Wednesday, September 29, 2021

चरित्र निर्माण के विवेकहीन पाठ्यक्रम

बचपन में हमें जो कहानियाँ पढ़ाई गयी हैं; उनके झोलझाल को समझने में पूरी ज़िन्दगी कन्फ्यूज़ हो गयी है। कबूतर और बहेलिये की कहानी ने हमारे दिमाग़ में भरा कि हमें सबकी मदद करनी चाहिए। तो सारस और केकड़े वाली कहानी ने बताया कि जिसकी मदद करोगे, वही तुम्हें मार डालेगा।
बन्दर और मगरमच्छ की कहानी पढ़कर हम समझ गए कि जिसे हम मीठे जामुन खिलाएंगे, वही दोस्त एक दिन हमारा कलेजा खाने के षड्यंत्र में शामिल होगा। यह सोचकर हम दोस्तों को संदेह की दृष्टि से देखने लगे तो अध्यापक ने शेर और चूहे की कहानी पढ़ाकर बताया कि इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि यदि हमें अपने दोस्तों का भला करेंगे तो दोस्त भी हमारा भला करेंगे।
लोमड़ी और सारस की कहानी पढ़कर हमने ‘जैसे को तैसा’ सरीखा महान वाक्य सीख लिया तो ‘साधु और बिच्छू’ की कहानी ने बताया कि यदि बिच्छू अपनी बुराई नहीं छोड़ रहा तो साधु अपनी अच्छाई क्यों छोड़े।
इन विरोधाभासी कहानियों को पढ़कर जो पीढ़ी तैयार हुई उसके सामने यह मुसीबत हमेशा बनी रही कि वह साधु की तरह बिच्छू के डंक को इग्नोर करके उसे बचाए या फिर लोमड़ी की तरह सुराही का बदला लेने के लिए थाली में खीर परोसकर सारस के सामने रख दे।
हम यह बूझते ही रह जाते हैं कि सूई चुभोनेवाले दर्जी पर कीचड़ फेंकने वाला हाथी बनना है या फिर राजा की उंगली कटने पर ‘ईश्वर जो करता है अच्छे के लिए करता है’ कहने वाला मंत्री बनना है।
हमारे पाठ्यक्रम निर्माताओं ने सम्भवतः यह विचार ही नहीं किया कि वे वास्तव में बच्चों को बताना क्या चाहते हैं। उन्हें यह समझ ही नहीं आया कि लकड़हारे की जिस कहानी से बच्चों को ‘संगठन में शक्ति है’ का पाठ पढ़ा रहे थे, उसी कहानी से कुछ बच्चे ‘फूट डालो शासन करो’ का गुर सीख बैठे।
उन्हें यह भान ही न रहा कुल्हाड़ी और जलपरी वाली जिस कहानी से ईमानदारी की शिक्षा देने निकले थे उसी कहानी का अंत होते-होते वे ईमानदारी के साथ लालच का स्वाद चखा बैठे।
यदि इन कहानियों का व्यक्तित्व के निर्माण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो फिर इन भालू, बन्दर, खरगोश और कछुओं की अनावश्यक गल्प को पढ़ाने में बचपन का क़ीमती समय क्यों नष्ट किया गया? और यदि इन्हीं कहानियों के आधार पर बच्चों का चरित्र निर्माण होता है, तो फिर इनमें इतना विरोधाभास क्यों देखने को मिला? इस विषय को इतना ग़ैर-ज़िम्मेदार रवैये से कैसे देखा जा सकता है?
एक ओर ‘हार की जीत’ जैसी कहानी पढ़ाकर हमें यह बताया गया कि यदि बाबा भारती अपने आचरण को संयत कर लें तो खड़गसिंह जैसे डाकू का भी हृदय परिवर्तन हो सकता है। लेकिन दूसरी तरफ़ हमें यह भी बताया गया कि चींटी ने हाथी की सूंड में घुसकर उसके अहंकार को चकनाचूर कर दिया। अब जब भी अपने अहंकार के मद में चूर होकर मेरी सुख-शांति में सेंध लगाता है तो मैं समझ नहीं पाता कि मुझे बाबा भारती जैसा आचरण करना है या फिर उस अहंकारी की सूंड में घुसकर उसे काट लेना है।
इन कहानियों ने हमारी बौद्धिक क्षमताओं को इतना कुंद कर दिया है कि हम सही और ग़लत का विवेक भूलकर कहानी के एक पक्ष को पकड़कर उसके पीछे चल पड़ते हैं।
इन्हीं कहानियों की बदौलत हम एक पूरी पीढ़ी को ऐसे मस्तिष्क की सौगात दे बैठे हैं, जो एक बार जिसे नायक मान ले, फिर उसकी सब बातें उसे सही लगने लगती हैं।
इसी कन्फ्यूज़न की वजह से हमें ‘दीवार’ फ़िल्म में स्मगलर बना अमिताभ जस्टिफाइड लगता है और ‘ज़ंजीर’ फ़िल्म में पुलिसवाला बना अमिताभ जस्टिफाइड लगता है। इसी अविवेक की वजह से हम शहंशाह फ़िल्म में क़ानून अपने हाथ में लेनेवाला अमिताभ भी पसंद है और शोले फ़िल्म में गब्बर की सुपारी लेनेवाला अमिताभ भी पसंद है।
हम दरअस्ल कहानी को समझते ही नहीं हैं। बल्कि हम तो नायक की पूँछ पकड़कर कथानक और अन्य पात्रों का आकलन करते हैं।
बचपन मे अध्यापक ने जिसकी ओर इंगित करके बता दिया कि यह नायक है, हमने उसके दृष्टिकोण से कहानियों को समझने में बचपन बिता दिया।
डायरेक्टर ने इशारे से जिसको नायक के रूप में प्रस्तुत कर दिया, उसकी नशाखोरी और आपराधिक कृत्यों को भी हमने स्टाइल कहकर जस्टिफाई कर लिया।
राजनीति ने जिसे नायक बनाकर प्रस्तुत कर दिया, उसके षड्यंत्र को भी हमने यह कहकर प्रचारित किया कि देखो अपने विरोधियों को क्या मज़ा चखाया है।
इन नायकों को महान मानने में हमारे देश का नुक़सान हुआ तो हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, हमारे समाज का बेड़ा ग़र्क हुआ तो भी हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा और हमारे चरित्र में अविवेक की दीमक लग गयी तो भी हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा।

© चिराग़ जैन

Thursday, September 23, 2021

झाँसी की रानी

उन हाथों में बिजली की तेज़ी थी; तलवारों से पूछो
दुर्गा का साक्षात रूप थी; युग के हरकारों से पूछो
आँखों में अंगार, पीठ पर ममता लेकर ऊँचाई से
कैसे कूदी थी इक रानी; जाकर दीवारों से पूछो

हिम्मत की राहों में जब भी आईं तो चुक गयी दीवारें
कैसे कूदेगी अम्बर से रानी; उत्सुक भयी दीवारें
चण्डी स्वयं विराज रही थी उस दिन झाँसी की रानी में
रानी के तेवर देखे तो धरती तक झुक गयी दीवारें

© चिराग़ जैन

Sunday, September 12, 2021

दो साल बाद कवि सम्मेलन

दो साल के घनघोर निठल्लेपन के बाद मुझे कवि-सम्मेलन का आमंत्रण मिला तो मैं फूला नहीं समा रहा था। सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल न होता तो उस दिन मेरा आयतन दो गज की सीमा को पार कर गया होता। जिस मोबाइल की घण्टी से भी रेमडिसिवर की बदबू आने लगी थी, उससे फिर से होटल से उठाए हुए शैम्पू और साबुन की ख़ुशबू आने लगी।
कोविड के भयावह दौर से गुज़र कर जो धड़कन विरक्ति की झपताल में चलने लगे गयी थी उसने यकायक द्रुत गति की कहरवा का रुख़ कर लिया।
पुराने मकान की दीवार पर गड़ी हुई कील में युगों से लटक रहे रस्सी के टुकड़े जैसी बेकार मेरी उंगलियाँ अचानक हाईटेंशन वायर की तरह फड़फड़ाने लगीं। मैनें मोबाइल में पड़ी ट्रेवल एप को इन फड़फड़ाती उंगलियों से छुआ तो उस एप्प ने मुझे उसी दृष्टि से देखा जिस दृष्टि से कभी देवकी माई ने कंस को मारकर आए कन्हैया को देखा होगा।
‘डिपार्चर’; ‘अराइवल’; ‘ट्रेवल डेट’ और ‘पैसेंजर डिटेल’ जैसे शब्दों को पढ़कर मेरी आँखें भर आईं। भीगी पलकों से बुक हुई टिकट को देखा तो उसका एक-एक शब्द अजंता की किसी अप्रतिम पेंटिंग की तरह मन पर छप गया। जिस एयरलाइंस के लोगो को भी कभी नज़र उठाकर नहीं देखा था, उसके लोगो की एक-एक लकीर को आँखों में बसा लिया। पीएनआर ऐसे रट गया, ज्यों साधनारत किसी तपस्वी को मंत्र रट जाता है।
टिकट बुकिंग का अलौकिक आनन्द उठाने के पश्चात मेरी गर्दन ने घूमकर कमरे के उस कोने पर दृष्टिपात किया, जहाँ चार-चार पहियों की स्वामिनी एक अटैची दो वर्ष से जड़वत खड़ी थी। ज्यों ही मैंने उसे छुआ तो ऐसा महसूस हुआ कि बरसों से पाषाण की तरह जी रही किसी अहल्या में प्राण संचरित हो गये हों। मेरे हाथ लगाते ही वह अपने चारों पहियों पर एक साथ नृत्य कर उठी। हैंडल पकड़कर मैंने उस पर नियंत्रण न किया होता तो वह उसी क्षण दौड़कर हवाई अड्डे पहुँच गयी होती।
मैंने बड़े प्यार से अटैची को बिस्तर पर लिटाया। फिर सलीक़े से उसकी ज़िप को टटोल कर रनर को पकड़ा। अटैची की ज़िप खुलने की आवाज़ सुनने को व्याकुल कान उत्साह में आँख के करीब झुक चुके थे। रनर एक निश्चित दिशा में चलने लगा और अटैची की सीत्कार जैसी आवाज़ ने पूरे माहौल को रोमांचित कर दिया। दोनों रनर बौराए हुए तीतरों की भाँति अलग-अलग दिशा में दौड़ गये और मेरे बाएँ हाथ ने आगे बढ़कर लगभग इस अंदाज़ में अटैची के दोनों फलक खोल दिये ज्यों अलीबाबा सिमसिम के भीतर कोई ख़ज़ाने का बक्सा खोल रहा हो। अटैची खुलते ही मेरी आँखें अटैची से होड़ करने लगीं। हालाँकि यह मुझे पहले से पता था कि अटैची ख़ाली होगी लेकिन फिर भी मैं आँख फाड़-फाड़कर उस ख़ालीपन को अपनी आँखों में भर लेना चाहता था।
अटैची में सजाने को जब मैंने कपड़ों की अलमारी खोली तो अलमारी के कब्ज़ों ने चूँ की आवाज़ करके मुझे सूचना दे दी कि कपड़े काफ़ी नाराज़ हैं, ज़्यादा चू-चपड़ मत करना। मैंने शर्मिंदगी से भरकर कलफ़ लगे कपड़ों की ओर देखा तो उन्होंने मुझे उसी हिकारत से देखा जैसे द्रौपदी ने चीरहरण के बाद युधिष्ठिर को देखा था। किंतु ढीठ होकर मैंने भी हैंगर पकड़कर एक जोड़ी पैंट-शर्ट को ठीक वैसे उतार लिया जैसे कीचक की अभद्रता के बाद भी कंक ने सैरन्ध्री को समझाने-बुझाने की हिम्मत जुटा ली थी।
लेकिन इस बार कपड़े मुझसे ज़्यादा ढीठ निकले। हैंगर से उतरने के बाद भी उनके माथे पर एक सिलवट पड़ी रह ही गयी थी। मैं समझ गया कि इस बार नरमी से काम न चलेगा। इतने दिन एक ही आसन में टँके-टँके कपड़ों ने अकड़ना सीख लिया है, सो मैंने भी इस्तरी लेकर उन्हें गर्मी दिखाई तब जाकर मुआमला शान्त हो सका।
एक-एक सामान को समझा-बुझाकर अटैची में जमाने के बाद अटैची के दोनों रनर्स को पुनः क़रीब लाया गया और महीनों से ख़ाली खड़ी बेचारी अटैची को तृप्त करके एक ओर खड़ा कर दिया गया। भीतर से भरे व्यक्तित्व की तरह अटैची का आत्मविश्वास भी देखने लायक था। पहले छूने भर से बौरा जाने वाली अटैची अब हिलाने पर भी ठहरकर पाँव बढ़ा रही थी।
मैं पूरी तैयारी करके मोबाइल में सुबह चार बजे का अलार्म लगाने लगा तो मोबाइल की घड़ी ने टोका - ‘इतने फॉर्मल क्यों हो रहा है बे, दो साल बाद कार्यक्रम का आमंत्रण मिला है। दस तो बज ही गए हैं... चार-छह घण्टे इस आमंत्रण का प्रचार कर... इस क्षण को एन्जॉय कर...!’
मुझे अपने टुच्चेपन पर शर्मिंदगी हुई। भरा हुआ कवि भी भला सोता है! यही तो समय है आत्मविश्वास के साथ बाक़ी कवियों को फोन कर-करके यह कहने का- ‘चलो, अब मैं सोता हूँ, सुबह जल्दी उठना है, छह बजे एयरपोर्ट पहुँचना है ना!’

© चिराग़ जैन

Saturday, September 11, 2021

अनुवाद : परिकल्पना और वस्तुस्थिति

चूँकि उड़ने के लिए पंख फैलाने आवश्यक होते हैं, इसलिए उड़ते हुए पक्षी का आकार, बैठे हुए पक्षी के आकार से बड़ा हो जाता है। भाषा का आकार विस्तृत करके उसे सुदूर यात्रा के योग्य बनाने के लिए ‘अनुवाद’ पंखों की भूमिका निर्वाह करता है। अनुवाद, भाषा के ज्ञानकोष को समृद्ध करता है। अनुवाद के पंख लगाकर ही एक भाषा की रचना अन्यान्य भाषा-भाषियों तक यात्रा करती है।
अनुवाद के महत्त्व को हम यूँ समझ सकते हैं कि रूसी साहित्य के फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की की रचना ‘अपराध और दण्ड’ को हिन्दी के पाठकों तक पहुँचाना अनुवाद के बिना सम्भव नहीं था। इसी प्रकार रबीन्द्रनाथ टैगोर, शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, लियो टॉलस्टॉय, जेन ऑस्टेन, वर्जीनिया वूल्फ, मार्क ट्वेन, व्लादिमीर नामोकोव, जॉर्ज इलियट, होमर, जॉन मिल्टन, मुंशी प्रेमचंद और कुर्रतुल-ऐन-हैदर समेत सैंकड़ों रचनाकार अनुवाद के जादुई कालीन पर बैठकर ही समूचे विश्व में लोकप्रिय हो सके हैं।
एक अनुवादक का दायित्व कई अर्थों में मूल लेखक से अधिक हो जाता है। वह केवल शब्दों का ही अनुवाद नहीं करता बल्कि स्रोत भाषा के सांस्कृतिक परिवेश तथा लक्ष्य भाषा के सांस्कृतिक परिवेश के मध्य भी सामंजस्य स्थापित करने का दायित्व निर्वाह करता है। साहित्यिक अनुवाद में तो यह दायित्व-बोध सामान्य अनुवाद की तुलना में कई गुना अधिक हो जाता है।
उदाहरण के लिए, यदि अंग्रेजी की किसी कहानी का अनुवाद हिन्दी भाषा में किया जाए तो अनुवादक को इंग्लैंड के परिवेश तथा भारत के परिवेश का व्यवहारिक ज्ञान होना आवश्यक है। चूँकि इंग्लैंड में ठण्ड अधिक पड़ती है इसलिए ग्रीष्म ऋतु उनके लिए सुहावनी होती है। लेकिन भारत में यदि यह लिखा जाए कि ‘गर्मी की सुहानी ऋतु थी’ तो पाठक को यह हास्यास्पद जान पड़ेगा। इसी प्रकार हिन्दी में ‘गुलाब’ पुल्लिंग है और अंग्रेजी में ‘रोज़’ स्त्रीलिंग है। कोरा शब्दानुवाद किसी कृति की भावभूमि का मर्म स्पर्श करने की बजाय उसे बेढंग का बनाकर छोड़ देता है।
इसमें भी हिन्दी कविता के अनुवाद के सम्मुख एक कठिनाई इसकी छन्दबद्धता भी है। अनेक हिन्दी कविताएँ ऐसी हैं जिनमें कथ्य से अधिक आनन्द उनके शिल्पपक्ष का है। बुनावट के इस आनन्द को लक्ष्य भाषा तक ले जाना लगभग असंभव है।

हरि गरज्यो, हरि बरस्यो, हरि आयो हरि पास।
पर जब हरि, हरि में गया, तब हरि भयो उदास।।

इस दोहे में रचनाकार ने ‘हरि’ शब्द के विभिन्न अर्थों का प्रयोग करके श्लेष अलंकार का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है, किन्तु इसको यदि किसी अन्य भाषा में अनूदित किया जाएगा तो यह दोहा तीसरी-चौथी कक्षा के पाठ्यक्रम की एक बेहद सामान्य उक्ति से अधिक कोई अर्थ न संजो सकेगा।
रीतिकाल की रचनाओं में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जो यदि किसी अन्य भाषा में अनूदित कर दिए जाएँ तो गूगल उन्हें ‘इनएप्रोप्रिएट कन्टेन्ट’ समझकर अमान्य कर देगा। किन्तु हिन्दी में वे ही रचनाएँ श्रेष्ठ सौंदर्य तथा काव्य-शिल्प के लिए रेखांकित की जाती हैं।
ग़ज़ल के रदीफ़-काफ़िये उसके सौंदर्य का आधार बन जाते हैं। उन्हें अनुवाद के माध्यम से किसी अन्य भाषा तक साध लेना लगभग असंभव है।

यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है

इस शेर में प्रयुक्त लफ़्ज़ ‘आह’ को ठीक इसी भाव के साथ किसी भी अन्य भाषा तक ले जाना सम्भव नहीं है, और इस लफ़्ज़ की इस प्रयोजनीयता के आभाव में इस शेर की प्रभावोत्पादकता भंग हो जाती है।
यही कारण है कि हिन्दी की छंदबद्ध कविताएँ या तो अनुवादकों की वरीयता पर नहीं आ पातीं या फिर अनुवाद के बाद उनकी रस-निष्पत्ति लगभग शून्य हो जाती हैं।
ऐसा माना जाता है कि एक अच्छे अनुवादक को स्रोत भाषा की सामान्य तथा लक्ष्य भाषा की विशेष जानकारी होनी चाहिए। जबकि मेरा मानना है कि एक अच्छे अनुवादक को स्रोत भाषा तथा लक्ष्य भाषा दोनों की विशेष जानकारी के साथ-साथ दोनों भाषाओं के मुहावरे की भी जानकारी होनी चाहिये। एक साहित्यिक अनुवादक को दोनों भाषाओं के सांस्कृतिक, सामाजिक तथा पौराणिक परिवेश की भी अच्छी जानकारी होनी चाहिए। तथा कविता का अनुवाद करनेवाले व्यक्ति को दोनों भाषाओं की सामाजिक संवेदना का भी गहरा ज्ञान होना चाहिए।
इस गुण के अभाव में किसी कविता का अनुवाद तो किया जा सकता है किंतु उस अनूदित कृति को ‘कविता’ नहीं कहा जा सकता।
इधर कुछ समय से हिन्दी के अनुवादकों ने अपना पूरा ध्यान कार्यालयी अनुवाद पर केंद्रित कर लिया है। राजभाषा विभाग में नौकरी प्राप्त कर लेना उनके अनुवाद कर्म का अंतिम लक्ष्य है। मैं यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वर्तमान में अधिकतर राजभाषा विभागों में लिप्यन्तरण को अनुवाद समझा जा रहा है। यही कारण है कि सरकारी प्रपत्रों तथा दस्तावेज़ों में या तो अंग्रेजी अथवा अरबी के शब्दों को यथावत देवनागरी में लिख दिया जाता है या फिर उसको इतना क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ रूप दे दिया जाता है कि वह भाषा के उपहास का कारण बन जाते हैं।
मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि भाषा को जटिल बनाकर उसकी हँसी उड़वाने से बेहतर है कि उसे सहिष्णु बनाकर उसका सरलीकरण कर दिया जाए। कार्यालयी अनुवाद तथा वैज्ञानिक व तकनीकी अनुवाद में हमें यह बात स्वीकार करनी होगी कि विज्ञान, तकनीक तथा कार्यालयी व्यवस्थाओं का जो स्वरूप हमने वर्तमान में अंगीकार किया है, उसका उद्गम संस्कृत से न होकर अंग्रेजी अथवा अरबी से होता है। इस हेतु कम्प्यूटर को ‘संगणक’ कहने की ज़िद्द ठानने से बेहतर है कि हम उसे देवनागरी में ‘कम्प्यूटर’ लिखकर संतोष कर लें।
शब्द आयात करने में भाषा की कोई हानि नहीं होती, जबकि व्याकरण को अनदेखा कर देने से भाषा अपंग हो जाती है। कार्यालयी कामकाज में कई बार ऐसा फूहड़ अनुवाद किया जाता है कि हिन्दी के दस्तावेज़ में भी अंग्रेजी का व्याकरण शेष रह जाता है। इन काग़ज़ात को पढ़कर ऐसा लगता ही नहीं कि आप हिन्दी भाषा पढ़ रहे हैं। जिन लोगों ने कभी अदालती दस्तावेज़ पढ़े हैं या निविदा आदि की सूचनाएँ पढ़ी हैं, वे मेरी बात से जल्दी सहमत हो सकेंगे।
गूगल ट्रांसलेशन की सुविधा से इस प्रदूषण में दिन दूनी, रात चौगुनी प्रगति हुई है। अंग्रेजी के पत्र को गूगल ट्रांसलेशन से हिंदी में कन्वर्ट करके कार्यालय की दृष्टि में हिंदी को और अधिक अनुपयोगी बनाने में कर्मठ राजभाषा कार्मिकों ने महती भूमिका निभाई है।
राजभाषा विभागों की प्रतिष्ठापना करनेवालों ने स्वप्न यह देखा था कि एक दिन सभी सरकारी दस्तावेज़ मूल रूप से हिंदी में होंगे और विभाषीय क्षेत्रों में पत्राचार करने के लिए उनको अंग्रेजी भाषा में अनूदित करके प्रेषित किया जाएगा। किन्तु अनुवाद की लापरवाही के कारण वस्तुस्थिति यह है कि आज दफ़्तरों में प्रत्येक पत्र मूलतः अंग्रेजी में है और राजभाषा के आँकड़े पूरे करने के लिए उनका अल्लम-गल्लम देवनागरी रूपांतरण करके उन्हें आवश्यक औपचारिकता के रूप में द्विभाषी बनाकर संलग्न कर दिया जाता है। इस अनूदित काग़ज़ की क्षमता तथा उपयोगिता का अनुमान स्वयं कार्यालय को भी होता है, इसी कारण अक्सर द्विभाषी दस्तावेज़ों पर यह डिस्क्लेमर दिया जाता है कि किसी विवाद की स्थिति में अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत नियमावली को प्रमाण माना जाएगा।
अनुवाद को उत्तरदायित्व के स्थान पर औपचारिकता बनाने का ही एक दुष्परिणाम यह है कि गणित, तकनीक तथा विज्ञान जैसे विषयों के हिन्दी अनुवाद केवल ख़ानापूर्ति के लिए प्रकाशित किये जाते हैं। उनकी उपादेयता के विषय में न तो अनुवादक गम्भीर दिखाई देते हैं, न ही प्रकाशक। हाँ, विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करनेवाले मंत्रालय तथा विभाग अपने राजभाषा विभाग के आँकड़े पूरे करने के लिए इस प्रकार के फूहड़ अनुवादों को पुरस्कृत करके हिन्दी के प्रति गाम्भीर्य का अभिनय अवश्य कर लेते हैं।
अर्थशास्त्र तथा सांख्यिकी जैसे विषयों के अनुवादकों ने इतना सहयोग अवश्य किया है कि उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे राज्यों में इन विषयों की उच्च शिक्षा का माध्यम हिन्दी रखना सम्भव हो सका। अभियांत्रिकी तथा चिकित्सा जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र इस सुख से भी या तो वंचित हैं या फिर कोरी औपचारिकता के निर्वहन से धीरज धरे बैठे हैं।
अनुवादक यदि ठान लें तो वे बहुत कम समय में हिंदी की प्रयोजनमूलकता में इतनी वृद्धि कर सकते हैं कि राजभाषा का स्वप्न देखनेवाली आँखों की पथराई पुतलियाँ चमकने लग जाएँ। विश्व साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों की सूची में हिंदी की भी कुछ रचनाएँ सम्मिलित हो सकें। यदि अनुवादक थोड़े गम्भीर हो जाएँ, तो हिन्दी क्षेत्र के सरकारी स्कूलों में पढ़कर बड़े हुए बालकों को यह उलाहना नहीं सुनना होगा- ‘अबे, मेडिकल का फॉर्म तो भर रहा है, इंग्लिश मीडियम से पढ़ना पड़ेगा।’

© चिराग़ जैन

Saturday, September 4, 2021

अब उसकी कुछ आस नहीं है

सूखी हुई नदी के तट पर नौका लेकर आने वाले
जिस कलकल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

चलते-चलते बहा पसीना, ठहर-ठहर कर नदिया सूखी
तू होता जाता था लथपथ, वो होती जाती थी रूखी
लहर-लहर लहरा-लहरा कर तुझको पास बुलाने वाले
जिस आँचल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

माना तूने इन राहों पर, दर्द सहा है, चुभन सही है
लेकिन तुझको इंतज़ार की घड़ियों का एहसास नहीं है
अपनी उम्मीदों की नौका, मन्ज़िल तक पहुंचाने वाले
जिस समतल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

हालातों से लड़ते-लड़ते कितनी नौकाएं टूटी हैं
उनका क्या चर्चा करना है, जिनसे धाराएँ रूठी हैं
इस क्षण का सारा सन्नाटा अपने भीतर पाने वाले
जिस हलचल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

कौन सही है, कौन ग़लत है -अब इसमें कुछ सार नहीं है
यही अंत है इस किस्से का और अधिक विस्तार नहीं है
सही-ग़लत की उलझी-उलझी गुत्थी को सुलझाने वाले
तू जिस हल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

इस तट पर जाने कितने ही प्राण पड़े हैं पत्थर होकर
तू भी वापिस ले जाएगा जग में अपनी काया ढोकर
जीवित होने के अभिनय से दुनिया को भरमाने वाले
जिस इक पल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

© चिराग़ जैन