Wednesday, January 27, 2021

अपनों से हारा लालकिला

जब लालकिला बदरंग हुआ
हथियार चले हुड़दंग हुआ
उस दिन पानी-पानी क्यों था सारा का सारा लालकिला
अपनों से हारा लालकिला

इस लालकिले ने कितने ही तख़्तों की उलट-पलट देखी
साज़िश देखीं, धोखे देखे, इतिहासों की करवट देखी
जब भी कोई दुश्मन आया, तब-तब हुंकारा लालकिला
अपनों से हारा लालकिला

प्राचीर बहुत शर्मिंदा थी, वीरों की कुर्बानी रोई
गणतंत्र हुआ था शर्मसार, छिपकर चूनर धानी रोई
धरती में गड़ता जाता था उस दिन दुखियारा लालकिला
अपनों से हारा लालकिला

उस दिन इसकी दीवारों पर बदनुमा दाग़ इक दंगा था
सबका अपना इक झंडा था, अपमानित खड़ा तिरंगा था
कैसे उजियारे में बदले इतना अंधियारा लालकिला
अपनों से हारा लालकिला

अब इसके दरवाज़े आकर, बातों का मेला रहने दो
कुछ देर सियासत बन्द करो, कुछ देर अकेला रहने दो
अब कुछ भी कैसे झेलेगा, भाषण या नारा लालकिला
अपनों से हारा लालकिला

शासन अधिकार लिए बैठा, जनता कर्त्तव्य बिसार गयी
उस दिन दोनों की मनमानी हर मर्यादा के पार गयी
शासित और शासक की जिद्द में पिसता बेचारा लालकिला
अपनों से हारा लालकिला

© चिराग़ जैन

Tuesday, January 26, 2021

दिल्ली

रोज़ उजड़े, रोज़ सँवरे, इस शहर का दिल अलग है
मत मिसालें दो हमारी, अपना मुस्तकबिल अलग है
कुछ अलग है नूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

खण्डहरों के साथ कितने युग खड़े हैं मुँह उठाए
ख़ून में भीगी रही है साज़िशों के ज़ख़्म खाए
पर इन्हीं सब साज़िशों ने रच दिया इतिहास जग में
इसके दीवानों का किस्सा हो गया है ख़ास जग में
है यही दस्तूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

ये शहर बनकर रहा है पांडवों की राजधानी
इसने बाँची तोमरों की और पिथौरा की कहानी
लाट दिल्ली में गुलामो की गड़ी है शान बनकर
और रज़िया बैठ पाई तख़्त पर सुल्तान बनकर
मन हुआ मग़रूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

इस शहर ने खिलजियों के वहशती अरमान देखे
इस शहर ने तुगलकों के तुगलकी फरमान देखे
सैयदों का तौर देखा, लोदियों का ढंग देखा
शेरशाह सूरी सरीख़े शासकों का रंग देखा
कौन है मंसूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

शाहजहानाबाद बनकर ख़ूब इठलाती थी दिल्ली
चांदनी की रौनकों में रोज़ इतराती थी दिल्ली
लाल पत्थर के किले को चूमकर जमुना चली थी
सात दरवाज़ों के भीतर झूमकर दिल्ली पली थी
ताज था मखमूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

इस शहर ने ख़ूब देखा ताज मिट्टी में मिले थे
आज जो भी खण्डहर हैं, कल वहाँ रौशन क़िले थे
तख़्त रंगीला हुआ तो, छिन गयी सब शान इसकी
महल की अय्याशियों ने छीन ली पहचान इसकी
खोया कोहेनूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

मुल्क़ की ताक़त बनी जब एक बूढ़ी बादशाहत
तब नयी करवट बदलने लग गयी पूरी सियासत
इक शहंशाह को नहीं दो ग़ज़ ज़मीं तक दे सकी ये
फिर नये ही रूप में ढलने लगी हारी-थकी ये
हाल था मजबूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

और फिर रहने लगी बेचैन आठों याम दिल्ली
नौ दशक तक लड़ रही थी इक अलग संग्राम दिल्ली
उस समर में शांति भी थी, उस समर में जोश भी था
उस समर में इक तरफ़ दिल्ली चलो का घोष भी था
रास्ता था दूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

रायसीना को बड़ी मुश्किल से जब खादी मिली थी
सैंकड़ों बलिदान देकर हमको आज़ादी मिली थी
देश बँटने का स्वयं पर बदनुमा इल्ज़ाम सहकर
इस धरा पर ही गिरा था जब कोई 'हे राम' कहकर
पुँछ गया सिंदूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

इस शहर में दर्ज है बलिदान की अद्भुत कहानी
सीस कटवाए मगर अन्याय से कब हार मानी
तख़्त के ज़ुल्मो-सितम से जूझने की जिद्द बड़ी थी
तेग़ के आगे बहादुर की फ़क़त हिम्मत लड़ी थी
है अमर वो शूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

इस शहर को औलियाओं की ज़मीरी का गुमां है
सूफियों की मस्तमौला सी फ़क़ीरी का गुमां है
राम और रहमान बढ़कर साथ चलते हैं अभी भी
इस शहर में फूलवाले सैर करते हैं अभी भी
यूँ मिटा नासूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

आओ ना साहब यहाँ का चावड़ी बज़ार देखो
नाक सी सीधी गली में इत्र का व्यापार देखो
नफ़रतों को किस अदा से मिल रही है मात देखो
एक पंक्ति में खड़े हैं धर्म सब इक साथ देखो
इश्क़ कर मंजूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

चाट की लज़्ज़त उठाओ और परांठों का मज़ा लो
चावड़ी बाज़ार में हलवा-नगौरी ख़ूब खा लो
लुत्फ़ बालूशाही का लेना हो, यमुना पार कर लो
पान या कुल्फी खिलाकर जीभ का सत्कार कर लो
स्वाद है अमचूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

इस शहर को जान पाने का कोई ज़रिया नहीं है
नाम दरियागंज है, लेकिन वहाँ दरिया नहीं है
इस शहर में आदमीयत के अभी हिस्से मिलेंगे
तंग गलियों में बड़े दिल के कई किस्से मिलेंगे
प्यार है भरपूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

गुलमोहर के लाल फूलों के लिबासों का शहर है
टेसुओं का, नीम का और अमलतासों का शहर है
गुनगुनी-सी धूप में कचनार खिलता है यहाँ पर
हर गली में एक हरसिंगार मिलता है यहाँ पर
रंग कब बेनूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

जब ग़ज़ल छेड़ी तो छेड़ी ज़ौक़ का अंदाज़ लेकर
शायरी ग़ालिब ने की तो, इश्क़ को आवाज़ देकर
आज भी इक छाप ख़ुसरो की यहाँ आली मिलेगी
आज तक भी उर्स में मक़बूल क़व्वाली मिलेगी
मन रहा संतूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

चाह कर देखो नहीं है, कौन सा पकवान इसमें
इल्म उर्दू का बहुत है, और हिन्दी ज्ञान इसमें
जनवरी शिमला सरीखी,जून राजस्थान इसमें
ध्यान से देखो मिलेगा एक हिंदुस्तान इसमें
प्यार है दस्तूर दिल्ली का
दिल बहुत मशहूर दिल्ली का

© चिराग़ जैन

Monday, January 25, 2021

संविधान

धागेनातीनकगधिंन ताल चलती है पर
सुर सारेगामापाधानीसा में समाय के
नूपुर छनन छन, घनन घनन घण्ट
मृदंग बजत द्रुम द्रुम द्रुम गाय के
पंचम-निषाद तीव्र-कोमल से रंगे राग
दुगुन-तिगुन ताल भेद समझाय के
विलग विलग स्वर गान बनते हैं जब
सब एकरूप होते सम पर आय के

कभी सब त्याग वीतराग निज भान करे
कभी योग हर रोग का निदान हो गया
कभी बुद्ध, कभी युद्ध, कभी रुद्ध, कभी शुद्ध
कभी युद्ध जीतने के बाद ज्ञान हो गया
कभी ज्ञानियों का राजधानियों ने मान किया
कभी प्रेम ज्ञानवान से महान हो गया
विषम-विषम मान्यताओं के समक्ष भी है
सम जो विधान वही संविधान हो गया

© चिराग़ जैन

Sunday, January 10, 2021

व्यवस्थित अव्यवस्था

सिस्टम... यह एक ऐसा शब्द है, जो किसी भी भारतीय भाषा में अनूदित होकर प्रपंच बन जाता है। ईश्वर को जब सृष्टि का सर्वाधिक दीन प्राणी बनाना था, तो उसने भारतीय सिस्टम में फँसा मनुष्य बना डाला।
हमारा संविधान प्रत्येक नागरिक को ‘समानता का अधिकार’ देता है; इसलिए हमारा सिस्टम भी अपनी गिरफ़्त में आए सभी नागरिकों को समान रूप से प्रताड़ित करता है।
इस सिस्टम में सबसे ऊपर है, विधायिका। स्कूली किताबों ने विधायिका के विषय में यह अफ़वाह फैलाई है कि विधायिका क़ानून बनाती है। जैसे ही स्कूल की आदर्शवादी रामचरितमानस से निकलकर मनुष्य व्यवहारिकता की महाभारत बाँचता है तो उसे समझ आ जाता है कि विधायिका को सामान्य भाषा में राजनीति कहा जाता है और उसका केवल एक ही काम है- चुनाव जीतना। इस काम में राजनीति अपना जी, और नागरिकों की जान भी दाँव पर लगाने से नहीं चूकती।
संसद में क़ानून बनाने से लेकर सड़क पर भाषण देने तक और हँसने-रोने से लेकर उठने-बैठने और यहाँ तक कि जीने-मरने तक का एक ही लक्ष्य होता है, चुनाव जीतना। जिस कार्य से चुनाव जीता जा सके, उसे करने में राजनीति कभी पीछे नहीं रहती। फिर वह कार्य किसी को जीवन देने का हो या किसी का जीवन लेने का। राजनेता चुनाव जीतने के लिए ही दंगा शुरू करवाते हैं और फिर चुनाव जीतने के लिए ही दंगा बन्द भी करवाते हैं। टीवी डिबेट में गाली-गलौज से लेकर अपने-आप पर जूते-चप्पल फिंकवाने में भी इन्हें कोई परहेज नहीं होता। चुनाव जीतने के लिए ही बयान दिये जाते हैं और चुनाव जीतने के लिए ही उन बयानों से पलटा जाता है। नेता उपलब्ध है अर्थात् उसे वोट चाहिए और नेता व्यस्त है, अर्थात् उसे वोट मिल चुका है। चुनाव जीतने की इस मारामारी में जनता के दुःख-दर्द की सुधि लेने की फुर्सत किस कम्बख़्त के पास है?
अतएव, हे पार्थ! किताबों में लिखी लोकतंत्र की परिभाषाओं से भ्रमित न होओ। लोकतंत्र में तुम्हारी देह की स्थिति एक उंगली से अधिक नहीं है। यदि वोट देने के बाद उस उंगली का प्रयोग करने का विचार भी मन में आया तो यह व्यवस्था तुम्हारी शेष देह को जीते जी ही नारकीय कष्टों से अवगत करा देगी और फिर तुम युग की समाप्ति तक अपनी आत्मा पर अपनी देह का बोझ लादे हुए जीवित रहोगे। चूँकि सिस्टम की आत्मा होती ही नहीं है इसलिए उसकी आत्मा कभी मरती भी नहीं है। और जनता की आत्मा महाराज कुंभकर्ण के सिंहासन पर पैर पसारकर सोई हुई है।
विधायिका के इस विराट स्वरूप को जानने के पश्चात भारतीय नागरिक के मन में न्यायपालिका के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। चूँकि न्यायपालिका किसी के साथ भेदभाव नहीं करती अतः अपने द्वार पर आनेवाले सभी मुक़द्दमों को समान रूप से लटकाती है। काग़ज़ और औपचारिकताओं के भीषण जंजाल में फँसे न्यायालय की लय विलंबित प्रवृत्ति की है। इसलिए न्यायालय में एक बार प्रवेश करते ही मनुष्य के जीवन में ठहराव-सा आ जाता है। छह महीने प्रतीक्षा करने के बाद एक तारीख़ आती है, उस तारीख़ पर कई घण्टे प्रतीक्षा करने के बाद प्रार्थी को अपने मामले का नाम सुनाई देता है। बंदा इस आवाज़ को सुनने की ठीक से ख़ुशी भी नहीं मना पाता, कि तब तक दूसरे मामले की आवाज़ लग जाती है। लटके हुए मुँह को लेकर प्रार्थी कोर्ट के बाहर आता है तो वक़ील अगली तारीख़ नोट करवाकर उससे अपने परिश्रम का मेहनताना वसूलने की भूमिका बनाने लगते हैं। घुटन भरे इन न्यायालयों के पास पीड़ित के लिए केवल टूटन है, जिसे बटोरने का लिए लोग अखण्ड ज्योत से भी अधिक निष्ठावान बनकर माननीय न्यायालय में हर तारीख़ पर उपस्थित रहने के लिए विवश हैं। स्वाधीनता के बाद से अब तक किसी न्यायाधीश ने ‘न्याय’ को समय पर उपस्थित होने के समन जारी किए होते तो कदाचित न्याय व्यवस्था की ओर उम्मीद से देखती करोड़ों आँखें पथरा न गई होतीं।
विधायिका से जर्जर हुई देह और न्याय की प्रतीक्षा में पथराई हुई आँखों के साथ भी यदि किसी नागरिक में साँस बच जाएँ, तो उसके लिए लोकतंत्र में कार्यपालिका की पर्याप्त व्यवस्था है। यह कार्यपालिका सुरसा माई के मुख की भाँति असीम है। वायुमण्डल में जहाँ-जहाँ तक वायु है वहाँ-वहाँ तक कार्यपालिका है। यह कार्यपालिका विधायिका द्वारा बनाए गए विधान के आधार पर नागरिकों से ‘प्रत्यक्ष कर’ वसूल करती है। अपराध रोकने में इसकी कोई रुचि नहीं है, अपितु इसका पूर्ण विश्वास है कि अपराध मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति का अंग है, इसलिए यह हर नागरिक को अपराधी मानते हुए उससे अभद्र तथा अपमानजनक व्यवहार करती है। क्लर्क से लेकर हवलदार तक और अधिकारी से लेकर चौकीदार तक; सब व्यवस्थित रूप से जनता को यह समझाते रहते हैं कि सिस्टम से उलझने की भूल मत कर बैठना... क्योंकि लोकतंत्र में तंत्र से अधिक महत्वपूर्ण तो लोक भी नहीं होता।
हमने अपने बुजुर्गों से शायद कभी नहीं पूछा, लेकिन अगर हमारी पीढ़ियों ने हमसे इस सिस्टम के इस हाल का कारण पूछ लिया, तो उस समय हमारी ख़ामोशी हमें ख़ुद को भीतर तक बेन्ध जाएगी।

© चिराग़ जैन

Sunday, January 3, 2021

पाठक से लेखक बनने तक का सफ़र

हिन्दी साहित्य में दो क़िस्म के पाठक होते हैं। पहली श्रेणी है प्रशंसक पाठकों की। वे सोशल मीडिया पर खाता बनाते ही टटोल-टटोल कर लेखकों को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजते हैं। फिर उनकी हर पोस्ट को देखते ही उसके नीचे कुछ निश्चित शब्दयुग्म पेस्ट करके निकल लेते हैं। इस सबमें ये इतने व्यस्त होते हैं कि इन्हें रचनाएँ पढ़ने की भी फुर्सत नहीं मिल पाती। सुबह उठते ही वे पेंडिंग फाइल्स की तरह रचनाओं पर हस्ताक्षर करने बैठ जाते हैं। ‘वाह’; ‘अद्भुत’; ‘कालजयी’; ‘क़माल’; ‘लाजवाब’ और ‘निःशब्द’ जैसे अनेक शब्द इनके क्लिपबोर्ड पर हमेशा तैयार रहते हैं। इस प्रवृत्ति को देखते हुए फेसबुक ने ‘मान गए गुरु’; ‘सुपर’; ‘यू आर बेस्ट’ और ‘ब्यूटीफुल’ जैसे डिजिटल प्रशंसाक्षरों के एनिमेशन भी बना दिए हैं।
इस श्रेणी के पाठकों ने अनेक कानितकरों को तेंदुलकर होने का भ्रम पलवाया है। लेकिन इनसे भी ख़तरनाक़ होते हैं दूसरी क़िस्म के पाठक। ये भी फेसबुक पर प्रकट होते ही बाक़ायदा रचनाकारों को टटोलते हैं। लेकिन ये प्रथम दिवस से यह माने बैठे होते हैं कि यदि तुलसीदास जी ने मानस की प्रूफ रीडिंग इनसे कराई होती तो मानस आज ब्रह्मांड स्तरीय रचना बन गयी होती।
हर रचना पर प्रतिक्रिया देने की ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ इन्होंने भी उठा रखी होती है। किन्तु ये प्रथम श्रेणी के पाठकों की तरह आलस्य में बिना पढ़े रचना के नीचे अपनी टिप्पणी नहीं लिखते; बल्कि ये तब तक किसी रचना को पढ़ते हैं जब तक इनके भीतर का नामवर जागकर उस रचना से लंबी टिप्पणी तैयार न कर ले। एक बात तय है, इनकी टिप्पणी का सामान्यता एक स्थायी भाव होता है कि तुम बिना बात के कवि/लेखक बने डोल रहे हो और इस जनभावना में अपना स्वर मिलाकर मैं अपने भीतर के रामविलास शर्मा का गला नहीं घोंट सकता।
मेघनाद के निकुम्बरा यज्ञ की भाँति जब इनकी कठिन साधना को भंग करने इनके भीतर स्वयं लेखक बन जाने के वानर कुलबुलाने लगते हैं तब ये अपनी समस्त सृजनात्मक नेगिटीविटी का गट्ठड़ बनाकर मंचीय कवियों अथवा लेखकों के आचरण अथवा जीवन पर कुछ लिखते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि सृजन ‘चाहे कैसा भी हो’ उसके बिम्ब का आकाश रचनाकार की सोच से बड़ा नहीं हो सकता।
फिर अपने लिखे इस ‘कुछ’ की किसी स्थापित साहित्यिक विधा से तुलना करते हुए ये अपनी जंघा पीटने लगते हैं। मांसल जंघा पर हथेली की चपत से जो ध्वनि उत्पन्न होती है उसे ‘घनघोर तालियाँ’ समझकर ये प्रसन्न हो उठते हैं।
इसके बाद इनकी लेखनी यकायक ‘केवट की नौका’ से ‘पुष्पक विमान’ हो जाती है। जिसकी भी पंचवटी में ‘सीता’ सरीखी कोई स्त्री हो, उससे इनका स्वाभाविक वैर हो जाता है।
अब ये दिन भर अपनी शूपर्णखा को त्रिकालसुंदरी घोषित करने के प्रयास में रहते हैं और रात भर सीतायुक्त आंगनों पर पत्थर मारने में व्यस्त रहते हैं। इनके लिखे पर भी वाह-वाह करनेवालों की कभी कमी नहीं होती, क्योंकि प्रथम श्रेणी के पाठकों का क्लिपबोर्ड भी क़ानून की देवी की तरह सबको आँख पर पट्टी बांधकर देखता है।
लेकिन रात में जिन आंगनों पर इनके पत्थर बरसते हैं, उनकी मुस्कुराहटों पर इन निशाचरी खरोंचों के निशान देर तक दिखाई देते हैं।

© चिराग़ जैन

Saturday, January 2, 2021

हम तुम पार उतर जाएंगे

सुख होगा, उल्लास रहेगा
कभी-कभी कुछ त्रास रहेगा
जब सम्बन्ध निभेगा तो फिर
उसमें हर एहसास रहेगा
अच्छे-बुरे समय से हम-तुम, मिलकर साथ गुज़र जाएंगे
अपनेपन की नौका लेकर, इक दिन पार उतर जाएंगे 

हम दोनों ने इस क़िस्से को मिलकर साथ सँवारा भी है
इक किरदार तुम्हारा भी है, इक किरदार हमारा भी है
अपना-अपना पात्र निभाकर, दोनों अपने घर जाएंगे 

चाहे मुझसे रूठ भी जाना, कटु शब्दों के बान चलाना
लेकिन जब मैं तुम्हें मनाऊँ, तब तुम झटपट मान भी जाना
आँसू आए तो आँखों से फूल सरीख़े झर जाएंगे 

उत्सव जैसा जीवन होगा, उत्सव का अवसान भी होगा
कभी-कभी सन्नाटा होगा, कभी-कभी तूफ़ान भी होगा
जो भी हो, हम साथ रहे तो सब व्यवधान बिखर जाएंगे 

कुछ उम्मीदें भी टूटें तो, उसमें अपना साथ न टूटे
कैसी भी खींचातानी हो, इक-दूजे का हाथ न छूटे
बस इतना भर हो पाया तो, दिन ख़ुशियों से भर जाएंगे

© चिराग़ जैन