज़ नए बिरवे उगते हैं
रोज़ फसल कटती जाती है

श्रम में जीवन बीत गया तो, कब तन को विश्राम मिलेगा
काया केवल कष्ट सहेगी, और चेतन को राम मिलेगा
जो पाया उसको बिसराकर
दुनिया क्या रटती जाती है
रोज़ नए बिरवे उगते हैं
रोज़ फसल कटती जाती है

© चिराग़ जैन

Friday, December 28, 2018

ख़ास अनुभूतियों की आम अभिव्यक्ति : चिनिया के पापा

स्त्री मन की बेलाग अभिव्यक्ति का दस्तावेज है कवयित्री संध्या यादव का सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह "चिनिया के पापा"। कुल 147 कविताओं का यह संग्रह मूलतः नारी की उन अनुभूतियों का बयान है जिनमें पीड़ादायी परिस्थितियों की स्वीकारोक्ति को वरीयता दी गई है। 
इन कविताओं में कवयित्री न तो नारी मुक्ति आंदोलन की रवायत निभाते हुए पीड़ा से आज़ाद होने को छटपटाती दिखाई देती है न ही नियति के द्वारा किये जा रहे दुर्व्यवहार से व्यथित होकर भाग्य को कोसती नज़र आती है। मन की कचहरी में अपने अनुभव और चिंतन की गवाही दर्ज कराने भर का उपक्रम है यह काव्य संग्रह। यह ऐसे ही है ज्यों चोट लग जाने पर एक आह अनायास ही मुँह से निकल जाए; ज्यों छले जाने पर एक सिसकी अनायास ही आँखों से बह निकले। इसमें प्रयास करके आँसू बहाने के परिश्रम की गुंजाइश नहीं है। इसमें स्वयं को दीन-हीन दिखाने का पाखण्ड नहीं है। यही कारण है कि पीड़ा से व्यथित होने के बावजूद कवयित्री की लेखनी स्वाभिमानी तो होती दीख पड़ती है किंतु विद्रोही नहीं। 
अपने उत्तरदायित्वों से विमुख होकर परदेस में विलसमग्न पति को चिट्ठी लिखते समय गिड़गिड़ाहट और दोषारोपण के स्थान पर स्वाभिमान से उत्पन्न कटाक्ष की भाषा इन कविताओं की विशेषता है। बलात्कार की शिकार किसी लड़की के साथ सामाजिक व्यवहार की विद्रूपता से पूर्व उसके परिवार के व्यवहार का नश्तर इन कविताओं की विशेषता है। ससुराल की प्रताड़ना के घिसे-पिटे जुमलों से हटकर पीहर के वीभत्स सत्य का शब्दांकन इन कविताओं की विशेषता है।
बहुओं पर हो रहे ज़ुल्म की हज़ारों कहानियां हम लिख-पढ़-सुन चुके हैं। बेटियों के अनकहे मन की आवाज़ भी बहुधा कविता की शक्ल में हमारे सामने से गुज़री है। किंतु ब्याहता बेटी के सम्मुख पीहर के भावनात्मक शोषण के कारण जो चुनौतियां उत्पन्न होती हैं उनकी प्रतिध्वनि संभवतः पहली बार इन कविताओं में आकर ले पाई है।
पुरुष की आकांक्षाओं में दिखाई देती 'केवल' दैहिक सुख की कामना से स्त्री मन पर जो खरोंचें पड़ती हैं उनको बयान करते समय कवयित्री साफ़गोई की चौखट तक तो कई बार गई है किंतु उसने कभी भी अश्लीलता के आंगन में प्रवेश नहीं किया। संबंधों पर से जब अपनत्व का मुलम्मा उतर जाता है तो उसके माथे पर कभी न पिघलने वाले कुछ बल पड़ जाते है। इन त्यौरियों को भी कवयित्री ने कई कविताओं में स्वीकारोक्ति के साथ स्वीकार किया है।
इस सबके बावजूद कवयित्री किसी भी सीमा तक जाकर संबंधों को निभाने की पक्षधर है। वह संबंध को बंधन घोषित कर उससे आज़ाद हो जाने की वकालत नहीं करती। वह मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को स्त्री अस्मिता पर प्रश्नचिन्ह मानकर उसका उल्लंघन करने का प्रयास नहीं करती।
शिल्प पक्ष की बात करें तो बिल्कुल आम बोलचाल की शब्दावली के साथ सहज प्रतीकों का प्रयोग इन कविताओं में दिखाई देता है। गांधारी की आँखों पर बंधी पट्टी को पुरुष के अहंकार का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत करने में भी संध्या हिचकती नहीं हैं और गूगल पर अपने अभीष्ट की सर्फिंग से भी उन्हें कोई परहेज नहीं है। रसोईघर की सामग्री से भी वे अपनी अभिव्यक्ति के बिम्ब खोज लेती हैं और पेड़, जड़, फूल, पत्तियों से भी अपनी कविताओं की क्यारी सजा लेने में दक्ष हैं। इन कविताओं में अपने हिस्से के आधे चांद को कूरियर से भेजने की कल्पनाशीलता भी है और पुरुषवादी मानसिकता के मन में पल रही कुंठाओं का सच भी है।
किताब के सफ़हे पलटते हुए पीड़ा की साफ़गोई से उत्पन्न नकारात्मकता पाठकों को विचलित कर सकती है किन्तु इस विचलन से भी मन की परतों के उघड़ने का रोमांच कहीं कम नहीं होता। इक्कीसवीं सदी की कामकाजी महिलाओं के सामान्य जीवन में सम्मिलित विशेषता को जानने के लिए यह काव्य संग्रह कारगर सिद्ध होगा।
पुस्तक के प्रारम्भ में कवयित्री का आत्मकथ्य और प्रदीप जैन जी की भूमिका के साथ सुरेन्द्र शर्मा की विश्लेषणात्मक टिप्पणी पाठकों को पुस्तक की मूल सामग्री से जुड़ने में सहयोगी सिद्ध होगी।
कवयित्री ने अनुरोध किया है कि पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इस पुस्तक के पृष्ठ पलटे जाएं। पाठक यदि इस अनुरोध को स्वीकार कर सकेंगे तो निश्चित रूप से इन कविताओं का सेतु उन्हें रचनाकार की मनःस्थिति का पर्यटन कराएगा।

✍️ चिराग़ जैन

Monday, December 24, 2018

दो हज़ार अठारह विदा

दो हज़ार अठारह बीता देकर कितने सारे घाव
कालखंड की चौसर पर ज्यों मौत जीतती जाए दांव 
साल अभी प्रारम्भ हुआ था काल दिलों को छील गया 
दूर देश में एक हादसा श्रीदेवी को लील गया 
अभिनय के घर मातम छाया, इस ग़म की सिसकी थमती 
उससे पहले विदा हो गए श्री जयेंद्र जी सरस्वती 
अगला सदमा लगा अचानक सूफी की कव्वाली को 
विदा किया हमने धरती से प्यारेलाल वडाली को 
तभी काव्य की गलियों की ख़ुशियों को पाला मार गया 
हिंदी कविता का इक ध्रुवतारा टूटा केदार गया 
काल साथ ले चला अचानक शोलों के सहभागी को 
काव्य जगत ने खोया अपने बालकवि बैरागी को 
इसके बाद कारवां गुज़रा गीतों के जादूगर का 
धरती का नीरज बन बैठा अमर सितारा अम्बर का 
राजनीति की गलियाँ रोईं दक्षिण के स्वर क्लान्त हुए 
चेन्नई की धरती के बेटे करुणानिधि जी शांत हुए 
जाने क्या विधि ने ठानी थी, कैसी थी उसकी मर्ज़ी 
पाँच दिनों के बाद बिछुड़ गए सोमनाथ जी चटर्जी 
ऐसा लगता था ईश्वर ने सारे गौहर बीन लिए 
जब निर्मम होकर भारत से अटल बिहारी छीन लिए 
एक एक कर हमसे छीने कितने जगमग दीप गए 
पत्रकारिता जी भर रोई जब नैयर कुलदीप गए 
कड़वे प्रवचन मौन हो गए, ओझल हुआ अमिट आलोक 
सारे संत जगत पर छाया संत तरुण सागर का शोक 
फिर नारायण दत्त तिवारी, और खुराना लाल मदन 
इतने सारे हीरे खोए, घायल है अब अंतर्मन 
ये आँसू का साल रहा है अब कोई संघर्ष न हो 
ईश्वर से बस यही दुआ है अगला वर्ष हर्ष का हो 

© चिराग़ जैन

Thursday, December 6, 2018

पुरुषोचित

जनक ने कहा-
"प्रत्यंचा चढ़ाओ!"
तुमने धनुष ही तोड़ दिया।

जनता ने कहा-
"धोबी की पत्नी को न्याय दिलाओ!"
तुमने अपनी पत्नी को ही छोड़ दिया।

धनुष तोड़ कर सीता को तो वर लाए
फिर कभी सुधि नहीं ली
उस टूटे वरदान की,
सीता को त्याग कर उदाहरण तो बन गए
लेकिन चिंता नहीं की
अर्धांगिनी के सम्मान की।

मांगलिक कार्यों में
शस्त्र का खण्डन
और ऋषि का कोप
अपशकुन था राम जी!
और सँवारने की कोशिश में
बिगाड़ कर छोड़ देना
तुम्हारा पुरुषोचित गुण था राम जी!

© चिराग़ जैन

Monday, December 3, 2018

हवा में ज़हर घुलता जा रहा है।

हवा में 
ज़हर घुलता जा रहा है।

वो सारी गंदगी
जो आग के ज़रिए
हवाओं में कहीं ग़ुम हो गई थी;
वही अब साँस के ज़रिए
हमारे फेफड़ों में जम रही है।
हमारी साँस की सरगम सुनाती धौंकनी से
अचानक आह की आवाज़ आने लग गई है।

कोई तो है
जो अपने साथ बीती ज़्यादती का
हमारी नस्ल से दिन-रात बदला ले रहा है।
कोई तो है
जो हमसे ही हमारी कौम को बर्बाद करने के लिए
बारूद-असला ले रहा है।

कोई तो है जिसे मालूम है
कमरे को ठंडा कर रहे
हर देवता का दूसरा चेहरा
बड़ा भभका उठाता है।
कोई तो है जिसे एहसास है
हर आँख में पलती
हर इक अय्याश हसरत की
कोई मजलूम ही क़ीमत चुकाता है।

हमारा ढोंग खुलता जा रहा है
हवा में ज़हर घुलता जा रहा है।

सुना है
पेड़ बादल को बुलाने के लिए
बाँहें उठाते थे।
सुना है प्यास से थक कर परिंदे
बारिशों की मिन्नतों के गीत गाते थे।
सुना है
सर्दियों में खेत कोहरे की रिजाई ओढ़ लेते थे।
सुना है
फूल गुलशन में टहलती तितलियों को
रोक लेने की सुबह से होड़ लेते थे।

सुना है
एक मुद्दत से किसी भी फूल से मिलने
कोई तितली नहीं आई।
सुना है
एक अरसे से
सिमटते जा रहे तालाब पर
बदली नहीं छाई।
सुना है
पूस की ठंडी ठिठुरती रात में भी
खेत नँगा सो रहा है।
सुना है कोयलें सब ग़ैर-हाज़िर हो चुकी हैं;
सुना है बांझ होते जा रहे फलदार पेड़ों की
पुराना बाग़ लाशें ढो रहा है।

सुना है
हर नदी नाराज़ हैं।
हवाएं रोज़ बेइज़्ज़त हुई हैं।
ज़मीं के ख़ूबसूरत जिस्म पर
तेज़ाब फेंका है हमारी हसरतों ने।
सुना है पेड़ अब इस बेअदब इंसान को
छाया नहीं देते।

जिन्हें हम पूजते थे देवता कहकर
बहुत बेफ़िक्र थे हम लोग जिस आगोश में रहकर
सुकूँ देता था जिनका साथ, जिनका संग
बहुत गहरा था जो इक दोस्ती का रंग

वो गहरा रंग धुलता जा रहा है
हवा में ज़हर घुलता जा रहा है

© चिराग़ जैन

Saturday, December 1, 2018

सीख

मैंने
सीमेंट से सीखा है
कि जोड़ने के लिए
नर्म होना ज़रूरी है
और
जोड़े रखने के लिए
सख़्त...!

© चिराग़ जैन

आस का पत्ता

ताल की आँखें सजल हैं
गन्ध की पाँखें विकल हैं
पेड़ पत्थर से हुए हैं
ख़्वाब नश्तर ने छुए हैं
पर अभी भी आस का दामन नहीं छूटा
आखि़री पत्ता नहीं टूटा

मुस्कुराहट पर बनावट का असर दिखने लगा है
हर क़दम पर अब कोई अनजान डर दिखने लगा है
नित नए अनुभव हमारी आस को खलने लगे हैं
रेत पर कुछ भ्रम हमारी प्यास को छलने लगे हैं
कष्ट बढ़ते जा रहे हैं
प्रश्न चढ़ते आ रहे हैं
आँख से आराम का सपना नहीं रूठा
आखि़री पत्ता नहीं टूटा

आँख के आगे कोई घेरा घनेरा छा गया है
है निपट एकांत, साये पर अंधेरा छा गया है
हर उजाला लुट चुका है, हर सहारा लुट चुका है
जो दिशा का ज्ञान देता वो सितारा लुट चुका है
आह का स्वर घुँट गया है
चाह का घर लुट गया है
हौसले का वक़्त ने झोला नहीं लूटा
आखि़री पत्ता नहीं टूटा

इस प्रतीक्षा के परे फिर से अहल्या श्वास लेगी
और शबरी के चखे हर बेर की क़िस्मत जगेगी
जानकी के पास सागर लांघ आएगी अंगूठी
भोर से पहले उठा ले आएंगे हनुमान बूटी
कष्ट जब हद से बढ़ेगा
देव को आना पड़ेगा
ये अटल विश्वास हो सकता नहीं झूठा
आखि़री पत्ता नहीं टूटा

© चिराग़ जैन