हमने लड़ाकों के इतने गुण गाए हैं, कि हम सौहार्द और शांति को 'हीन' मान बैठे हैं। हम अहिंसा का संदेश देनेवाले महावीर की संज्ञा को समझने में चूक गए हैं। अध्यात्म की पाठशाला में हमने 'धैर्य'; 'क्षमा'; 'दया'; 'करुणा'; 'विश्वास'; 'आत्मबल'; 'त्याग' और 'परोपकार' की थ्योरी अवश्य पढ़ी, किंतु प्रैक्टिकल करने के समय हमने धैर्य को उद्वेग से रिप्लेस कर दिया। क्षमा को हम प्रतिशोध की ज्वाला में भस्म कर बैठे। दया और करुणा को हमने अनावश्यक घोषित कर दिया। विश्वास करनेवाले को हम मूर्ख कहने लगे। आत्मबल की धार को हमने कृत्रिम अस्त्र की ओट में ओझल कर दिया। त्याग को हमने कायरता और पलायन कहना शुरू कर दिया तथा परोपकार को हमने स्वार्थ की नृशंसता से विक्षिप्त कर डाला।
अब हमारे पास समाज को बाँटने के लिए घृणा की दुधारी तलवार है, जिससे हम अपने विवेक का कचूमर निकाल चुके हैं। पिछली कई सदियों से हम लगातार इस तलवार से वार करते जा रहे हैं और हर वार आख़िरकार हमें और अधिक विवेकहीन बनाए जा रहा है।
और मज़ेदार बात यह है कि इस तलवार को हम अपनी मर्ज़ी से नहीं अपितु किसी न किसी सत्ता के कहने से चला रहे हैं। अंग्रेजों ने हमें हिन्दू मुस्लिम में बाँटकर दोनों वर्गों के हाथ में ऐसी तलवारें थमा दीं और हम लगे अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने। ऊँची जाति-नीची जाति, सिया-सुन्नी, दिगंबर-श्वेतांबर, सरयूपारीण-कान्यकुब्ज; भूमिहार-वेदपाठी, दक्षिण भारतीय-उत्तर भारतीय; सैयद-खान और न जाने कितने सारे वर्गों में बँटकर हम एक-दूसरे से घृणा करते रहे हैं। हमें यह कहा जाता रहा है कि तुमने तलवार नहीं चलाई तो सामने वाले तुम्हें मार देंगे। जबकि सामनेवाले हमारी तलवार की पहुँच में थे ही नहीं। हमारी घृणा की तलवार हमें ही लहुलुहान करती रही है और सामनेवाले अपनी घृणा की तलवार से खूनम-खून होने के लिए आत्मनिर्भर हैं। लेकिन हम हर रक्तपात का गुणगान करते हुए नाचते रहे हैं।
हम यह बात मान चुके हैं कि लड़नेवाले ही जिवित रहते हैं। जबकि लड़ाई की राह छोड़कर मौन हो गए अवतारों ने हमें बताया कि बाहर चल रही इस भीषण मारकाट से अधिक कठिन है अपने आपको जीतना।
लेकिन हम कमाल के लोग हैं। हमने हर युग में समाज को विवेकशील बनानेवाले को मौत के घाट उतार दिया। हमने मूर्खता की पोल खोलनेवाले हर शख़्स को 'धर्मविरोधी' घोषित करके मार डाला। हमने सुकरात की हत्या की क्योंकि उसने हमें विवेकशील बनाने की भूल की। हमने मीरा को मार डाला क्योंकि उसने हमें प्रेम के विदेह होने की सूचना दी। हमने जीसस को मार डाला क्योंकि उसने हमें करुणा का पाठ पढ़ाया। हमने गांधी को मार डाला क्योंकि उसने हमारे आत्मबल को जागृत करने का दुस्साहस किया।
बिल्कुल सही हुआ इन सबके साथ। ये सब लोग अपने-अपने समय की सियासत के लिए ख़तरा बन गए थे। इसलिए इनका मरना आवश्यक हो गया था। इन सभी के हाथ आडंबर के बदबूदार पर्दे को खींचकर फेंक देना चाहते थे। ऐसे में अगर इन्हें जिवित छोड़ दिया जाता तो ये समाज को सत्य के सम्मुख ला खड़ा करते। इससे तो समाज विवेकी बन जाता। फिर घृणा की तलवार का चलना असंभव था। फिर आडंबर का धंधा चलना नामुमकिन था।
फिर रक्तपात पर जयकारे नहीं, करुणा उपजती। फिर युद्ध को किसी जीवन का लक्ष्य नहीं, बल्कि किसी समस्या का अंतिम उपाय समझा जाता।
ऐसी स्थिति में भय की सत्ता ध्वस्त हो जाती। ऐसे में घृणा का कारोबार चौपट हो जाता। लोग ख़ुद को लहुलुहान करना छोड़ देते तो मरहम के व्यापारी देवदूत का रूप धरकर उन्हें ग्राहक कैसे बनाते।
इसलिए विवेक जगानेवाले को मौत के घाट उतार देना सत्ता के लिए परम आवश्यक है। इसलिए आडंबर का कोलाहल 'शोर' बन जाने की हद्द तक बना रहना चाहिए क्योंकि अगर इस शोर से मनुष्य के कानों को थका नहीं दिया गया तो ये कान अपने राम, अपने कृष्ण, अपने महावीर, अपने बुद्ध, अपने वाल्मीकि, अपने रैदास, अपने जीसस और अपने पैगंबर का मौन सुन लेंगे और यह स्थिति हथियारों के व्यापारियों के लिए घातक सिद्ध होगी। विवेक जाग गया तो अर्थ की सत्ता निस्तेज हो जाएगी। विवेक जाग गया तो अनर्थ हो जाएगा।

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