साहित्य करुणा से उपजता है। साहित्य संवेदना से जन्म लेता है। 'आह से उपजा होगा गान' -यही 'आह' साहित्य की सर्जना का बीज है। यही कारण है कि साहित्य सदैव कमज़ोर की आवाज़ बनता है।
साहित्य की समाज में वही भूमिका है, जो महाभारत के युद्ध में बर्बरीक की थी। वह न पाण्डवों के पीछे खड़ा है, न ही कौरवों के पीछे। क्योंकि साहित्य जानता है कि कोई भी दल हर हाल में निर्दोष नहीं हो सकता और कोई भी दल हर हाल में दुष्ट नहीं होता। इसीलिए बर्बरीक घोषणा करते हैं कि युद्ध में जो हारने लगेगा, मैं उसकी ओर से लड़ने लगूंगा। ठीक यही घोषणा साहित्य की मूल प्रवृत्ति है।
जीतता हुआ मनुष्य अपनी नैसर्गिक विनम्रता खोने लगता है। इसीलिए विजयी को देखकर उन्माद फूटता है, आह नहीं। सत्ताधीश इतिहास का नायक हो सकता है, साहित्य का नहीं। आपने कभी सुना भी न होगा कि विजेता का ही 'साहित्य' लिखा जाता है। क्योंकि विजयी के यहाँ साहित्य का कच्चा माल है ही नहीं।
जहाँ पीड़ा होगी, साहित्य वहीं उपजेगा। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि साहित्यकार पीड़ित के पीछे नहीं, बल्कि पीड़ा के पीछे चलता है। यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि साहित्य सत्ताधीश के विरुद्ध न होकर सत्ताभिमान के विरुद्ध होता है।
कठोर होना सत्ता की विवशता है। किन्तु इस विवशता को प्रवृत्ति बनने में देर नहीं लगती। इस अपरिहार्यता को अन्याय बनने में समय नहीं लगता। और जिस क्षण यह कठोर, क्रूर बना; ठीक उसी क्षण साहित्य उसके विरुद्ध खड़ा मिला। क्रूरता और करुणा का परस्पर विरोध सर्वविदित है।
जो इंदिरा गांधी आपातकाल के समय कड़ी साहित्यिक आलोचना झेल रही थीं, उन्हीं की हत्या पर साहित्य की आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी थी। जो अटल बिहारी वाजपेयी अनवरत विपक्ष में रहते हुए साहित्य का अनवरत समर्थन पाते थे, उन्हीं के प्रधानमंत्री बनने के बाद साहित्य ने उनके अनेक निर्णयों की चुटीली आलोचना की। जो राहुल गांधी प्रधानमंत्री का अध्यादेश फाड़ने के बाद साहित्य की तीखी आलोचना के शिकार हुए, उन्हीं को पदयात्रा के बाद साहित्यिक गलियारों का कमोबेश समर्थन मिलने लगा।
यहाँ कोई इंदिरा जी, कोई अटल जी या कोई राहुल गांधी महत्वपूर्ण नहीं है। अपितु इनकी परिस्थितियाँ महत्वपूर्ण हैं।
यही राहुल गांधी अपनी पार्टी के लोगों को उपलब्ध नहीं होते तो यही साहित्य वहाँ उनकी खिंचाई करने से नहीं चूकता। क्योंकि कांग्रेस मुख्यालय में राहुल गांधी सत्ताधीश हैं। इसलिए यह समझना होगा कि साहित्य का काम वंचित और सत्ता के मध्य संतुलन स्थापित करना है।
यदि साहित्य बर्बरीक की भूमिका न निभाए तो सत्ताधीश को आततायी बनने में देर नहीं लगेगी। और यदि साहित्य कर्ण की भाँति दुर्योधन के दुर्गुण देखते हुए भी उसे टोकने से परहेज करेगा तो वह दुर्योधन का मित्र नहीं अपितु कुरुवंश का आत्मघाती शत्रु सिद्ध होगा।
~ चिराग़ जैन
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