सपनों की नौका है, अपनों का पाल
जीवन की धारा पर, साँसों की चाल
बीत गया एक और साल
भोर की किरण आई, अर्घ्य बन गया पानी
दोपहर तपी, लेकिन शाम हो गई धानी
रात ने बिखेर दिया तारों का थाल
बीत गया एक और साल
देह हो गई गठरी, शीत की गलन झेली
पानी को छू-छूकर, ग्रीष्म की जलन झेली
बरखा ने ओढ़ लिया सिर पर तिरपाल
बीत गया एक और साल
आहट का डर देखा जंगलों के पेड़ों में
मौत का बसेरा था लहर के थपेड़ों में
घाट-घाट घटनाएँ, पग-पग भूचाल
बीत गया एक और साल
धारा के चेहरे पर नैय्या की छाया है
सोच कर समझ आया, कुछ नहीं पराया है
अपनी ही मछली है, अपना ही जाल
बीत गया एक और साल
एक-एक अनुभव को, भर रहे हैं झोले में
एक पल भँवर में हैं, एक पल हिंडोले में
साथ ले के उतरेंगे यादों की टाल
बीत गया एक और साल
© चिराग़ जैन
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