Sunday, December 29, 2019

बीत गया एक और साल

सपनों की नौका है, अपनों का पाल
जीवन की धारा पर, साँसों की चाल
बीत गया एक और साल

भोर की किरण आई, अर्घ्य बन गया पानी
दोपहर तपी, लेकिन शाम हो गई धानी
रात ने बिखेर दिया तारों का थाल
बीत गया एक और साल

देह हो गई गठरी, शीत की गलन झेली
पानी को छू-छूकर, ग्रीष्म की जलन झेली
बरखा ने ओढ़ लिया सिर पर तिरपाल
बीत गया एक और साल

आहट का डर देखा जंगलों के पेड़ों में
मौत का बसेरा था लहर के थपेड़ों में
घाट-घाट घटनाएँ, पग-पग भूचाल
बीत गया एक और साल

धारा के चेहरे पर नैय्या की छाया है
सोच कर समझ आया, कुछ नहीं पराया है
अपनी ही मछली है, अपना ही जाल
बीत गया एक और साल

एक-एक अनुभव को, भर रहे हैं झोले में
एक पल भँवर में हैं, एक पल हिंडोले में
साथ ले के उतरेंगे यादों की टाल
बीत गया एक और साल

© चिराग़ जैन

Wednesday, December 25, 2019

फ़ुरसत

उफ़्फ़ ये फ़ुरसत है कि मिलती ही नहीं है मुझसे
एक मुद्दत से मेरे पास नहीं आई है
एक मुद्दत से कई काम अधूरे हैं मेरे
वायदे, ख़्वाब, मुलाक़ातें कई हैं बाक़ी
एक तस्वीर अधूरी सी बनी रक्खी है
एक मिसरा-सा ग़ज़ल का है, बिना सानी के
एक किस्से का भी मफ़हूम लिखा रक्खा है
एक बूढ़ा है, कई बार बुलाता है मुझे
उससे हर बार बहाना-सा बना देता हूँ
अपने अरमान के पंछी को दग़ा देता हूँ
कितना मसरूफ़ बना रक्खा है मैंने ख़ुद को
वक़्त मिलता ही नहीं मुझको कभी इतना भी
अपनी टेबल पे रखे फालतू काग़ज़ छाँटूँ
मेज की तीनों दराज़ों को पलटकर इक दिन
उनमें तरतीब से सामान सजाकर रख दूँ
कितना बिखरा हुआ सा रहने लगा हूँ अब मैं
इन दराज़ों में भरे फालतू सामानों से
मुँह चुरा लेता हूँ मैं अपने ही अरमानों से
क्या-क्या बाक़ी है, कहाँ तक ये गिनोगे तुम भी
चलो फ़ुरसत से मिलूंगा तो बताऊंगा कभी
उफ़्फ़ ये फ़ुरसत है कि मिलती ही नहीं है मुझसे

© चिराग़ जैन

Sunday, December 8, 2019

देख ले इक बार तो मुड़कर

छोड़ कर घर-द्वार मत जा
आस के उस पार मत जा
राग मत बैराग से कर
नेह को यूँ हार मत जा
घर बिना तेरे यकायक हो गया खंडहर
देख ले इक बार तो मुड़कर

विश्व को रौशन बनाने के लिए सूरज बहुत है 
बाहरी दीवार पर उजियार की सजधज बहुत है 
घर समूचा डूब जाता है अंधेरे में तेरे बिन 
इस अभागी देहरी को सिर्फ़ तेरी रज बहुत है 
घर में अंधियारा भरा है, दीप है बाहर 
देख ले इक बार तो मुड़कर 

उर्मिला को सौख्य भी दे, राम को परमार्थ भी दे 
विश्व को सर्वार्थ भी दे, राधिका को स्वार्थ भी दे 
सृष्टि का करुणेश तू, घर के लिए करुणा बचा ले 
सौंप दे जग को तथागत, नीड़ को सिद्धार्थ भी दे 
तू हुआ मधुमास, घर पतझर 
देख ले इक बार तो मुड़कर 

© चिराग़ जैन

Saturday, December 7, 2019

आरोपी और अपराधी

आरोपी और अपराधी में क्या अंतर होता है; यह समझने के लिए विवेक का जागृत होना आवश्यक है। उन्माद विवेक की हत्या करके जन्म लेता है। उन्माद भीड़ का मूल स्वभाव है। हमारी राजनीति हमें नागरिकों से जनता और जनता से भीड़ बनाने में तो सफल हो ही गई है। जब लिंचिंग और एनकाउंटर जैसे हथकंडे जन से प्रशंसा पाने लगें, तब समाज में तर्क और निष्पक्षता की बात कहने पर अपशब्द ही सुनने को मिलेंगे। सोशल मीडिया पर आसाराम और रामरहीम का अब तक भी समर्थन किया जा रहा है। यह प्रश्न किसी आसाराम और रामरहीम का है ही नहीं! प्रश्न आत्मबल और आत्मविश्वास से हीन उस भीड़ का है जो किसी भी गड़रिये की हाँक सुनते ही ख़ुद को बकरी समझ लेती है।
प्रश्न उन युवाओं का है, जो किसी भी चर्चा में तर्क के मूलभाव को सुनने से पूर्व कहनेवाले की विचारधारा का परिचय टटोलने लगते हैं। प्रश्न उन लोगों का है जो आठ दिन में यह भूल जाते हैं कि हैदराबाद की दुर्घटना के मूल कारणों में पुलिस की लापरवाही भी एक बड़ा कारण थी। आज जिस पुलिस की विरुदावलियाँ गाई जा रही हैं, उसी पुलिस के व्यवहार और आचरण की विश्वसनीयता की स्थिति यह है कि उसके सम्मुख स्वीकार गया तथ्य भी न्यायालय में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। उस पुलिस की जाँच प्रक्रिया इतनी दोषरहित है कि आरुषि हत्याकांड में पुलिस की दो अलग-अलग टीमों ने समान तथ्यों के आधार पर बिल्कुल विपरीत आकलन अदालत के सम्मुख प्रस्तुत किया था।
दहेज हत्याएँ हुईं तो सरकार ने दहेज विरोधी और घरेलू हिंसा विरोधी क़ानून बना दिए। सरकार की वाहवाही हुई और बाद में इन क़ानूनों का दुरुपयोग कर हज़ारों परिवार बर्बाद होते रहे। दामिनी कांड हुआ तो केवल लड़की की शिक़ायत के आधार पर किसी को भी गिरफ़्तार करने का नियम बन गया, सरकार की वाहवाही हो गई और इन क़ानूनों के दम पर ब्लैकमेलिंग का धंधा चल निकला। हमारा पूरा तंत्र जल्दबाज़ी में है। जल्दी से लीपापोती करो, नहीं तो महिलाओं के वोट हाथ से निकल जाएंगे।
जल्दी से घोषणा करो, नहीं तो जनता सरकार के विरुद्ध हो जाएगी। आंदोलनकारियों को भी जल्दी से सब कुछ चाहिए होता है। इतनी जल्दबाज़ी में समस्याओं के विवेकपूर्ण उपाय नहीं हो सकते। अदालतें एक मुआमले का फ़ैसला सुनाने में दशकों लगा देती हैं, वहाँ काम जल्दी हो; इसकी किसी को चिंता नहीं है लेकिन क़ानून बनाने में जल्दी करने की होड़ लग जाती है। यदि विधायिका अपने निर्णयों में जल्दी न करे तो न्यायपालिका को अपने निर्णय में देर न करनी पड़े, और कार्यपालिका को अपनी जल्दबाज़ी से अराजकता की प्रशंसा लूटने का अवसर न मिल सके!

© चिराग़ जैन

Ref : Hyderabad Police encountered rapists dramatically.

Thursday, December 5, 2019

न्याय व्यवस्था

बलात्कार जैसे अपराध के अपराधी के प्रति पूरा देश घृणा से भरा है। मनुष्य की खाल में छिपे दैत्यों को उनकी करनी का कठोर से कठोर दण्ड मिलना ही चाहिए। हैदराबाद में पुलिस ने केवल उन चार दरिंदों को ही नहीं मारा है, बल्कि भारतीय न्याय व्यवस्था की लचर प्रवृत्ति के मुँह पर भी जोरदार तमाचा जड़ा है जो ‘आरोपी’ को ‘अपराधी’ सिद्ध करने में अरसा गुज़ार देती है। यदि पुलिस ने जानबूझकर यह एनकाउंटर किया है तो आँख पर काली पट्टी बांधे बैठी न्याय की गांधारी को स्वयं अपनी आँखें फोड़कर धृतराष्ट्र हो जाना चाहिए क्योंकि पांचाली चीरहरण पर मूक बैठनेवाले सिंहासन को दुर्याेधन की जंघा पर किये गए गदा प्रहार के समय आपत्ति की उंगली उठाने का अवसर नहीं मिलता।
अभी भी लाखों लोग सच्चे-झूठे मुआमलात में अदालत के फैसलों का इंतज़ार कर रहे हैं। बिल्डर ने फ्लैट बेचकर पूरे पैसे ले लिए और समय पर फ्लैट नहीं दिया... इतने सीधे-सादे मुआमले को भी बरसों-बरस घसीटा जाता हो तो अदालत में किसी का विश्वास रहेगा भी कैसे? शर्म आती है यह कहते हुए कि पीड़ित के अपराधी बन जाने तक अदालतें कोई फैसला नहीं कर पातीं। कोई इस फैसले के इंतज़ार में आत्मदाह कर लेता है, तो कोई हत्यारा बन जाता है। यह एनकाउंटर भारतीय न्याय प्रणाली के लिए संभवतः अंतिम अलार्म है।
जिस तरह लोग हैदराबाद पुलिस को बधाइयाँ दे रहे हैं उससे साफ़ है कि जनता यह मान चुकी है कि यह एनकाउंटर नहीं बल्कि एक सोची समझी रणनीति है, जिसे एनकाउंटर की शक्ल देकर प्रस्तुत किया गया है। जनता यह स्वीकार कर चुकी है कि पुलिस को मिले इस क़ानूनी औज़ार का यह बिल्कुल सही प्रयोग है। जनता यह सीख रही है कि अदालत जाने से बेहतर है किसी क़ानून की ओट में बाहर ही मुआमला रफ़ा-दफ़ा कर दो, क्योंकि अदालत के लिए किसी को दोषी सिद्ध करने में जितना समय लगेगा उससे कम में आप स्वयं को निर्दाेष सिद्ध कर देंगे। पता नहीं कि इससे न्याय तंत्र कोई सबक ले पाएगा या नहीं, लेकिन यदि न्याय व्यवस्था का नया रूप इस एनकाउंटर की मिट्टी से निर्मित हो रहा है तो अदालतों को अपनी इति श्री के लिए तैयार रहना होगा।

© चिराग़ जैन

Ref : Hyderabad Rape culprits encountered by police.