पिछले रविवार को मेरे एक परिचित का फोन आया कि उनके पिताजी का स्वर्गवास हो गया है। यह और बात है कि मैंने कभी उनके पिताजी को देखा नहीं था लेकिन फिर भी परंपरानुसार मैंने फोन पर उन्हें यह जताने की हर संभव कोषिष की कि उनके पिताजी के निधन के इस आकस्मिक समाचार से मैं अर्द्धमृत सा हो गया हूँ। यदि उनके एकाध और पिताजी इसी प्रकार दिवंगत हो जाते तो मैं पूरी तरह मर गया होता।
फोन रखने के बाद मैंने कई दिनों से बेकार पड़े अपने सफेद कुर्ते-पायजामे पर इस्तरी की और देह के शेष हिस्सों को अस्त-व्यस्त कर कार्यक्रम स्थल पर पहुँच गया। मेरे समान ही और भी बीस-बाईस अर्द्धमृतगण वहाँ पहले से ही उपस्थित थे, जो घर के बाहर हाथ बांधे हँसी रोके खड़े थे। मेरे पहुँचने पर सबने मुझे इस कौतूहल के साथ देखा मानो मेरी ही मृत्यु हुई हो। मैं झेंपकर अपने जीवित होने पर खिन्न होता हुआ एक ओर खड़ा हो गया। इसके बाद कुछ लोगों ने अपने-अपने पड़ोसियों के कान में कुछ कहा और फिर चेहरे पर शोक का स्थायी भाव लिए हुए पूर्ववत खड़े हो गए।
नवागंतुकों के स्वागत की इस परंपरा के निर्वाह के उपरांत उसे बताया जाता था कि लालाजी ने अभी प्राण त्यागे नहीं हैं। दो दिनों से वे कृत्रिम श्वास पर जीवित थे। वेंटिलेटर का पचास हज़ार रुपए रोज़ का ख़र्चा है। इसलिए आज परिवारवालों ने लिखकर दे दिया है कि वंेटिलेटर हटा दिया जाए। बस वेंटिलेटर हटते ही लालाजी दिवंगत हो जाएंगे और दस-बारह मिनिट में उनका पार्थिव शरीर घर ले आया जाएगा।
यही सूचना लगभग तीन घंटे तक लोगों के बीच आषा की किरण बनी रही। इस दौरान कुछ लोग ताज़ा समाचारों के लिए लगातार अस्पताल में स्थित लोगों से संपर्क बनाए हुए थे। शाम के लगभग चार बजे ख़बर मिली कि वंेटिलेटर हटा दिया गया है। ख़बर मिलते ही लोगों ने चैन की साँस ली। कुछ लोग अपने ज्योतिषियों को फोन कर पंचक आदि की गणना करवाने लगे। कुछ अपनी घड़ियों की ओर देखकर यह कालगणना करने लगे कि अभी घर पहुँचने में कितना समय लग सकता है। इसी प्रकार के कार्यक्रमोें में काफी समय बीत गया। कोई पोने पांच बजे अस्पताल की गाड़ी आकर रुकी। सभी मनुष्य अपनी स्वाभाविक जिज्ञासु प्रवृत्ति के चलते गाड़ी के इर्द-गिर्द इकट्ठा होने लगे।
लालाजी को चार-पांच लोगों ने गाड़ी से बाहर निकाला। उनकी श्वास अभी भी चल रही थी। उनको जीवित देख सबको घोर निराषा हुई। निराषा और शोक के इस माहौल से निकालते हुए लालाजी को घर के भीतर लिटाया गया। शेष आत्मीयजन घर के बाहर ही इंतज़ार करने लगे।
अब तक सभी के भीतर कथावाचकों की आत्माएं प्रवेष कर चुकीं थीं। सभी एक-दूसरे को मृत्युबोध और असार संसार के आँखों देखे क़िस्से सुनाने लगे। कई बार तो कथावाचक महोदय को देखकर ऐसा लगने लगता था कि वे अभी उठेंगे और हिमालय की कंदराओं में कहीं खो जाएंगे। लेकिन अगले ही क्षण जब वे जेब से तम्बाकू का पाउच निकालकर हालाहल के समान अपने मुख में डालते तो समझ आता कि अभी वे संसार में व्याप्त विष का पान कर रहे हैं और जब तक संसार का समस्त विष अपनी देह में धारण कर विष्व को विष मुक्त नहीं कर देंगे तब तक सन्यास नहीं लेंगे।
लोक-परलोक की इन्हीं चर्चाओं और भीष्म-प्रतिज्ञाओं के बीच जब सात बज गए तो अमृतक के भाई ने बाहर आकर हाथ जोड़कर धन्यवाद ज्ञापन किया और यह विष्वास दिलाया कि जैसे ही लालाजी अंतिम श्वास लेंगे, सबको समाचार दे दिया जाएगा। सबने उनको कृतज्ञता और क्रोध भरी दृष्टि से देखा और पत्थर जैसे क़दम उठाते हुए भारी मन लिए घर लौट आए।
© चिराग़ जैन
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