ट्यूशन हमारी सांस्कृतिक तथा पौराणिक परम्पराओं का महत्वपूर्ण अंग है। यदि कुछ क्षण के लिए अपना दृष्टिकोण व्यापक करने के लिए पाश्चात्य विद्वानों की तरह सोचा जाए (क्योंकि हमारे यहां वेद-पुराणों की बातें तब तक समझ नहीं आतीं जब तक पश्चिम उसकी व्याख्या न करे) तो हम देखेंगे कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के युग से ही यह महान परम्परा हमारे समाज का अभिन्न अंग रही है।
संत कवि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इस परम धर्म की उतनी ही ‘कड़ी अनुमोदना’ की है जितनी कि आज के तथाकथित विद्वान इसकी आलोचना कर रहे हैं। ये और बात है कि अपने पूर्वजों को सम्मान देने के लिए ये आधुनिक विद्वान अपने घरों में इस परम्परा को बन्द करने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं कर पा रहे हैं। ख़ैर छोड़िये इनके घरों को; हम चर्चा कर रहे थे संतकवि तुलसीदास जी की। वे इस महान कर्म से इस हद तक प्रभावित थे, कि इसकी अनुमोदना करते समय वे चैपाई पूरी होने का भी सब्र न रख सके और एक अद्र्धाली मात्र में इस विचार को इन शब्दों में प्रतिपादित कर दिया-
गुरु गृह गए पढ़न रघुराई
अल्पकाल में शिक्षा पाई
महाकवि ने यह स्पष्ट किया है कि गुरु के घर जाने से रघुराई जी ने अल्पकाल में ही सारी शिक्षा प्राप्त कर ली थी। अब जब रामायण की बात चली है तो महाभारत का ज़िक्र न करने से बात अधूरी ही रह जाएगी। हालांकि इस देश में बहुत सी बातें महाभारत के ज़िक्र के बावजूद अधूरी ही पड़ी हैं। लेकिन फिर भी, इस सत्य को दरकिनार कर, लेखन की परम्पराओं का निर्वाह करते हुए मैं रामायण के पश्चात महाभारत का ज़िक्र अवश्य करूंगा।
महाभारत में केवल अर्जुन ही एकमात्र ऐसे होनहार विद्यार्थी थे, जो अपने होनहार गुरु से ‘अल्पकाल में शिक्षा पाने के लिए’ नाइट ट्यूशन का सहारा लेते थे। इसी कारण केवल वही ऐसे शिष्य रहे जिन्हें चक्रव्यूह भेदना आता था। यूं सीखा तो एकलव्य ने भी था, लेकिन उसने छिपकर सीखा था, और गुरु द्रोण कोई टटपूंजिये तो थे नहीं जो मुफ़्त शिक्षा दे देते। न ही उन्हें सरकार अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई अनुदान दे रही थी, जो वे अपने आश्रम में पिछड़े वर्गोंं के लिए कुछ सीट्स रिज़र्व करते। एकलव्य ने उन्हें धोखा दिया था इसलिए उन्होंने एकलव्य के माध्यम से अपने शिष्यों को ‘जैसे को तैसा’ की अंतिम शिक्षा दे डाली।
गुरुद्रोण के इस ‘अंगूठा काटन कार्यक्रम’ को हम आज भी पूरे ज़ोर-शोर से चला रहे हैं। कुछ इंस्टिट्यूट्स ने तो इस परंपरा का बाक़ायदा विकास भी किया है। ये विकासवादी परंपरा के समर्थक इंस्टिट्यूट्स, शिष्यों का अंगूठा काटने की घटना के बाद हुई गुरु द्रोण की आलोचनाआंे से सबक लेते हुए, इस निश्चय पर पहुंचे हैं कि शिष्यों को सही-सलामत रहने दिया जाए और परम्परा के निर्वाह हेतु उनके अभिभावकों के हाथ-पैर कटवा लिए जाएं। इससे सामाजिक आलोचना भी नहीं होगी और परंपराओं की रक्षा भी हो सकेगी।
हाथ पैर कटवा चुकने के बाद जब अभिभावकगण अपनी संतानों के शैक्षणिक विकास की भ्रामक आस लिए ट्यूशन वाली या वाले के पास पहुंचते हैं तो ये ट्यूशनधर्मी गुरुजी पहले तो पौराणिक परंपराओं का सम्मान करते हुए शिष्य से उसकी जाति पूछते हैं, फिर बातों-बातों में यह पता लगाते हैं कि इस राधेय/एकलव्य/अर्जुन/दुर्योधन/अश्वत्थामा या कृष्ण के पिता का व्यवसाय तथा सामाजिक कद कैसा है।
यदि शिष्य दुर्योधन, अर्जुन या युधिष्ठिर की तरह राजपरिवार से संबंध रखता हो तो पूरे आश्रम की नीतियां शिष्य की रुचियोें के अनुसार परिवर्तित करना गुरुजी के लिए सहज हो जाता है। आवश्यकता पड़ने पर विदुर या पितामह के हाथों में ही यह निर्णय सौंपा जा सकता है कि आश्रम की आचार-संहिता में क्या-क्या परिवर्तन करने होंगे। हां, ऐसे शिष्यों के प्रवेश के समय गुरुजी इस बात का विशेष ध्यान रखते हंै, कि फीस की चर्चा नहीं करनी। इससे इम्प्रेशन खराब होने का ख़तरा रहता है।
कृष्ण और राम जैसे शिष्य यदि राजपरिवार से संबंध न भी रखते हों तो भी गुरुजी की यह परम इच्छा रहती है कि समाज के ये अनमोल रत्न उन्हीं के इंस्टिट्यूट में अध्ययन करें। इस श्रेणी के शिष्यों की लोकप्रियता गुरुदेव को इस हद तक प्रभावित करती है कि कुछ गुरुश्रेष्ठ तो इनको लेने इनके घर तक जा पहुंचते हैं। इनको पढ़ाने से एक तो गुरुदेव को साख का लाभ मिलता है साथ ही अपना बड़प्पन झाड़ने का सौभाग्य भी प्राप्त होता है। इसलिए पब्लिक पर्सनेलिटी के प्रति गुरुजी का विशेष स्नेह देखने को मिलता है।
अश्वत्थामा श्रेणी के शिष्यों के लिए आश्रम में स्टाॅफ कोटे की सीटें हमेशा रिजर्व होती हैं। इन शिष्यों से गुरुजी और आश्रम दोनों को ही कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष लाभ नहीं होता, लेकिन इन्हें पढ़ाना गुरुजी के लिए सामाजिक मर्यादा का प्रश्न होता है।
यदि शिष्य राधेय श्रेणी से संबद्ध हो तो गुरुदेव समझ जाते हैं कि इससे उन्हें कोई ख़ास लाभ होने वाला नहीं है। यदि इससे फीस ली जाती है तो निर्धन से धन लेने के आरोप में गुरुजी की बदनामी होगी; और फ्री में विद्यादान दिया गया तो अपनी दृष्टि में ही गुरुजी को मूर्ख बनना पड़ेगा। इसलिए गुरुजी ऐसी स्थिति में अपने आश्रम की आचार संहिता में तुरन्त परिवर्तन कर डालते हैं। इस परिवर्तन के वक़्त केवल इतना ध्यान रखा जाता है कि आश्रम में प्रवेश लेने के इच्छुक विद्यार्थियों की न्यूनतम योग्यता में कोई ऐसी मांग जोड़ दी जाए जिसे पूरा करना राधेय के लिए मुमकिन न हो। यही कारण है कि प्रवेश के नियम स्पष्ट करने से पूर्व प्रवेशार्थी का आर्थिक, बौद्धिक, सामाजिक तथा मानसिक स्तर अच्छी तरह देख लिया जाता है।
ऐसे शिष्यों को अपने आश्रम से रिक्त लौटा देना गुरुजी की सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए घातक हो सकता है, इसलिए चलते समय गुरुजी इन शिष्यों के एकाध गुणों की तारीफ़ करते हुए उसका नाम परिवर्तन अवश्य कर देते हैं। इससे एक तो गुरुदेव समाज की दृष्टि में महान बनते हैं साथ ही यह ख़तरा भी ख़त्म हो जाता है कि राधेय या इसका बाप बाहर जाकर आश्रम की बदनामी करे।
अंत में नम्बर आता है एकलव्य श्रेणी के शिष्यों का। इन शिष्यों के बाप से गुरुजी खाल या गर्दन उतरवाकर रख लेते हैं। यूं वे हाथ, पैर या अंगूठा आदि भी कटवा सकते थे लेकिन यह सब कुछ तो पहले ही इंस्टिट्यूट वाले कटवा लेते हैं इसलिए सत्यवादी हरिश्चंद्र के देश में पैदा होने के कारण मजबूरी में ट्यूशन वाले गुरुजी को अपना कर्तव्य पालन करते हुए ऐसा घिनौना कार्य करना पड़ता है।
© चिराग़ जैन
No comments:
Post a Comment