सिस्टम... यह एक ऐसा शब्द है, जो किसी भी भारतीय भाषा में अनूदित होकर प्रपंच बन जाता है। ईश्वर को जब सृष्टि का सर्वाधिक दीन प्राणी बनाना था, तो उसने भारतीय सिस्टम में फँसा मनुष्य बना डाला।
हमारा संविधान प्रत्येक नागरिक को ‘समानता का अधिकार’ देता है; इसलिए हमारा सिस्टम भी अपनी गिरफ़्त में आए सभी नागरिकों को समान रूप से प्रताड़ित करता है।
इस सिस्टम में सबसे ऊपर है, विधायिका। स्कूली किताबों ने विधायिका के विषय में यह अफ़वाह फैलाई है कि विधायिका क़ानून बनाती है। जैसे ही स्कूल की आदर्शवादी रामचरितमानस से निकलकर मनुष्य व्यवहारिकता की महाभारत बाँचता है तो उसे समझ आ जाता है कि विधायिका को सामान्य भाषा में राजनीति कहा जाता है और उसका केवल एक ही काम है- चुनाव जीतना। इस काम में राजनीति अपना जी, और नागरिकों की जान भी दाँव पर लगाने से नहीं चूकती।
संसद में क़ानून बनाने से लेकर सड़क पर भाषण देने तक और हँसने-रोने से लेकर उठने-बैठने और यहाँ तक कि जीने-मरने तक का एक ही लक्ष्य होता है, चुनाव जीतना। जिस कार्य से चुनाव जीता जा सके, उसे करने में राजनीति कभी पीछे नहीं रहती। फिर वह कार्य किसी को जीवन देने का हो या किसी का जीवन लेने का। राजनेता चुनाव जीतने के लिए ही दंगा शुरू करवाते हैं और फिर चुनाव जीतने के लिए ही दंगा बन्द भी करवाते हैं। टीवी डिबेट में गाली-गलौज से लेकर अपने-आप पर जूते-चप्पल फिंकवाने में भी इन्हें कोई परहेज नहीं होता। चुनाव जीतने के लिए ही बयान दिये जाते हैं और चुनाव जीतने के लिए ही उन बयानों से पलटा जाता है। नेता उपलब्ध है अर्थात् उसे वोट चाहिए और नेता व्यस्त है, अर्थात् उसे वोट मिल चुका है। चुनाव जीतने की इस मारामारी में जनता के दुःख-दर्द की सुधि लेने की फुर्सत किस कम्बख़्त के पास है?
अतएव, हे पार्थ! किताबों में लिखी लोकतंत्र की परिभाषाओं से भ्रमित न होओ। लोकतंत्र में तुम्हारी देह की स्थिति एक उंगली से अधिक नहीं है। यदि वोट देने के बाद उस उंगली का प्रयोग करने का विचार भी मन में आया तो यह व्यवस्था तुम्हारी शेष देह को जीते जी ही नारकीय कष्टों से अवगत करा देगी और फिर तुम युग की समाप्ति तक अपनी आत्मा पर अपनी देह का बोझ लादे हुए जीवित रहोगे। चूँकि सिस्टम की आत्मा होती ही नहीं है इसलिए उसकी आत्मा कभी मरती भी नहीं है। और जनता की आत्मा महाराज कुंभकर्ण के सिंहासन पर पैर पसारकर सोई हुई है।
विधायिका के इस विराट स्वरूप को जानने के पश्चात भारतीय नागरिक के मन में न्यायपालिका के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। चूँकि न्यायपालिका किसी के साथ भेदभाव नहीं करती अतः अपने द्वार पर आनेवाले सभी मुक़द्दमों को समान रूप से लटकाती है। काग़ज़ और औपचारिकताओं के भीषण जंजाल में फँसे न्यायालय की लय विलंबित प्रवृत्ति की है। इसलिए न्यायालय में एक बार प्रवेश करते ही मनुष्य के जीवन में ठहराव-सा आ जाता है। छह महीने प्रतीक्षा करने के बाद एक तारीख़ आती है, उस तारीख़ पर कई घण्टे प्रतीक्षा करने के बाद प्रार्थी को अपने मामले का नाम सुनाई देता है। बंदा इस आवाज़ को सुनने की ठीक से ख़ुशी भी नहीं मना पाता, कि तब तक दूसरे मामले की आवाज़ लग जाती है। लटके हुए मुँह को लेकर प्रार्थी कोर्ट के बाहर आता है तो वक़ील अगली तारीख़ नोट करवाकर उससे अपने परिश्रम का मेहनताना वसूलने की भूमिका बनाने लगते हैं। घुटन भरे इन न्यायालयों के पास पीड़ित के लिए केवल टूटन है, जिसे बटोरने का लिए लोग अखण्ड ज्योत से भी अधिक निष्ठावान बनकर माननीय न्यायालय में हर तारीख़ पर उपस्थित रहने के लिए विवश हैं। स्वाधीनता के बाद से अब तक किसी न्यायाधीश ने ‘न्याय’ को समय पर उपस्थित होने के समन जारी किए होते तो कदाचित न्याय व्यवस्था की ओर उम्मीद से देखती करोड़ों आँखें पथरा न गई होतीं।
विधायिका से जर्जर हुई देह और न्याय की प्रतीक्षा में पथराई हुई आँखों के साथ भी यदि किसी नागरिक में साँस बच जाएँ, तो उसके लिए लोकतंत्र में कार्यपालिका की पर्याप्त व्यवस्था है। यह कार्यपालिका सुरसा माई के मुख की भाँति असीम है। वायुमण्डल में जहाँ-जहाँ तक वायु है वहाँ-वहाँ तक कार्यपालिका है। यह कार्यपालिका विधायिका द्वारा बनाए गए विधान के आधार पर नागरिकों से ‘प्रत्यक्ष कर’ वसूल करती है। अपराध रोकने में इसकी कोई रुचि नहीं है, अपितु इसका पूर्ण विश्वास है कि अपराध मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति का अंग है, इसलिए यह हर नागरिक को अपराधी मानते हुए उससे अभद्र तथा अपमानजनक व्यवहार करती है। क्लर्क से लेकर हवलदार तक और अधिकारी से लेकर चौकीदार तक; सब व्यवस्थित रूप से जनता को यह समझाते रहते हैं कि सिस्टम से उलझने की भूल मत कर बैठना... क्योंकि लोकतंत्र में तंत्र से अधिक महत्वपूर्ण तो लोक भी नहीं होता।
हमने अपने बुजुर्गों से शायद कभी नहीं पूछा, लेकिन अगर हमारी पीढ़ियों ने हमसे इस सिस्टम के इस हाल का कारण पूछ लिया, तो उस समय हमारी ख़ामोशी हमें ख़ुद को भीतर तक बेन्ध जाएगी।
© चिराग़ जैन