Sunday, September 12, 2021

दो साल बाद कवि सम्मेलन

दो साल के घनघोर निठल्लेपन के बाद मुझे कवि-सम्मेलन का आमंत्रण मिला तो मैं फूला नहीं समा रहा था। सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल न होता तो उस दिन मेरा आयतन दो गज की सीमा को पार कर गया होता। जिस मोबाइल की घण्टी से भी रेमडिसिवर की बदबू आने लगी थी, उससे फिर से होटल से उठाए हुए शैम्पू और साबुन की ख़ुशबू आने लगी।
कोविड के भयावह दौर से गुज़र कर जो धड़कन विरक्ति की झपताल में चलने लगे गयी थी उसने यकायक द्रुत गति की कहरवा का रुख़ कर लिया।
पुराने मकान की दीवार पर गड़ी हुई कील में युगों से लटक रहे रस्सी के टुकड़े जैसी बेकार मेरी उंगलियाँ अचानक हाईटेंशन वायर की तरह फड़फड़ाने लगीं। मैनें मोबाइल में पड़ी ट्रेवल एप को इन फड़फड़ाती उंगलियों से छुआ तो उस एप्प ने मुझे उसी दृष्टि से देखा जिस दृष्टि से कभी देवकी माई ने कंस को मारकर आए कन्हैया को देखा होगा।
‘डिपार्चर’; ‘अराइवल’; ‘ट्रेवल डेट’ और ‘पैसेंजर डिटेल’ जैसे शब्दों को पढ़कर मेरी आँखें भर आईं। भीगी पलकों से बुक हुई टिकट को देखा तो उसका एक-एक शब्द अजंता की किसी अप्रतिम पेंटिंग की तरह मन पर छप गया। जिस एयरलाइंस के लोगो को भी कभी नज़र उठाकर नहीं देखा था, उसके लोगो की एक-एक लकीर को आँखों में बसा लिया। पीएनआर ऐसे रट गया, ज्यों साधनारत किसी तपस्वी को मंत्र रट जाता है।
टिकट बुकिंग का अलौकिक आनन्द उठाने के पश्चात मेरी गर्दन ने घूमकर कमरे के उस कोने पर दृष्टिपात किया, जहाँ चार-चार पहियों की स्वामिनी एक अटैची दो वर्ष से जड़वत खड़ी थी। ज्यों ही मैंने उसे छुआ तो ऐसा महसूस हुआ कि बरसों से पाषाण की तरह जी रही किसी अहल्या में प्राण संचरित हो गये हों। मेरे हाथ लगाते ही वह अपने चारों पहियों पर एक साथ नृत्य कर उठी। हैंडल पकड़कर मैंने उस पर नियंत्रण न किया होता तो वह उसी क्षण दौड़कर हवाई अड्डे पहुँच गयी होती।
मैंने बड़े प्यार से अटैची को बिस्तर पर लिटाया। फिर सलीक़े से उसकी ज़िप को टटोल कर रनर को पकड़ा। अटैची की ज़िप खुलने की आवाज़ सुनने को व्याकुल कान उत्साह में आँख के करीब झुक चुके थे। रनर एक निश्चित दिशा में चलने लगा और अटैची की सीत्कार जैसी आवाज़ ने पूरे माहौल को रोमांचित कर दिया। दोनों रनर बौराए हुए तीतरों की भाँति अलग-अलग दिशा में दौड़ गये और मेरे बाएँ हाथ ने आगे बढ़कर लगभग इस अंदाज़ में अटैची के दोनों फलक खोल दिये ज्यों अलीबाबा सिमसिम के भीतर कोई ख़ज़ाने का बक्सा खोल रहा हो। अटैची खुलते ही मेरी आँखें अटैची से होड़ करने लगीं। हालाँकि यह मुझे पहले से पता था कि अटैची ख़ाली होगी लेकिन फिर भी मैं आँख फाड़-फाड़कर उस ख़ालीपन को अपनी आँखों में भर लेना चाहता था।
अटैची में सजाने को जब मैंने कपड़ों की अलमारी खोली तो अलमारी के कब्ज़ों ने चूँ की आवाज़ करके मुझे सूचना दे दी कि कपड़े काफ़ी नाराज़ हैं, ज़्यादा चू-चपड़ मत करना। मैंने शर्मिंदगी से भरकर कलफ़ लगे कपड़ों की ओर देखा तो उन्होंने मुझे उसी हिकारत से देखा जैसे द्रौपदी ने चीरहरण के बाद युधिष्ठिर को देखा था। किंतु ढीठ होकर मैंने भी हैंगर पकड़कर एक जोड़ी पैंट-शर्ट को ठीक वैसे उतार लिया जैसे कीचक की अभद्रता के बाद भी कंक ने सैरन्ध्री को समझाने-बुझाने की हिम्मत जुटा ली थी।
लेकिन इस बार कपड़े मुझसे ज़्यादा ढीठ निकले। हैंगर से उतरने के बाद भी उनके माथे पर एक सिलवट पड़ी रह ही गयी थी। मैं समझ गया कि इस बार नरमी से काम न चलेगा। इतने दिन एक ही आसन में टँके-टँके कपड़ों ने अकड़ना सीख लिया है, सो मैंने भी इस्तरी लेकर उन्हें गर्मी दिखाई तब जाकर मुआमला शान्त हो सका।
एक-एक सामान को समझा-बुझाकर अटैची में जमाने के बाद अटैची के दोनों रनर्स को पुनः क़रीब लाया गया और महीनों से ख़ाली खड़ी बेचारी अटैची को तृप्त करके एक ओर खड़ा कर दिया गया। भीतर से भरे व्यक्तित्व की तरह अटैची का आत्मविश्वास भी देखने लायक था। पहले छूने भर से बौरा जाने वाली अटैची अब हिलाने पर भी ठहरकर पाँव बढ़ा रही थी।
मैं पूरी तैयारी करके मोबाइल में सुबह चार बजे का अलार्म लगाने लगा तो मोबाइल की घड़ी ने टोका - ‘इतने फॉर्मल क्यों हो रहा है बे, दो साल बाद कार्यक्रम का आमंत्रण मिला है। दस तो बज ही गए हैं... चार-छह घण्टे इस आमंत्रण का प्रचार कर... इस क्षण को एन्जॉय कर...!’
मुझे अपने टुच्चेपन पर शर्मिंदगी हुई। भरा हुआ कवि भी भला सोता है! यही तो समय है आत्मविश्वास के साथ बाक़ी कवियों को फोन कर-करके यह कहने का- ‘चलो, अब मैं सोता हूँ, सुबह जल्दी उठना है, छह बजे एयरपोर्ट पहुँचना है ना!’

© चिराग़ जैन

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