Friday, January 31, 2020

प्रमोद तिवारी

कितना बोलते थे प्रमोद जी। नॉन स्टॉप। सुननेवाले का सिर दुःखने लगता था लेकिन बोलते-बोलते उनका मुँह नहीं दुःखता था। और अब ऐसी चुप्पी धार ली है कि साँसों तक की आवाज़ नहीं आ रही। एक-एक मंज़र आँखों के सामने तैर रहा है। लालकिले की वीडियो यूट्यूब पर डलवाने के लिए उनकी बेचैनी और मेरी लापरवाही की जुगलबंदी से जो गालियाँ निर्मित हुईं, उनकी मिठास मुझे अभी तक जस की तस याद है। और वह वीडियो अपलोड करने के बाद जब मैंने उनके लेखन पर लेख लिखा तो उनका अपनत्व, फोन पर मुझे डेढ़ घंटे तक झेलना पड़ा था। सिंगरौली यात्रा में बनारस से सिंगरौली तक अनवरत प्रवचन, आगरा में तेज भाई, संपत जी और रमेश भाई के सम्मुख मेरे गीतों की प्रशंसा का क्रम शुरू किया तो कार्यक्रम में विलम्ब हो जाने की क़ीमत पर भी उसे समाप्त करने को राज़ी न हुए। और पिछली 1 मार्च को दिल्ली के बीएसएफ ग्राउंड में मुरादाबादी दाल के चटखारे लेते हुए एक आँख मीचकर हौले से प्रशंसात्मक सवाल -‘क्या खाए हो गुरु, रोज़ ही लपक के गीत प गीत पेले जा रहे हो। ये वरदान है, जब तक मिल्ला है लपकते रहो। जब मिलना बंद हो जाएगा तो हमाई तरह फक्खड़ हो जाओगे।’
पहेली सी बूझ रहा हूँ कि मैं अपने साथ उनके इस अंतिम संवाद को आशीर्वाद मानूँ, सुझाव मानूँ या चेतावनी ...काश उस ही रात उनसे पूछ लेता। उनकी यादें अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के साथ जीवन की पूंजी बन गई हैं।
अपने कवि होने पर उन्हें अहंकार बिल्कुल नहीं था, लेकिन ठसक पूरी थी। मूलतः पत्रकारिता से जुड़े रहे इसलिए उनके आँख, नाक, कान हमेशा तैनात रहते थे। ज़िन्दगी की किताब के इतने पृष्ठ पलट चुके थे कि अपने अनुभव साझा करते हुए वे कभी थकते ही नहीं थे।
मंचीय जोड़-तोड़ से वे अक्सर खिन्न रहा करते थे लेकिन उनकी प्रस्तुति और मंच पर उनकी धमक से यह खिन्नता कभी अनर्गल नहीं लगती थी। नॉन-स्टॉप बोलने में उनका कोई प्रतिद्वंदी नहीं था। किसी यात्रा में यदि उन्हें ड्राइवर के साथ न बैठने को मिले तो वे पूरी यात्रा के दौरान आगे की दोनों सीटों के बीच ही स्थापित रहते थे ताकि संवाद की सम्प्रेषणीयता में कोई बाधा न आ सके।
किसी के व्यक्तिगत जीवन में झाँकना उन्हें बहुत पसंद नहीं था लेकिन मंचीय व्यवहार की कोई भी हरक़त उनकी नज़र से बच नहीं सकती थी। मन को भरपूर जीनेवाले प्रमोद तिवारी जी हिंदी कवि सम्मेलनीय जगत् में गीत का एक अनोखा तेवर स्थापित कर गए हैं।
आज भी जब कोई नया साधक उनके बिंब-विधान और उनकी मस्ती को गीत में साधने का प्रयास करता है तो भीतर से आवाज़ आती है कि कानपुर-लखनऊ हाइवे पर घटी दुर्घटना में उस सुबह केवल उनका शरीर ध्वस्त हुआ था, उनका मन आज भी गीत रच रहे बालकों को डपटकर बोलता है- ‘मस्ती भरे गीत लिखो बे!’

-चिराग़ जैन

Thursday, January 30, 2020

लोकतंत्र का बकासुर

यह लोकतंत्र का सौंदर्य है कि जिस प्रदेश में चुनाव होते हैं, पूरे देश की चिंताएँ और चिंतन उसी प्रदेश पर केंद्रित हो जाते हैं। बाक़ी पूरे देश में सब कुछ अपने आप ठीक चल रहा होता है।
हमारे संविधान निर्माताओं ने कितनी दूरदर्शिता के साथ यह व्यवस्था की होगी कि देश के तमाम खुराफ़ाती मस्तिष्कों से देश को बचाए रखने के लिए एक बार में किसी एक प्रदेश की भेंट दे दी जाए। यूँ भी गाँव को बकासुर के आतंक से बचाने के लिए स्वतः ही एक व्यक्ति को बकासुर की भेंट चढ़ा देने के क़िस्से हमें सुनाए गए हैं। शोले में गब्बर सिंह जी ने भी यही समझाया था कि - ‘राजनीति के प्रकोप से हमें अगर कोई बचा सकता है तो वह स्वयं राजनीति ही है। अगर इसके बदले में राजनीति एक बार में एक प्रदेश को तहस-नहस कर देती है तो इसमें क्या बुराई है!’
हमारा लोकतंत्र देश के एक प्रदेश को छकड़े पर लादकर बकासुर के द्वार तक पहुँचा देता है। राजनीति प्रदेश का शिकार करने से पहले उसके साथ किलोल करती है। हम इस किलोल में बकासुर की सहृदयता, देशभक्ति, जनहित-भावना, ईमानदारी और सत्यनिष्ठा ढूंढने लगते हैं। देर तक बकासुर हमें दौड़ाते रहते हैं। हम भूल जाते हैं कि हम वह भेंट है जिसे कच्चा चबाकर यह असुर अपना पेट भरेगा। जब हम यह बात पूरी तरह भूल जाते हैं तब मुस्कुराते हुए बकासुर ठहाका लगाते हैं, हम कालिया और उसके साथियों की तरह ठहाके में डूब जाते हैं, पूरे वातावरण में शिकार और शिकारी के ठहाके गूंजने लगते हैं और फिर ठांय-ठांय-ठांय की आवाज़ के साथ सिनेमाघर में सन्नाटा पसर जाता है और बकासुर अगली भेंट के स्वागत में खर्राटों का स्वागत-गान गाने लगता है।
बकासुर कहते हैं ‘शू गाय’; हम गाय बचाने दौड़ पड़ते हैं। बकासुर कहते हैं ‘शू लिंगायत’; हम धर्म बचाने दौड़ पड़ते हैं। बकासुर कहते हैं ‘शू धर्मनिरपेक्षता’; हम मानवता बचाने दौड़ पड़ते हैं। ‘शू सीएए’; ‘शू जनलोकपाल’; ‘शू शाहीन बाग़’; ‘शू पैट्रोल के दाम’; ‘शू प्याज़’; ‘शू चौकीदार’; ‘शू पप्पू’; ‘शू मफ़लर’; ‘शू चायवाला’; ‘शू खाँसी’; ‘शू सीलिंग’; ‘शू पद्मावत’; ‘शू पटेल आरक्षण’; ‘शू जाट आरक्षण’; ‘शू गुर्जर आरक्षण’; ‘शू जीएसटी’; ‘शू बिहारी’; ‘शू पंद्रह लाख’; ‘शू हिन्दू राष्ट्र’; ‘शू गांधी’; ‘शू गोडसे’; ‘शू सावरकर’; ‘शू पटेल’... सरदार बोलता है और हम भागने लगते हैं। हमें लगता है सरदार खुश होगा, शाबासी देगा! लेकिन सरदार ठाने बैठा है कि उसने हमें कहाँ पहुँचाना है। सरदार जानता है कि जो डर गया वो मर गया। इसलिए सरदार हिंदुओ को बताता है कि मुसलमान तुम्हें मार देंगे। मुसलमानों को समझाता है कि हिन्दू तुम्हें भगा देंगे। सरदार कालिया को बताता है कि पद्मावती रिलीज़ हो गई तो संस्कृति का सत्यानाश हो जाएगा। कालिया पद्मावती की रिलीज़ रोकने के लिए जान दे देता है। कालिया के मरते ही सरदार पद्मावती को पद्मावत बनाकर रिलीज़ करवा देता है।
हर बकासुर अपने शिकार को बताता है कि फलां पार्टी का बकासुर शिकार की एक-एक उंगली को तोड़-तोड़ कर खाता है। मैं इतना निर्मम नहीं हूँ कि अपने शिकार को दस बार अलग-अलग नोचूँ। मैं एक ही बार में पूरी बाँह उखाड़ कर चबा जाता हूँ। इतनी करुणा देख हमारी आँखें भीग जाती हैं और हम ख़ुशी-ख़ुशी अपनी बाँह आगे बढ़ा देते हैं ताकि करुणा का यह पुंज हमारी बोटियाँ नोचकर, हमें उंगलियाँ चबानेवाले बकासुर से बचा ले!

© चिराग़ जैन

वसंतोत्सव

सृष्टि के समस्त सर्जकों को सृजन की अधिष्ठात्री माँ सरस्वती का अनवरत आशीष मिले!

वसंत की पहली दस्तक और सरस्वती पूजन के पर्व का सुयोग इस बात का द्योतक है कि सौंदर्य और सकारात्मकता ही सृजन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं।

प्रकृति पर आच्छादित वासंती रंग की सुवास श्वास के साथ घुलकर मन को स्वस्थ करे ताकि सृजन का मानस स्वस्थ हो और तूलिका, लेखनी, वाद्य, कण्ठ, अंगुलियाँ, हथेलियां और ओष्ठ सब कुछ सकारात्मक हो उठे!

बाँस को बाँसुरी न बनाया गया तो वह या तो हथियार बन जाएगा या ज्वाला को जन्म देगा!

-चिराग़ जैन

Wednesday, January 29, 2020

बहुत टॉप रमेश मुस्कान

ज़िन्दगी जीने के एक रवैये का नाम है - 'रमेश मुस्कान'! आडम्बर, झूठ, परिश्रम, महत्वाकांक्षा और औपचारिकता से रहित एक सहज, प्रसन्न, उन्मुक्त और संतुष्ट जीवन का सटीक उदाहरण है रमेश मुस्कान का जीवन।
मंच पर जमने और कविता लिखने की कला किसी से भी सीखी जा सकती है लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी तनाव से मुक्त रहने की स्थितप्रज्ञता सिखाने के लिए रमेश मुस्कान के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति मेरे आसपास नहीं है।
दृष्टि इतनी तेज़ कि सामने वाले की आँखों में यदि एक पल के लिए भी कोई रंग उतरा हो तो वह अनदेखा नहीं रह सकता। कान इतने तेज़ कि बात करने वाले के शब्दों की सरसराहट में छिपे हुए भाव की आहट भी सुन लें। आकलन इतना स्पष्ट कि उठने के अंदाज़ से किसी के गिरने की अवस्था भाँप लें और अन्वेषण इतना ईमानदार कि जो व्यक्ति अभी-अभी हानि पहुँचा कर गया हो उसके वार की भी प्रशंसा करने से न चूकें।
एक व्यक्ति के रूप में बेहद शानदार और एक कवि के रूप में उतने ही आलसी। शब्द चयन और अन्वेषण की विलक्षण क्षमताओं को देखते हुए अनेक नक्षत्रों ने ठहर कर इनके किसी परिधि पर आने की प्रतीक्षा की, लेकिन पूरी आकाशगंगा चक्कर खाती फिर रही है कि कोई ध्रुवतारा रंचमात्र भी हिले बिना कैसे प्रकाशमान रह पाता है!
जब कोई शुभचिंतक इनके लाभ के लिए इनके श्रमरूप का दर्शन करने की प्रतीक्षा करने लगता है तो ये और अधिक स्थिर होकर उस शुभचिंतक के थक जाने की प्रतीक्षा करने लगते हैं। इतिहास साक्षी है कि प्रतीक्षाओं की इस स्पर्धा में आज तक रमेश मुस्कान विजयस्थल से टस-से-मस नहीं हुए हैं।
पर्यटन और बतरस उनके प्रिय चाव हैं। यदि पर्यटन का लोभ न होता तो कदाचित इनकी लेखनी से हिंदी साहित्य के हाथ उतना भी ख़ज़ाना न लगा होता, जितने लिखे को ये महाशय बहुत माने बैठे हैं। बतरस में निश्चित ही इनका कोई विकल्प नहीं है, लेकिन माइक के समक्ष ये एकदम सीरियस हो जाते हैं और माइक के विकिरण से अपनी रक्षार्थ शीघ्रातिशीघ्र अपने आसन पर आ विराजते हैं। माइक से दूर होते ही मंच पर इनकी प्रत्युत्पन्नमति पुनः बांबी में से बाहर निकल आती है।
चूँकि लाभ और रमेश मुस्कान के मध्य आलस्य की एक गहरी खाई है, अतएव सत्य बोलते हुए इन्हें कभी डर नहीं लगता। ये जानते हैं कि कोई चाहकर भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि इस कार्य के लिए ये पूर्णतया आत्मनिर्भर हैं।
इतने सब के बावजूद एक सत्य अकाट्य है कि जिसके पास रमेश मुस्कान जैसा दोस्त हो वह कभी असफल नहीं हो सकता क्योंकि असफल होने के सारे रास्ते रमेश मुस्कान जानते हैं और अपने दोस्तों को कभी उन रास्तों पर जाने नहीं देते।

✍️ चिराग़ जैन

बहुत टॉप रमेश मुस्कान

ज़िन्दगी जीने के एक रवैये का नाम है - 'रमेश मुस्कान'! आडम्बर, झूठ, परिश्रम, महत्वाकांक्षा और औपचारिकता से रहित एक सहज, प्रसन्न, उन्मुक्त और संतुष्ट जीवन का सटीक उदाहरण है रमेश मुस्कान का जीवन।
मंच पर जमने और कविता लिखने की कला किसी से भी सीखी जा सकती है लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी तनाव से मुक्त रहने की स्थितप्रज्ञता सिखाने के लिए रमेश मुस्कान के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति मेरे आसपास नहीं है।
दृष्टि इतनी तेज़ कि सामने वाले की आँखों में यदि एक पल के लिए भी कोई रंग उतरा हो तो वह अनदेखा नहीं रह सकता। कान इतने तेज़ कि बात करने वाले के शब्दों की सरसराहट में छिपे हुए भाव की आहट भी सुन लें। आकलन इतना स्पष्ट कि उठने के अंदाज़ से किसी के गिरने की अवस्था भाँप लें और अन्वेषण इतना ईमानदार कि जो व्यक्ति अभी-अभी हानि पहुँचा कर गया हो उसके वार की भी प्रशंसा करने से न चूकें।
एक व्यक्ति के रूप में बेहद शानदार और एक कवि के रूप में उतने ही आलसी। शब्द चयन और अन्वेषण की विलक्षण क्षमताओं को देखते हुए अनेक नक्षत्रों ने ठहर कर इनके किसी परिधि पर आने की प्रतीक्षा की, लेकिन पूरी आकाशगंगा चक्कर खाती फिर रही है कि कोई ध्रुवतारा रंचमात्र भी हिले बिना कैसे प्रकाशमान रह पाता है!
जब कोई शुभचिंतक इनके लाभ के लिए इनके श्रमरूप का दर्शन करने की प्रतीक्षा करने लगता है तो ये और अधिक स्थिर होकर उस शुभचिंतक के थक जाने की प्रतीक्षा करने लगते हैं। इतिहास साक्षी है कि प्रतीक्षाओं की इस स्पर्धा में आज तक रमेश मुस्कान विजयस्थल से टस-से-मस नहीं हुए हैं।
पर्यटन और बतरस उनके प्रिय चाव हैं। यदि पर्यटन का लोभ न होता तो कदाचित इनकी लेखनी से हिंदी साहित्य के हाथ उतना भी ख़ज़ाना न लगा होता, जितने लिखे को ये महाशय बहुत माने बैठे हैं। बतरस में निश्चित ही इनका कोई विकल्प नहीं है, लेकिन माइक के समक्ष ये एकदम सीरियस हो जाते हैं और माइक के विकिरण से अपनी रक्षार्थ शीघ्रातिशीघ्र अपने आसन पर आ विराजते हैं। माइक से दूर होते ही मंच पर इनकी प्रत्युत्पन्नमति पुनः बांबी में से बाहर निकल आती है।
चूँकि लाभ और रमेश मुस्कान के मध्य आलस्य की एक गहरी खाई है, अतएव सत्य बोलते हुए इन्हें कभी डर नहीं लगता। ये जानते हैं कि कोई चाहकर भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि इस कार्य के लिए ये पूर्णतया आत्मनिर्भर हैं।
इतने सब के बावजूद एक सत्य अकाट्य है कि जिसके पास रमेश मुस्कान जैसा दोस्त हो वह कभी असफल नहीं हो सकता क्योंकि असफल होने के सारे रास्ते रमेश मुस्कान जानते हैं और अपने दोस्तों को कभी उन रास्तों पर जाने नहीं देते।

✍️ चिराग़ जैन

Tuesday, January 28, 2020

सफ़र

आगे बढ़ने वाला हर पैर अपने ही दूसरे पैर को पीछे छोड़ता है। अगर पीछे वाला पैर स्वयं आगे आने की बजाय दूसरे पैर की निंदा में लग जाएगा तो सफ़र वहीं रुक जाएगा।

© चिराग़ जैन

Friday, January 24, 2020

हो रही है थकान पानी को

किसलिए है गुमान पानी को
मारता है उफ़ान, पानी को

कुछ नमी हो तो घर हुआ जाए
ढूंढता है मकान पानी को

चैन से बैठती नहीं लहरें
हो रही है थकान पानी को

रेत में दफ़्न हो गया क़तरा
देने निकला था जान पानी को

सबके अंदर का सच बयां होगा
मिल गई गर ज़ुबान पानी को

© चिराग़ जैन

Wednesday, January 8, 2020

किशन सरोज जी नहीं रहे

ले गया चुनकर कँवल कोई हठी युवराज
ताल के शैवाल-सा हिलता रहा मन

स्वर्ग का युवराज गीत-सरोवर के सबसे ख़ूबसूरत कँवल को ले चला और गीतों के रसिकों का मन काँपता रह गया। विरह और पीड़ा से परिपूर्ण किशन सरोज जी का कवित्व गीत की सबसे परिष्कृत शब्दावली का साधक था। मेहंदी रचे हाथों से दीप तिरोहित होते देख किशन सरोज जी वर्तिका के मोहपाश में बंधने की बजाय, जल में हुई सिहरन को महसूस करते रहे। गीत की संवेदना की सूक्ष्म दृष्टि का इससे बढ़िया कोई और उदाहरण तलाश पाना कठिन है। किशन जी के गीतों में यह सूक्ष्मदृष्टि फिर-फिर कर उतरती दिखती है।
अन्य गीतकारों की तरह स्वार्थ की ओट में जताए जा रहे संबंध भी उन्होंने गीत में अभिव्यक्त किये किंतु उनके लिए जो बिम्ब विधान किशन सरोज जी के पास था, वह अन्य गीतकारों के पास नहीं मिलता।

एक पल में आँख ओझल, हिरनियों का दल हुआ
कौन जाने, तन हुआ घायल कि मन घायल हुआ
बहुत घबराए अकेले प्राण, नदिया के किनारे
फिर लगा प्यासे हिरण के बाण, नदिया के किनारे

समर्पण की पराकाष्ठा और किसी अपने को अभय करने के लिए किस हद्द तक पहुँचा जा सकता है, यह बात समझने के लिए उनके गीत की इन पंक्तियों को जीना पड़ेगा रू

थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया सब पुराने मित्र
तुम निश्चिन्त रहना!
कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र
तुम निश्चिन्त रहना!

अभिव्यक्ति के लिए इतनी सक्षम प्रतिभा और अनुभूति के लिए इतना संवेदनशील मन का संयोग ही किसी मनुष्य को किशन सरोज बना सकता है। एक गीत के मुखड़े में वे सामान्य बिम्ब विधान पर कविताएँ रचनेवालों को इशारे से बताते हैं कि संवेदना की दृष्टि जहाँ पड़ती है, वहीं कविता खड़ी मिलती है। अहा, क्या गीत है -

नीम तरु से फूल झरते हैं
तुम्हारा मन नहीं छूते
बड़ा आश्चर्य!

यही आश्चर्य-बोध उनके प्रतीकों, बिंबों और शब्द-चयन को अभ्यार्थियों के लिए पाठशाला बना देता है। कितना बड़ा गीतकार, और कितना सहज मनुष्य! यह विलक्षण था। अपनी किसी आवश्यकता को तब तक किसी के सम्मुख प्रकट नहीं करते थे, जब तक उसे अनदेखा करना सम्भव होता था और फिर जब कहना पड़ता था तो संकोच का सागर उनके मन से उनकी वाणी तक लहलहाने लगता था।
न कोई लाग-लपेट, न कोई दिखावा और न ही कोई महत्वाकांक्षा, न किसी से स्पर्धा! केवल दो ही शब्द उनके पूरे जीवन का परकोटा रहे रू एक प्रेम, दूसरा गीत!
आज किशन जी विदा हो गए। गीत की गंगा में बहाए गए उनके सीप-शंख चुनकर आने वाली पीढियां गीत-वधुओं के कुन्तलों में गूँथती रहेंगी और गीत की कनुप्रिया की स्वर्णकेशी व्यथा का गायन युग-युग तक किशन सरोज जी के अस्तित्व की गवाही देता रहेगा।

-चिराग़ जैन

Sunday, January 5, 2020

उसको बदनामी से डर लगता था

पलकों में पलते सपनों की नाकामी से डर लगता था
उसने राह बदल ली, उसको बदनामी से डर लगता था

मैं उसकी आँखों में गुम था, वो सबकी नज़रें पढ़ती थी
मैंने प्यार किया बिन मतलब, वो बिन कारण के लड़ती थी
दुनिया भर की बातें सुनकर आँखों में पानी भरती थी
मैं उसको समझाता था तब जाने क्या सोचा करती थी
जीना-मरना साथ करूँगा, इस हामी से डर लगता था
उसने राह बदल ली, उसको बदनामी से डर लगता था

दुनियावाले क्या सोचेंगे -इसका सोच-विचार बहुत था
हिम्मत करने से बचती थी, वैसे उसको प्यार बहुत था
किस रंग के दरवाज़े होंगे, क्या दीवारों का रंग होगा
कितनी फुलवारी फूलेगी, कैसा फूलों का ढंग होगा
सपनों के इस सुंदर घर की नीलामी से डर लगता था
उसने राह बदल ली, उसको बदनामी से डर लगता था

जब भी प्यार किया जाता है, सोच-विचार नहीं करते हैं
सोच-समझने वाले अक्सर, पूरा प्यार नहीं करते हैं
मर-मिटने का ख़ौफ़ नहीं हो, तब जीना अच्छा लगता है
सपनों में जीकर तो देखो, हर सपना सच्चा लगता है
हर ख़ूबी की चाह थी उसको, हर ख़ामी से डर लगता था
उसने राह बदल ली, उसको बदनामी से डर लगता था

© चिराग़ जैन

Wednesday, January 1, 2020

मुझे आँसू पचाना आ गया है

पीर से कह दो
मुझे आँसू पचाना आ गया है
अब किसी आघात से घायल नहीं हो पाऊंगा मैं
प्यास को अपने पसीने से बुझाना आ गया है
दोपहर की धूप से बिल्कुल नहीं घबराऊंगा मैं

भाग्य के दरबार से संत्रास लेकर लौट आया
आस के आवास से उपहास लेकर लौट आया
मैं स्वयं में इक नया विश्वास लेकर लौट आया
अब किसी के सामने झोली नहीं फैलाऊंगा मैं

अब समस्या भी मुझे भयभीत कर सकती नहीं है
नियति अब कुछ भी मेरे विपरीत कर सकती नहीं है
हार ने जो कर दिया, वह जीत कर सकती नहीं है
युध्द के परिणाम पर हर हाल में मुस्काऊंगा मैं

आपदा में धीर का व्यवहार करना आ गया है
मुस्कुरा कर दर्द का उपचार करना आ गया है
अब मुझे हर वार को स्वीकार करना आ गया है
डूब कर भी धार के उस पार तो लग जाऊंगा मैं

© चिराग़ जैन