चूँकि उड़ने के लिए पंख फैलाने आवश्यक होते हैं, इसलिए उड़ते हुए पक्षी का आकार, बैठे हुए पक्षी के आकार से बड़ा हो जाता है। भाषा का आकार विस्तृत करके उसे सुदूर यात्रा के योग्य बनाने के लिए ‘अनुवाद’ पंखों की भूमिका निर्वाह करता है। अनुवाद, भाषा के ज्ञानकोष को समृद्ध करता है। अनुवाद के पंख लगाकर ही एक भाषा की रचना अन्यान्य भाषा-भाषियों तक यात्रा करती है।
अनुवाद के महत्त्व को हम यूँ समझ सकते हैं कि रूसी साहित्य के फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की की रचना ‘अपराध और दण्ड’ को हिन्दी के पाठकों तक पहुँचाना अनुवाद के बिना सम्भव नहीं था। इसी प्रकार रबीन्द्रनाथ टैगोर, शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, लियो टॉलस्टॉय, जेन ऑस्टेन, वर्जीनिया वूल्फ, मार्क ट्वेन, व्लादिमीर नामोकोव, जॉर्ज इलियट, होमर, जॉन मिल्टन, मुंशी प्रेमचंद और कुर्रतुल-ऐन-हैदर समेत सैंकड़ों रचनाकार अनुवाद के जादुई कालीन पर बैठकर ही समूचे विश्व में लोकप्रिय हो सके हैं।
एक अनुवादक का दायित्व कई अर्थों में मूल लेखक से अधिक हो जाता है। वह केवल शब्दों का ही अनुवाद नहीं करता बल्कि स्रोत भाषा के सांस्कृतिक परिवेश तथा लक्ष्य भाषा के सांस्कृतिक परिवेश के मध्य भी सामंजस्य स्थापित करने का दायित्व निर्वाह करता है। साहित्यिक अनुवाद में तो यह दायित्व-बोध सामान्य अनुवाद की तुलना में कई गुना अधिक हो जाता है।
उदाहरण के लिए, यदि अंग्रेजी की किसी कहानी का अनुवाद हिन्दी भाषा में किया जाए तो अनुवादक को इंग्लैंड के परिवेश तथा भारत के परिवेश का व्यवहारिक ज्ञान होना आवश्यक है। चूँकि इंग्लैंड में ठण्ड अधिक पड़ती है इसलिए ग्रीष्म ऋतु उनके लिए सुहावनी होती है। लेकिन भारत में यदि यह लिखा जाए कि ‘गर्मी की सुहानी ऋतु थी’ तो पाठक को यह हास्यास्पद जान पड़ेगा। इसी प्रकार हिन्दी में ‘गुलाब’ पुल्लिंग है और अंग्रेजी में ‘रोज़’ स्त्रीलिंग है। कोरा शब्दानुवाद किसी कृति की भावभूमि का मर्म स्पर्श करने की बजाय उसे बेढंग का बनाकर छोड़ देता है।
इसमें भी हिन्दी कविता के अनुवाद के सम्मुख एक कठिनाई इसकी छन्दबद्धता भी है। अनेक हिन्दी कविताएँ ऐसी हैं जिनमें कथ्य से अधिक आनन्द उनके शिल्पपक्ष का है। बुनावट के इस आनन्द को लक्ष्य भाषा तक ले जाना लगभग असंभव है।
हरि गरज्यो, हरि बरस्यो, हरि आयो हरि पास।
पर जब हरि, हरि में गया, तब हरि भयो उदास।।
इस दोहे में रचनाकार ने ‘हरि’ शब्द के विभिन्न अर्थों का प्रयोग करके श्लेष अलंकार का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है, किन्तु इसको यदि किसी अन्य भाषा में अनूदित किया जाएगा तो यह दोहा तीसरी-चौथी कक्षा के पाठ्यक्रम की एक बेहद सामान्य उक्ति से अधिक कोई अर्थ न संजो सकेगा।
रीतिकाल की रचनाओं में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जो यदि किसी अन्य भाषा में अनूदित कर दिए जाएँ तो गूगल उन्हें ‘इनएप्रोप्रिएट कन्टेन्ट’ समझकर अमान्य कर देगा। किन्तु हिन्दी में वे ही रचनाएँ श्रेष्ठ सौंदर्य तथा काव्य-शिल्प के लिए रेखांकित की जाती हैं।
ग़ज़ल के रदीफ़-काफ़िये उसके सौंदर्य का आधार बन जाते हैं। उन्हें अनुवाद के माध्यम से किसी अन्य भाषा तक साध लेना लगभग असंभव है।
यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
इस शेर में प्रयुक्त लफ़्ज़ ‘आह’ को ठीक इसी भाव के साथ किसी भी अन्य भाषा तक ले जाना सम्भव नहीं है, और इस लफ़्ज़ की इस प्रयोजनीयता के आभाव में इस शेर की प्रभावोत्पादकता भंग हो जाती है।
यही कारण है कि हिन्दी की छंदबद्ध कविताएँ या तो अनुवादकों की वरीयता पर नहीं आ पातीं या फिर अनुवाद के बाद उनकी रस-निष्पत्ति लगभग शून्य हो जाती हैं।
ऐसा माना जाता है कि एक अच्छे अनुवादक को स्रोत भाषा की सामान्य तथा लक्ष्य भाषा की विशेष जानकारी होनी चाहिए। जबकि मेरा मानना है कि एक अच्छे अनुवादक को स्रोत भाषा तथा लक्ष्य भाषा दोनों की विशेष जानकारी के साथ-साथ दोनों भाषाओं के मुहावरे की भी जानकारी होनी चाहिये। एक साहित्यिक अनुवादक को दोनों भाषाओं के सांस्कृतिक, सामाजिक तथा पौराणिक परिवेश की भी अच्छी जानकारी होनी चाहिए। तथा कविता का अनुवाद करनेवाले व्यक्ति को दोनों भाषाओं की सामाजिक संवेदना का भी गहरा ज्ञान होना चाहिए।
इस गुण के अभाव में किसी कविता का अनुवाद तो किया जा सकता है किंतु उस अनूदित कृति को ‘कविता’ नहीं कहा जा सकता।
इधर कुछ समय से हिन्दी के अनुवादकों ने अपना पूरा ध्यान कार्यालयी अनुवाद पर केंद्रित कर लिया है। राजभाषा विभाग में नौकरी प्राप्त कर लेना उनके अनुवाद कर्म का अंतिम लक्ष्य है। मैं यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वर्तमान में अधिकतर राजभाषा विभागों में लिप्यन्तरण को अनुवाद समझा जा रहा है। यही कारण है कि सरकारी प्रपत्रों तथा दस्तावेज़ों में या तो अंग्रेजी अथवा अरबी के शब्दों को यथावत देवनागरी में लिख दिया जाता है या फिर उसको इतना क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ रूप दे दिया जाता है कि वह भाषा के उपहास का कारण बन जाते हैं।
मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि भाषा को जटिल बनाकर उसकी हँसी उड़वाने से बेहतर है कि उसे सहिष्णु बनाकर उसका सरलीकरण कर दिया जाए। कार्यालयी अनुवाद तथा वैज्ञानिक व तकनीकी अनुवाद में हमें यह बात स्वीकार करनी होगी कि विज्ञान, तकनीक तथा कार्यालयी व्यवस्थाओं का जो स्वरूप हमने वर्तमान में अंगीकार किया है, उसका उद्गम संस्कृत से न होकर अंग्रेजी अथवा अरबी से होता है। इस हेतु कम्प्यूटर को ‘संगणक’ कहने की ज़िद्द ठानने से बेहतर है कि हम उसे देवनागरी में ‘कम्प्यूटर’ लिखकर संतोष कर लें।
शब्द आयात करने में भाषा की कोई हानि नहीं होती, जबकि व्याकरण को अनदेखा कर देने से भाषा अपंग हो जाती है। कार्यालयी कामकाज में कई बार ऐसा फूहड़ अनुवाद किया जाता है कि हिन्दी के दस्तावेज़ में भी अंग्रेजी का व्याकरण शेष रह जाता है। इन काग़ज़ात को पढ़कर ऐसा लगता ही नहीं कि आप हिन्दी भाषा पढ़ रहे हैं। जिन लोगों ने कभी अदालती दस्तावेज़ पढ़े हैं या निविदा आदि की सूचनाएँ पढ़ी हैं, वे मेरी बात से जल्दी सहमत हो सकेंगे।
गूगल ट्रांसलेशन की सुविधा से इस प्रदूषण में दिन दूनी, रात चौगुनी प्रगति हुई है। अंग्रेजी के पत्र को गूगल ट्रांसलेशन से हिंदी में कन्वर्ट करके कार्यालय की दृष्टि में हिंदी को और अधिक अनुपयोगी बनाने में कर्मठ राजभाषा कार्मिकों ने महती भूमिका निभाई है।
राजभाषा विभागों की प्रतिष्ठापना करनेवालों ने स्वप्न यह देखा था कि एक दिन सभी सरकारी दस्तावेज़ मूल रूप से हिंदी में होंगे और विभाषीय क्षेत्रों में पत्राचार करने के लिए उनको अंग्रेजी भाषा में अनूदित करके प्रेषित किया जाएगा। किन्तु अनुवाद की लापरवाही के कारण वस्तुस्थिति यह है कि आज दफ़्तरों में प्रत्येक पत्र मूलतः अंग्रेजी में है और राजभाषा के आँकड़े पूरे करने के लिए उनका अल्लम-गल्लम देवनागरी रूपांतरण करके उन्हें आवश्यक औपचारिकता के रूप में द्विभाषी बनाकर संलग्न कर दिया जाता है। इस अनूदित काग़ज़ की क्षमता तथा उपयोगिता का अनुमान स्वयं कार्यालय को भी होता है, इसी कारण अक्सर द्विभाषी दस्तावेज़ों पर यह डिस्क्लेमर दिया जाता है कि किसी विवाद की स्थिति में अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत नियमावली को प्रमाण माना जाएगा।
अनुवाद को उत्तरदायित्व के स्थान पर औपचारिकता बनाने का ही एक दुष्परिणाम यह है कि गणित, तकनीक तथा विज्ञान जैसे विषयों के हिन्दी अनुवाद केवल ख़ानापूर्ति के लिए प्रकाशित किये जाते हैं। उनकी उपादेयता के विषय में न तो अनुवादक गम्भीर दिखाई देते हैं, न ही प्रकाशक। हाँ, विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करनेवाले मंत्रालय तथा विभाग अपने राजभाषा विभाग के आँकड़े पूरे करने के लिए इस प्रकार के फूहड़ अनुवादों को पुरस्कृत करके हिन्दी के प्रति गाम्भीर्य का अभिनय अवश्य कर लेते हैं।
अर्थशास्त्र तथा सांख्यिकी जैसे विषयों के अनुवादकों ने इतना सहयोग अवश्य किया है कि उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे राज्यों में इन विषयों की उच्च शिक्षा का माध्यम हिन्दी रखना सम्भव हो सका। अभियांत्रिकी तथा चिकित्सा जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र इस सुख से भी या तो वंचित हैं या फिर कोरी औपचारिकता के निर्वहन से धीरज धरे बैठे हैं।
अनुवादक यदि ठान लें तो वे बहुत कम समय में हिंदी की प्रयोजनमूलकता में इतनी वृद्धि कर सकते हैं कि राजभाषा का स्वप्न देखनेवाली आँखों की पथराई पुतलियाँ चमकने लग जाएँ। विश्व साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों की सूची में हिंदी की भी कुछ रचनाएँ सम्मिलित हो सकें। यदि अनुवादक थोड़े गम्भीर हो जाएँ, तो हिन्दी क्षेत्र के सरकारी स्कूलों में पढ़कर बड़े हुए बालकों को यह उलाहना नहीं सुनना होगा- ‘अबे, मेडिकल का फॉर्म तो भर रहा है, इंग्लिश मीडियम से पढ़ना पड़ेगा।’
© चिराग़ जैन
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