राज्य, वैभव और निज पहचान तक से हाथ धोकर
चल दिये पाण्डव स्वयं के शौर्य से अज्ञात होकर
वीरता के उपकरण को गौण रहना है
शक्ति को अब होंठ सीकर मौन रहना है
भाग्य ने क्या खेल खेला है विवशता के पलों में
सूख जाने की अनोखी खलबली है बादलों में
शस्त्र, जिनको प्राप्त करने के लिए काया गलाई
अब उन्हीं सबको छुपाते फिर रहे हैं जंगलों में
प्राण के बिन, देह को चुपचाप दहना है
शक्ति को अब होंठ सीकर मौन रहना है
देख लो, राजा युधिष्ठिर कंक बनकर जी रहे हैं
द्यूतगृह में दांव हारे, रंक बनकर जी रहे हैं
विश्व जिनकी वीरता को देखकर इतरा रहा था
वे स्वयं के शौर्य का आतंक बनकर जी रहे हैं
पार्थ ने गांडीव तज, शृंगार पहना है
शक्ति को अब होंठ सीकर मौन रहना है
द्रौपदी को साज और सिंगार की अनुमति नहीं है
भीम को निज जीभ के सत्कार की अनुमति नहीं है
वीरता भयभीत है, कोई उसे पहचान ना ले
अब अनुज को अग्रजों के प्यार की अनुमति नहीं है
आह, हर इक चाह का अवसाद गहना है
शक्ति को अब होंठ सीकर मौन रहना है
शौर्य के हर चिह्न से परहेज करना पड़ रहा है
धैर्य की भी धड़कनों को तेज़ करना पड़ रहा है
यश बढ़ाने का हर इक आशीष अब अभिशाप सा है
हाय अपने आपको निस्तेज करना पड़ रहा है
रक्त तक को धमनियों में शांत बहना है
शक्ति को अब होंठ सीकर मौन रहना है
इस पराभव का जनक क्या द्यूत का षडयंत्र बल है
कर्म के अनुरूप फल होगा, नियम ये भी अटल है
दांव पर थी लाज और भुजदण्ड में कंपन नहीं था
यह विवशता उस नपुंसक शौर्य से उत्पन्न फल है
इक घड़ी का मौन अब दिन-रात सहना है
शक्ति को अब होंठ सीकर मौन रहना है
✍️ चिराग़ जैन
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